इंटरसेक्शनल बात जल-जंगल-जमीन और आदिवासी समुदाय के अस्तित्व और अस्मिता की

बात जल-जंगल-जमीन और आदिवासी समुदाय के अस्तित्व और अस्मिता की

स्वंत्रता पूर्व आदिवासी क्षेत्रों में ब्रिटिश सरकार द्वारा उनकी राजस्व नीति के अंतर्गत स्थायी बंदोबस्त की व्यवस्था को थोपा गया और भूमि का अधिकार जमींदारों के हाथों सौंप दिया गया। जो भूमि के स्वामी हुआ करते थे वह आदिवासी रैयत दर रैयत बन गए।

आदिवासी शब्द आदि और वासी शब्दों को मिलाकर बनाया गया है। ‘आदि’ जिसका अर्थ है जो पहले से है और ‘वासी’ का अर्थ है निवासी। यह शब्द एक पहचान का परिचायक है। गंगा सहाय मीणा ने आदिवासी शब्द को परिभाषित करते हुए कहा है, “आदिवासी देश के मूल निवासी माने जाने वाले तमाम आदिम समुदायों का सामूहिक नाम है।” आदिवासियों का संघर्ष जल, जंगल, जमीन और प्राकृतिक संसाधनों से जुड़ा हुआ है। आदिवासियों की अस्मिता पर प्रश्न जहां उनके नाम की परिभाषा से गहरा संबंध रखता है, वहीं वह उनकी सामूहिक संरचना और जीवनयापन के साधन जल, जंगल और जमीन से जुड़ा है।

आदिवासियों का उद्गम उनकी पहचान को पुष्ट करता है तो उनकी विरासत, भाषा, शिक्षा, संस्कृति और जीवनशैली की पहचान को ज़िंदा रखती है। इसकी रक्षा किए बिना उसकी अस्मिता की रक्षा नहीं हो सकती है। इस पर ‘आदिवासी स्वर और नई शताब्दी’ किताब की लेखिका रमणिका गुप्ता का कहना है, “एक समूह होते हुए भी आदिवासियों ने अपनी संस्कृति, भाषा, अपने जीने की सामूहिक शैली, परंपराओं और रीति-रिवाजों की विरासत को ज़िंदा रखा है।”

आदिवासियों के द्वारा किए गए संघर्षों के कुछ उद्धरण हैं- कोल विद्रोह (1831), संथाल विद्रोह(1855), मुंडा विद्रोह (1900)। संथाल विद्रोह जिसे हूल विद्रोह भी कहा जाता है। यह संथाल जनजाति द्वारा  ब्रिटिश सेना, जमींदार और सामंतियों की क्रूर नीतियों के ख़िलाफ़ था।

स्वंत्रता पूर्व आदिवासी क्षेत्रों में ब्रिटिश सरकार द्वारा उनकी राजस्व नीति के अंतर्गत स्थायी बंदोबस्त की व्यवस्था को थोपा गया और भूमि का अधिकार जमींदारों के हाथों सौंप दिया गया। जो भूमि के स्वामी हुआ करते थे वह आदिवासी अपनी ही ज़मीनों से बेदख़ल किए जाने लगे। जिसके बाद धीरे-धीरे सूदखोरों और गैर-आदिवासियों द्वारा धोखे से और ताकत से आदिवासियों की ज़मीन हस्तांतरित की गई। इस वजह से आदिवासी भूमिहीन, खेतिहर मजदूर या बंधुआ बन गए। इस पर रमणिका गुप्ता कहतीं हैं, “पूंजीपतियों के विकास और वन दमन के लिए आदिवासियों के विशाल जनसमूह को निसहाय बना दिया। उन्हें इस हालत में रखने की साज़िश रची गई ताकि वे पूंजीपतियों के लिए सस्ते मज़दूर बनकर उनके हित साधन की दमनकारी मशीन का एक पुर्जा बन जाएं। उनकी समस्या क्या है, ज़मीन से बेदखली, विस्थापन और पलायन। उनकी चाहना है ज़मीन की वापसी और पुनर्वास।”

