ममता सिंह उच्च प्राथमिक विद्यालय नरायनपुर अमेठी में शिक्षक हैं। उन्होंने ख़ुद को पूरी तरह अपने स्कूल को समर्पित कर दिया है। उन्होंने निजी प्रयास से अमेठी ज़िले के नरायनपुर गांव में सावित्रीबाई फुले पुस्तकालय खोला। वह गाँव में रहकर ज़मीनी स्तर पर लगातार बदलाव लाने का काम कर रही हैं।
फेमिनिज़म इन इंडिया: ममता जी, सबसे पहले तो अपने बारे में कुछ बताइए। पढ़ाई-लिखाई कैसे हुई?
ममता: प्राथमिक शिक्षा मेरी गाँव में ही हुई है। जिस गाँव में मैं अभी रह रही हूं वहां मैंने पहली और दूसरी क्लास की पढ़ाई की। बगल के गाँव में जहां मेरी माँ की पोस्टिंग थी, वहां मैंने तीसरी से पांचवीं कक्षा तक पढ़ाई की। उसके बाद छठीं कक्षा में मैं फैजाबाद चली गई जहां पिता जी की जॉब थी। वहां जीजीआईसी में बारहवीं तक की पढ़ाई हुई। उसके बाद ग्रेजुएशन मैंने राजामोहन गर्ल्स डिग्री कॉलेज से किया। उसके बाद शादी हो गई।
फेमिनिज़म इन इंडिया: हम जहां से आते हैं वहां लड़कियों को पढ़ाया भी जाता है तो बीएड करवा दिया जाता है। इसके पीछे यह सोच है कि अगर वह शिक्षक भी बन गईं तो कम से कम घर का काम भी कर सकेंगी। शिक्षक बनना आपका इसी ढांचे से प्रभावित था या आप ख़ुद शिक्षक होना चाहती थीं?
ममता: ईमानदारी से कहूं तो न मैंने कभी जॉब करने के बारे में सोचा था और न मेरे घरवालों ने। ऐसे तो मेरी तीसरी पीढ़ी शिक्षक है। मेरे नाना कॉलेज में लेक्चरर थे। मेरी माँ शिक्षक थी। लेकिन अजीब बात है कि किसी को इच्छा ही नहीं थी कि घर की बेटियां (यानी हम चार बहनों में) नौकरी करें। हम दो बहनें जॉब में हैं। यह सब मेरे भाई की बदौलत है। हमें बीए भी इसलिए करवाया गया कि शादी अच्छे से हो जाए। उम्र के लिहाज से मैं तीसरे नंबर पर आती हूं इसलिए मैं शादी से पहले ग्रैजुएशन कर पाई। जबकि मेरी बहनों की शादी ग्रैजुएशन के पहले और दूसरे साल में कर दी गई। मुझे पढ़ने का बहुत शौक था तो भाई की पढ़ी हुई किताबें पढ़ डालती। एक और विरोधाभास ही है कि उस समय मेरे यहां साहित्य पढ़ने का माहौल था। मेरी माँ और चाची गाँव में रहते हुए साहित्य पढ़ती थीं। कादंबिनी, सारिका ये तमाम पत्रिकाएं हमारे यहां आती थीं। धार्मिक किताबें भी पढ़ी जाती थीं। हमें पढ़ने का शौक था लेकिन नौकरी का नहीं सोचा था। हम अच्छी लड़की बनने की कोशिश करती रहीं। मेरे भाई को लगा कि मुझे कुछ और करना चाहिए तो बीटीसी का फॉर्म भरवाया। इसमें न मेरे माँ-बाप का योगदान था और न ससुराल वालों का। मैं आज जॉब में हूं तो न अपनी बदौलत हूं, न घरवालों के, बस अपने भाई की बदौलत हूं।
फेमिनिज़म इन इंडिया: आपने ज़िक्र किया कि ग्रैजुएशन करते ही आपकी शादी हो गई। शादी ने पढ़ने-लिखने की प्रक्रिया को किस तरह प्रभावित किया?
