समाजकानून और नीति कैसे सर्वाइवर्स को न्याय से पीछे ले जाता है झूठे रेप केस पर उत्तराखंड हाई कोर्ट का बयान

कैसे सर्वाइवर्स को न्याय से पीछे ले जाता है झूठे रेप केस पर उत्तराखंड हाई कोर्ट का बयान

भारत में हिंसा की सर्वाइवर कई महिलाओं को अपने खिलाफ हुए अपराध को साबित करने के लिए समाज में संघर्ष करना पड़ता है। ताकतवर लोग पैसे के दम पर केस जीत जाते हैं और महिलाओं की लड़ाई अधूरी रह जाती है। कई मामलों में महिलाओं को अपने मामले वापस लेने के लिए मजबूर किया जाता है।

पिछले दिनों उत्तराखंड हाई कोर्ट ने एक निर्णय सुनाते समय टिप्पणी की कि बलात्कार के कानून का गलत इस्तेमाल आजकल महिलाएं तब कर रही हैं जब उनका किसी पुरुष साथी के साथ मतभेद हो जाता है। हाई कोर्ट की इस टिप्पणी के बाद से सोशल मीडिया पर इस मुद्दे पर एक बहस छिड़ गई है। इस टिप्पणी के सामने आने के बाद नारीवादी-विरोधी इस टिप्पणी से खुश नज़र रहे हैं और इस टिप्पणी को सही बताते हुए महिलाओं को खूब ट्रोल कर रहे हैं। भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में जब भी कोई महिला यौन हिंसा का खुलासा करती है  तब लोगों का एक वर्ग अक्सर यही मानता है  कि वह झूठ बोल बोल रही है या महिलाएं ‘झूठे मामले’ दर्ज कराती हैं। यही वजह है कि हमारे यहां बलात्कार और उत्पीड़न के अनगिनत ऐसे मामले हैं जो दर्ज नहीं होते। यह मानसिकता कि महिला झूठ बोल रही है या झूठा मामला बना रही है, ने महिलाओं के खिलाफ हिंसा को बढ़ावा दिया है।

दरअसल, ऐसे कई मामले हैं जहां महिलाएं यह साबित करने में असफल हो जाती हैं कि उनके साथ हिंसा हुई है, लेकिन इसका कतई मतलब यह नहीं होता है कि उनके साथ हिंसा नहीं हुई। भारत में हिंसा की सर्वाइवर कई महिलाओं को अपने खिलाफ हुए अपराध को साबित करने के लिए समाज में संघर्ष करना पड़ता है। ताकतवर लोग पैसे के दम पर केस जीत जाते हैं और महिलाओं की लड़ाई अधूरी रह जाती है। कई मामलों में महिलाओं को अपने मामले वापस लेने के लिए मजबूर किया जाता है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की 2020 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, अंतिम रिपोर्ट में बलात्कार की जांच के तहत सभी मामलों में से 8 प्रतिशत से भी कम मामले ‘झूठे’ पाए गए। NCRB की 2021 की रिपोर्ट बताती है कि भारत में दर्ज 31,677 बलात्कार के मामलों में से केवल 4,009 मामलों में ‘अंतिम रिपोर्ट झूठी’ स्थिति में समाप्त हुई। कथित तौर पर, 2021 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण डेटा में कहा गया है कि बलात्कार के 99 प्रतिशत मामले रिपोर्ट नहीं किए जाते हैं।

आधिकारिक आंकड़ा यह कैसे बता सकता है कि बलात्कार की सर्वाइवर महिलाएं क्या झेल रही होती हैं? वे कई बार अपनी जान तक खो देती हैं या कई बार आरोपी से बचते हुए गुमशुदगी का जीवन जीने को मजबूर हो जाती हैं। ऐसे में क्या यौन हिंसा के सर्वाइवर्स क्या करें?