व्रिदोह में आदिवासी समाज की आवाज़  

शोषण के हर तरह के तंत्रों ने आदिवासी समुदाय पर अत्याचार किया, पक्षपात, लूट, छल, अन्याय किया। लेकिन इन सबके ख़िलाफ़ आदिवासी समुदाय ने आवाज़ उठाई और विरोध जताकर, कड़ा संघर्ष किया। चाहे वे वन विभाग के कर्मचारियों के ख़िलाफ़, जमींदारों, महाजनों, प्रशासन पुलिस के ख़िलाफ़ हों। उन्होंने केवल संघर्ष किया और कर रहे हैं। आदिवासियों के द्वारा किए गए संघर्षों के कुछ उद्धरण हैं- कोल विद्रोह (1831), संथाल विद्रोह(1855), मुंडा विद्रोह (1900)। संथाल विद्रोह जिसे हूल विद्रोह भी कहा जाता है। यह संथाल जनजाति द्वारा ब्रिटिश सेना, जमींदार और सामंतियों की क्रूर नीतियों के ख़िलाफ़ था। रूपचंद्र वर्मा के अनुसार, “इसे 1857 की क्रांति के पूर्व का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा जा सकता है।” वहीं मुंडा विद्रोह ब्रिटिश द्वारा जनजातीय जीवनशैली और संस्कृति में हस्तक्षेप का कारण था। जमीन से जुड़े मामलों और आदिवासी भू-राजस्व व्यवस्था को बदलने के विद्रोह में बिरसा मुंड़ा के नेतृत्व में यह आंदोलन हुआ था। सरकारी व्यवस्था और शोषण के ख़िलाफ़ संघर्ष का आदिवासी समुदाय का एक बड़ा इतिहास है।

आत्मनिर्भर और स्वाधीन आदिवासी महिलाएं

आमतौर पर हमें यह धारणा देखने सुनने को मिलती है कि आदिवासी महिलाएं अधिक आत्मनिर्भर तथा स्वाधीन होती हैं। उन्हें गैर आदिवासी महिलाओं के मुकाबले पितृसत्तात्मक व्यवस्था से अधिक मुक्त माना जाता है। आदिवासी संस्कृति श्रम आधारित संस्कृति है। श्रम का सर्वाधिक सम्मान आदिवासी समाज करता है इसलिए एक समय आदिवासी परंपरा में स्त्रियों को भी बराबरी का अधिकार था। स्त्रियां न केवल जंगलों एवं खेतों में होने वाले कार्यों में समान रूप से भागीदार थीं बल्कि सामुदायिक फ़ैसलों में अपना मत रखने के लिए भी स्वतंत्र थीं। इसके विपरीत गैर आदिवासी संस्कृति से प्रभावित समकालीन आदिवासी समाज में लैंगिक आधारों पर होने वाला भेदभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। आदिवासी प्रथागत नियमों का अंधानुकरण आदिवासी पुरुषों पर आश्रित बनाने वाला साबित हुआ है। इस तरह आदिवासी महिलाओं की स्थिति में होने वाला अवमूल्यन आखिरकार आदिवासी समाज के लिए ही नुकसानदेह साबित हो रहा है।

इतिहास से लेकर वर्तमान तक आंदोलनों में महिलाएं

तस्वीर साभारः Counterview

जल,जंगल, जमीन और पर्यावरण यदि ये सभी तत्व न हो तो आदिवासी समुदाय की पहचान ही न रहेगी। यही इनकी पहचान का परिचायक है जिन्हें बचाने के लिए आदिवासी महिलाओं और पुरुषों द्वारा लगातार संघर्ष जारी है। इतिहास से लेकर वर्तमान तक समय-समय पर आदिवासी समुदाय के लोगों ने अपने अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष किया है। 

आदिवासी समुदाय की महिलाओं ने हमेशा शांतिपूर्ण होकर नये तरीकों से अपने विरोध प्रकट किये हैं। चाहे वह पेड़ों से चिपककर खड़ा होना हो या फिर घेराव आदि। मध्य प्रदेश के बुरहानपुर जिले में आदिवासियों ने जंगलों की अवैध कटाई और अतिक्रमण को लेकर जिला मुख्यालय पर पंहुचकर कलेक्टर कार्यालय का घेराव किया। जाग्रत आदिवासी महिलाएं हाथों में लाल झण्डे लेकर कलेक्टर कार्यालय पहुुंचीं। यहां पहुंचे आदिवासी संगठन के लोगों ने सरकार के ख़िलाफ़ जमकर नारेबाजी की। इस धरने में 500 से अधिक आदिवासी महिला और पुरुष शामिल हुए।