ममता: भाई ने बीटीसी का फॉर्म भरवा दिया था। उसने ख़ूब तैयारी करवाई। शादी के एक हफ्ते बाद ही एंट्रेंस था। मेरे ससुर जी लेक्चरर थे। पति ने एमएससी किया था पर उस समय जॉब नहीं थी। पति ने पूछा आगे क्या करना चाहती हो तो मैंने कहा कि पढ़ना चाहती हूं। उन्होंने बड़े व्यंग्यात्मक लहजे में ससुर जी से कहा कि ये कह रही हैं कि आगे पढ़ना चाहती हैं। ससुर जी हंसकर कह रहे हैं बूढ़ा सुग्गा राम-राम करेगा। मैंने खिड़की से सुना और रोने लगी। उस समय मेरी उम्र 21 साल की थी। मायके वालों ने कहा कि शादी के बाद पढ़ना। ससुराल वालों का ये रवैया था। ख़ैर संयोग था कि मेरा बीटीसी में हो गया। उसके साथ मैंने ओपेन से हिंदी में मास्टर्स किया। फिर जॉब लग गई और बच्चे के चलते कुछ साल तक पढ़ाई बाधित रही। बच्चा थोड़ा बड़ा हुआ तो भैया ने कहा कि तुमको और पढ़ना चाहिए। मैंने फिर बीएड किया और नेट क्वालिफाई किया। कई प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी की, भले ही उसमें अंतिम रूप से चयनित न हो पाई।
फेमिनिज़म इन इंडिया: कोई जब कुछ अच्छा काम करने लगता है तो सहयोग करने की बजाय रुकावट उत्पन्न करनेवाले लोग अधिक खड़े हो जाते हैं। विभाग के स्तर पर, पंचायत के स्तर पर आपको किस तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है?
ममता: सबसे पहली मुश्किल तो जेंडर की ही होती है। ऐसा नहीं है कि पुरुषों को संघर्ष नहीं करना पड़ता है लेकिन उन्हें हर जगह चरित्र प्रमाणपत्र नहीं देना पड़ता है। हर कदम पर आपको कैरेक्टर सर्टिफिकेट दिया जाता है। ये देने वालों में अमीर, गरीब, दलित, सवर्ण कोई भेद नहीं रह जाता है। मैं अपने गाँव की पहली बेटी थी जो जॉब में थी। इससे पहले की पीढ़ी में मेरी माँ जॉब में थीं लेकिन बेटियों में मैं पहली थी। बाजार दूर पड़ता है तो आने-जाने का कोई साधन होता नहीं था। ऐसे में अपनी कमाई की गाड़ी चलाने पर टिप्पणी आती थी कि बहुत तेज बन रही है। तेज इसलिये नहीं अपना काम कर सकने में सक्षम है बल्कि इसलिये कि गृहस्थी के अलावा ये सब करती है।
फेमिनिज़म इन इंडिया: हमारी पीढ़ी महानगरों में रहने का स्वप्न देखती है। किसी न किसी तरह वे पलायन करते भी हैं। आप लगातार गाँव में पढ़ाती रहीं। कभी शहर जाने की इच्छा नहीं हुई?
ममता: मेरा जन्म शहर में ही हुआ। दो साल तक मैं वहां रही। फिर गाँव आ गयी। दस साल की उम्र में फिर से मैं फैजाबाद चली गई। वहीं, पर मेरी नौकरी भी लगी। एक उम्र होती है जब हम बहुत आदर्शवाद में जीते हैं। ईमानदारी से कहूं तो अगर आज मुझे फैसला करना होता तो वह शहर कभी नहीं छोड़ती जहां मेरे नाना, मामा, मेरी माँ का बचपन बीता। मेरे पापा चालीस साल जिस शहर में नौकरी किये। मुझ पर मेरी माँ का बहुत प्रभाव था। यह बात बहुत अपील करती थी कि मेरी माँ जो शहर में पली-बढ़ी, बावज़ूद वह गाँव में आयीं और चटाई पर बैठकर बच्चों को पढ़ातीं। मेरी माँ मेरी नज़र में हीरो थीं। 2004 में उनका निधन हो गया। मुझे लगा कि मेरी माँ शहर से गाँव चली गयीं, मुझे भी गाँव जाना चाहिए। उनका जो काम है वह पूरा करना चाहिए। सबने समझाया कि गाँव में मुश्किल होगी। पर वह 23-24 की उम्र थी मैंने भी ज़िद पकड़ ली। संयोग से मुझे वही स्कूल मिला जहां मेरी माँ आखिरी दिनों में पढ़ाती रहीं। शुरुआत में परेशान हुई पर अब 18 साल हो गए हैं।
फेमिनिज़म इन इंडिया: आप स्कूल में एकल शिक्षक हैं। एक शिक्षक एक साथ तीन कक्षाओं को कैसे पढ़ा सकता है? कैसे मैनेज करती हैं आप? विभाग में इसको लेकर कोई बात नहीं होती है?