हालांकि, बलात्कार के जो मामले सामने आते हैं, उनमें मुद्दे की जटिलता को उन कारणों से देखा जा सकता है जिनके कारण कुछ मामलों को ‘झूठा’ माना जा सकता है। यहां तक ​​कि तथाकथित ‘झूठे’ मामलों में भी, बहुत कुछ ऐसा है जिनके बारे में आंकड़े सामने नहीं आते। इसमें वे कारक भी शामिल हैं जो यौन हिंसा से बचे लोगों को अपनी शिकायतें वापस लेने, जांच या परीक्षण के दौरान मुकर जाने या अदालत के बाहर समझौता करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। साल भर कई ऐसे मामले भी दर्ज किए जाते हैं जहां किसी भागे हुए जोड़े के माता-पिता द्वारा केस दर्ज किया जाता है जिसमें महिला पक्ष के लोगों द्वारा लड़के के खिलाफ बलात्कार का मामला दर्ज कराया जाता है। बाद में यह मामला ख़त्म हो जाता है क्योंकि यह मामला भागे हुए जोड़े के माता-पिता द्वारा अस्वीकार कर दिया गया है।

दर्ज किए गए मामले क्यों ‘झूठे’ बन जाते हैं?

हिंसा की सर्वाइवर अधिकतर महिलाओं को बहुत दबाव का सामना करना पड़ता है, जैसे परिवार और दोस्तों का दबाव, डर, भावनात्मक दबाव आदि। हम जानते हैं कि यौन हिंसा के मामलों में अधिकांश आरोपी सर्वाइवर के परिचित होते हैं। ऐसे में अक्सर, सर्वाइवर महिलाओं को इस तरह के केस को करने के लिए और बयान देने से हतोत्साहित किया जाता है, ‘ऐसा मत करो, यह तुम्हारी जिंदगी बर्बाद कर देगा,’ ‘आरोपी की पत्नी, परिवार, बच्चों के बारे में सोचो,’ आदि। ऐसा नहीं है कि ऐसी कोई व्यवस्था है कि शिकायत करने वाली सभी महिलाएं अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा कर सकती हैं।

यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि जो लोग किसी आघात से गुज़रते हैं। जैसे कि यौन हिंसा की सर्वाइवर, उनके बयानों में कुछ विसंगतियां होना काफी आम है क्योंकि इतना बड़ा आघात मस्तिष्क को कई तरह से प्रभावित करता है। इस तरह के सर्वाइवर के साथ पृथक्करण, स्मृति में अंतराल आदि लक्षण अक्सर देखे जाते हैं।

आधिकारिक आंकड़ा यह कैसे बता सकता है कि बलात्कार की सर्वाइवर महिलाएं क्या झेल रही होती हैं? वे कई बार अपनी जान तक खो देती हैं या कई बार आरोपी से बचते हुए गुमशुदगी का जीवन जीने को मजबूर हो जाती हैं। ऐसे में क्या यौन हिंसा के सर्वाइवर्स क्या करें? सर्वाइवर महिलाओं द्वारा दर्ज मामलों को ‘झूठा’ कह कर बंद करने के पीछे बहुत से कारक कार्य करते हैं। उनमें से कुछ कारक निम्न हैं –