पर्यावरण संरक्षण और जीविका

आदिवासी समुदाय के लोग अपनी जीविका के लिए पर्यावरण पर निर्भर हैं और उसके लिए बहुत संवेदनशील भी है। प्रकृति के हितों को देखते हुए हुए ही ये अपना काम करते हैं। ऐसा ही एक उदाहरण है बालाघाट के लगमा जिले की ललिता मेरावी। वह पर्यावरण संरक्षण का संकल्प लेते हुए पॉलीथीन का उपयोग बंद कराने के लिए काग़ज़ के थैले बनाती हैं। साल 2019 में ललिता ने थैला बनाने का कार्य शुरू किया था दो साल में कान्हा राष्ट्रीय उद्यान में लगे लॉज में पर्यटकों को 9000 थैले बेचें। अब वह एक स्वयं सहायता समूह चलाती है जिसमें अन्य महिलाओं को भी रोजगार प्राप्त हुआ है।

नई दुनिया में प्रकाशित ख़बर के अनुसार उनका मानना है कि “अधिकतर लोग पॉलीथीन में सामान लेकर जाते हैं। लोग जहां पर पॉलीथीन फेंकते हैं वहां पेड़ पौधे नहीं उग पाते। वह जमीन बंजर हो जाती है और मवेशी पॉलीथीन खाकर मर जाते हैं। इससे पर्यावरण को बहुत नुकसान होता है इसलिए मेरे मन में यह विचार आया कि काग़ज़ के थैले बनाए जाएं इससे पर्यावरण को नुकसान भी नहीं होगा।”

आदिवासी कला को सहेजती कलाकार

दुर्गाबाई व्याम, तस्वीर साभारः Scroll.in

आदिवासी कला का भी एक लंबा इतिहास है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता मौलिकता और देशज होना है। आदिवासी कला की शैलियां समुदाय के जीवन और प्रकृति के उनके साथ सहज रिश्तों को बयां करती है। तमाम शैलियों में अपनी संस्कृति को बयां करती आदिवासी कला आज भी बहुत से कलाकारों द्वारा सहेजी जा रही हैं। उन्हीं में से एक दुर्गाबाई व्याम एक आदिवासी कला गोंड कलाकार हैं। उन्होंने बहुत छोटी उम्र में कला में रूचि लेनी शुरू कर दी थी। इन्होंने महान गोंड चित्रकार जनगण श्याम सिंह के मार्गदर्शन में आदिवासी संस्कृति एवं प्रचलित पुरातन परंपरा की कल्पना को कागज़ों पर उतारना तथा रंग भरना शुरू किया था। साल 1996 से इनके कला के जीवन की शुरुआत हुई थीं। तब से लगातार वह पर्यावरण संरक्षण संस्कृति और लोक कथा की कल्पना पर रंग भर रही हैं। इनकी पर्यावरण संरक्षण का संदेश देने वाली पेंटिंग्स विदेशों के संग्रहालयों में देखी जा सकती है। इन्हें कई सम्मानों से नवाजा गया हैं। इनकी बनाए चित्र कई किताबों के कवर पेज बन चुके हैं। 

आदिवासी समुदाय अपने अस्तित्व और अस्मिता को बचाए रखने के लिए लगातार संघर्ष, विद्रोह, आंदोलन करके अपने जुझारू होने और अपनी जिजीविषा का परिचय देता है। वह हर तरीके से स्वयं और प्रकृति के हित के लिए संघर्ष कर रहा है। वर्तमान में आदिवासियों की स्थिति और बहुत सी संभावनाओं को जाहिर करती आदिवासी कवयित्री निर्मला पुतुल की पंक्तियां, “आओ मिलकर बचाएं, कि इस दौर में भी बचाने को, बहुत कुछ बचा है, अब भी हमारे पास।”


स्रोत: 

  1. आदिवासी और अन्य इतिहास; हरिश्चंद्र शाक्य 
  2.  आदिवासी स्वर और नई शताब्दीः रमणिका गुप्ता 
  3.  द मूकनायक
  4.  नई दुनिया 
  5.  आदिवासी दुनिया: हरिराम मीणा
  6. आदिवासी अस्मिता से आशयः अशोक कुमार मीणा

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