  • सबसे पहले, घरेलू हिंसा और यौन उत्पीड़न दोनों तरह के मामलों में सर्वाइवर महिलाएं रिपोर्ट करने में बहुत झिझक महसूस करती हैं। वे इस बात से डरती हैं कि ‘लोग उनके बारे में क्या सोचेंगे’, ‘लोग उन्हें कैसी नज़र से देखेंगे’, वे इस बात से भी डरती हैं कि पुलिस उनके साथ कैसा व्यवहार करेगी।
  • कई बार, अगर पुलिस को लगता है कि महिला की कहानी असंगत है तो पुलिस उसे वापस कर देती है, और उन मामलों में, सर्वाइवर महिला की शिकायत पहली बार में दर्ज नहीं की जाती है। पुलिस द्वारा की गई शिकायत दर्ज करने में देरी और फिर जांच में देरी आरोपी के लिए वरदान साबित होती है। 
  • अगर शुरुआती जांच के दौरान पुलिस का सर्वाइवर महिला के साथ व्यवहार करने का तरीक़ा सही नहीं होता है- यह अनुभव सर्वाइवर को शर्मिंदगी और अविश्वास का अनुभव कराता है – बाद में जांच के दौरान किसी भी स्तर पर सर्वाइवर महिला शिकायत के साथ आगे नहीं बढ़ने का फैसला करती है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि उसका मामला झूठा है। वह इन सब अनुभवों से परेशान और हताश होकर ही यह फैसला करती है।
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बलात्कार कई मामले जांच के दौरान पुलिस द्वारा या बाद में ट्रायल के दौरान जज द्वारा सर्वाइवर महिला के बयानों में ‘विसंगतियों के कारण बंद कर दिया जाता है या झूठा साबित करके ख़त्म कर दिया जाता है। यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि जो लोग किसी आघात से गुज़रते हैं। जैसे कि यौन हिंसा की सर्वाइवर, उनके बयानों में कुछ विसंगतियां होना काफी आम है क्योंकि इतना बड़ा आघात मस्तिष्क को कई तरह से प्रभावित करता है। इस तरह के सर्वाइवर के साथ पृथक्करण, स्मृति में अंतराल आदि लक्षण अक्सर देखे जाते हैं। हालांकि, यौन शोषण के प्रति इन मानवीय प्रतिक्रियाओं को आघात से अनभिज्ञ पुलिस और अदालतें किसी सर्वाइवर पर अविश्वास करने का आधार मान सकती हैं। जबकि कोर्ट और पुलिस को सर्वाइवर को समय देना चाहिए।

कई बार बलात्कार के मामले की रिपोर्ट और उसकी जांच सर्वाइवर महिला के सामाजिक-आर्थिक हैसियत पर भी निर्भर करता है। जैसे कि सर्वाइवर का भावनात्मक और वित्तीय समर्थन, उसकी शिक्षा का स्तर आदि। यदि सर्वाइवर का बैकग्राउंड कमज़ोर है तो जांच के किसी भी स्तर पर उसे झूठा साबित किये जाने में देर नहीं लगती। सर्वाइवर यदि अनपढ़ है तब भी उसका ‘दुरुपयोग’ होने में देरी नहीं होती। आरोपी यदि पैसे वाला और रसूख वाला है तब तो शत प्रतिशत उसी के पक्ष में जांच घूम जाती है। 

बलात्कार के कानून में संशोधन के बाद उसकी रिपोर्टिंग में वृद्धि हुई है और अब अधिक महिलाएं आगे आ रही हैं, खासकर शहरी क्षेत्रों में। लेकिन इनमें आरोपी की दोषसिद्धि मामले पर निर्भर करती है। हम सामने आने वाले सभी मामलों को ‘झूठा’ करार नहीं दे सकते। मामले की तह तक जाने और फिर यह पता लगाने की आवश्यकता होती है कि जांच के कौन से स्तर पर मामला झूठा साबित हुआ है ।  

‘झूठे केस’ या ‘कुछ और’?

जब हम तथाकथित ‘झूठे’ बलात्कार के मामलों को देखते हैं, तो कोई भी यह नहीं जानता कि अंतिम रिपोर्ट ने यह निष्कर्ष क्यों निकाला कि यह एक झूठा आरोप था। जब तक कि मामले की तह तक न जाए जाए ऊपर से कुछ भी पता नहीं निकलता। ऐसा नहीं है कि कानून का दुरूपयोग नहीं होता। यह एक तथ्य है कि कानून का दुरूपयोग होता है लेकिन सभी मामलों में या अधिकतर मामलों में यह कहना गलत है। उदाहरण के लिए, 2014 में द हिंदू में रुक्मिणी एस द्वारा की गई एक जांच में दिल्ली में दर्ज किए गए लगभग 600 बलात्कार के मामलों का विश्लेषण किया गया और पाया गया कि मामलों का सबसे बड़ा हिस्सा भागे हुए जोड़ों से जुड़े थे, जो कथित तौर पर सहमति वाले जोड़े थे।

वास्तव में, झूठे मामलों का यह हौवा तब इस्तेमाल किया जाता है जब व्यवस्थागत रूप से उत्पीड़ित समुदाय उनके लिए बने कानूनों का उपयोग करने की कोशिश की है।

ऐसे 189 मामलों में से 174 में, जोड़ों के भाग जाने के बाद, माता-पिता आमतौर पर लड़की के, जो ज्यादातर मामलों में 15 से 18 वर्ष की उम्र के बीच थे, उन्होंने पुलिस में शिकायत दर्ज करवाई कि उसका अपहरण किया गया और उसके साथ बलात्कार किया गया। यह देखना महत्वपूर्ण है कि देश में सजातीय विवाह प्रचलित है और अंतर-सामुदायिक संबंधों को पसंद नहीं किया जाता है। इसी कारण जब भी कोई जोड़ा भाग कर शादी करने का फैसला करता है तो लड़के के खिलाफ मामला दर्ज होना स्वाभाविक है।

उपरोक्त रिपोर्ट में 583 बलात्कार मामलों में से 123 में, शिकायतकर्ता या तो मुकर गई थी, या मुकदमे की सुनवाई के दौरान आना बंद कर दिया था, या यह कहकर अपना बयान वापस ले लिया था कि उसने झूठा बलात्कार मामला दर्ज किया था। भले ही डीएनए साक्ष्य कोर्ट में चीख-चीख कर बता रहे होते हैं कि महिला के साथ बलात्कार हुआ है लेकिन फिर भी कोई भी यह सवाल नहीं करता कि उसने (सर्वाइवर) अदालत के सामने अपना बयान क्यों बदल दिया। रुक्मिणी के अनुसार, “हालांकि यह संभव है कि इसमें से कुछ महिलाओं पर शिकायतें वापस लेने के लिए दबाव डाले गए हैं – दो मामलों में, शिकायतकर्ताओं ने बताया कि ‘कम्युनिटी मेंबर्स’ उनकी गवाही में हस्तक्षेप कर रहे हैं- अन्य मामले में, शिकायतकर्ता ने कहा कि उसने पैसे के लिए या संपत्ति विवाद के परिणामस्वरूप झूठा मामला दायर किया था।”

पुरुष अधिकार कार्यकर्ताओं ने हमेशा इस आंकड़े का दुरुपयोग किया है। वे यह नहीं समझते हैं कि ऐसे कई कारण भी हो सकते हैं जिनकी वजह से महिलाएं आगे नहीं बढ़ती हैं या ट्रायल के दौरान गवाह बॉक्स में कदम नहीं रखती हैं। न तो आरोपी का बरी होना और न ही किसी मामले का ‘झूठा कह कर बंद होना’ इसे ‘झूठा’ बनाता है। वास्तव में, झूठे मामलों का यह हौवा तब इस्तेमाल किया जाता है जब व्यवस्थागत रूप से उत्पीड़ित समुदाय जैसे दलित और महिलाएं वास्तव में उनके लिए बने कानूनों का उपयोग करने की कोशिश की है। ‘झूठे मुकदमों’ के इस आख्यान का निर्माण सत्ता का दुरुपयोग मात्र है। यहां जो हो रहा है वह यह है कि झूठे मामलों की यह चर्चा उस थोड़ी सी जगह को छीन लेती है जो कानून ऐतिहासिक रूप से उत्पीड़ितों के उल्लंघन के खिलाफ सुरक्षा और सुरक्षित निवारण के लिए प्रदान करता है। यह करने की जगह कि सर्वाइवर महिलाओं का अंत तक साथ दिया जाए उस पर झूठे होने का लाछन लगा देना अनुपयुक्त है। आंकड़ें सिर्फ ऊपरी हाल दिखा सकते हैं। वे उनके पीछे के छिपे हुए कारणों को नहीं बता सकते हैं।


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