ममता: मैंने विभाग में इस बारे में बात की है। विभाग अपने हाथ खड़े कर लेता है। अब चूँकि मैं जिस गाँव की हूं उसी गाँव में मेरा स्कूल भी है तो लोकल होने का फायदा भी मिला। मेरी लाइब्रेरी में दो युवा नियमित रूप से पढ़ने आते थे। मेरे स्कूल की हालत बहुत ख़राब थी। बच्चों की संख्या इकाई में थी। कुल चार बच्चे थे। भवन जर्जर था। स्कूल एक तरह से वेंटिलेटर पर था या तो इसे बंद कर दिया जाता या किसी दूसरे स्कूल के साथ मर्ज कर दिया जाता। अभिभावकों ने अपने बच्चों को स्कूल भेजना यह कहकर बंद कर दिया कि स्कूल में एकल शिक्षक हैं और हम अपने बच्चों का भविष्य नहीं बर्बाद करना चाहते हैं। विभाग से जब कोई सहयोग न मिला तो अपने स्तर पर ही प्रयास किया। लाइब्रेरी में आ रहे दोनों युवाओं से वालंटियर करने का आग्रह किया। उसमें से एक कंप्यूटर सिखाने लगे, दूसरे में बाकी विषयों को पढ़ाना शुरू किया। एक साल में यह संख्या बीस तक पहुँची। दूसरे साल तो जैसे चमत्कार हो गया। हमारे पास अब इतने बच्चे आने लगे हैं कि क्लास भरी रहती है। मैं अकेली नहीं हूं, मेरे पास एक टीम है। भले ही वह गैरसरकारी है।
फेमिनिज़म इन इंडिया: यह जानना कितना सुखद है कि किसी पिछड़े गाँव में किसी ने लाइब्रेरी खोली है। लाइब्रेरी खोलने का ख़्याल कैसे आया? लाइब्रेरी खुलने के बाद क्या बदलाव दिख रहा है?
ममता: ऐसा नहीं है कि मैं भौतिकतावादी नहीं थी। पर मेरी इच्छा रहती थी मेरे पास एक कमरा हो जो किताबों से भरा हो। पर मैंने कभी लाइब्रेरी के बारे में नहीं सोचा था। मेरे एक मित्र हैं दीपेश वह एक बार घर आये तो उन्होंने किताबें देखीं तो इलाहाबाद में अपने प्रोफेसर से ज़िक्र करने लगे। प्रोफ़ेसर ने कहा कि उनसे कहो लाइब्रेरी खोलें। पर मुझे लगता था कि गाँव में कैसे लाइब्रेरी खुलेगी। पर बीज तो पड़ गया था। बाद में संजय जोशी जी ने प्रोत्साहित किया कि लाइब्रेरी खोलो। मैंने घर पर बहुत संकोचवश बताया पर घर वालों ने समर्थन किया। मैंने सोचा कि 3 जनवरी को सावित्रीबाई फुले का जन्मदिन होता है तो उसी दिन और उनके नाम पर लाइब्रेरी खोली जाएगी। शुरू-शुरू में लोग देखने के लिए आते थे कि लाइब्रेरी क्या बला है। मज़ाक भी बनाया गया। बच्चों को रोकते थे कि कहां जा रहे हो। लेकिन धीरे-धीरे बदलाव आया। लोग पढ़ते हैं। हर साल तकरीबन 1400-1500 किताबें इश्यू होती हैं। यहां कोई लाइब्रेरियन नहीं हैं। लोग ख़ुद ही रजिस्टर पर अपना नाम लिखकर ले जाते हैं। आस-पास के गाँव में अगर किसी के रिश्तेदार आते हैं तो वे लाइब्रेरी दिखाने लाते हैं।
फेमिनिज़म इन इंडिया: सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की एक ख़ास तरह की सामाजिक-आर्थिक स्थिति होती है। वे सिर्फ़ पढ़ते नहीं हैं खेत में बराबर काम भी करते हैं। इन सब के बीच स्कूल की तरफ़ ये बच्चे किस भाव से देखते हैं?
ममता: हमारे यहां मान लिया गया है कि नौकरियों पर तो ख़ास तरह के लोगों का अधिकार है जिनके पास पहले से आर्थिक पूँजी है। पढ़ाई को सिर्फ़ रोजगार के लिए ज़रूरी माना जाता है। मैंने इस धारणा को बदलने की कोशिश की। मैंने बच्चों को समझाया कि पढ़ना व्यक्तित्व के विकास के लिए ज़रूरी है। धान लगाने के सीजन में ज्यादातर जगहों पर बच्चे नहीं आते हैं क्योंकि उनको रोजाना 150 रुपये नगद मजदूरी मिलती है। आप यक़ीन नहीं करेंगे उस दौरान भी हमारे यहां नब्बे प्रतिशत से अधिक उपस्थिति रहती है। अब तो आलम यह है कि छुट्टी के दिन भी बच्चे घर पर नहीं रुकना चाहते हैं। वे कहते हैं कि घर पर मन नहीं लगता है।
फेमिनिज़म इन इंडिया: इस देश में पैरेंटिंग ख़राब तरीके से होती है। बचपन से ही हमें जेंडर गैप सिखाया जाने लगता है। हम जहां पढ़े वहां लड़के और लड़कियाँ अलग बैठते थे। एक शिक्षक के तौर पर आप इसे किस तरह देखती हैं?
ममता: सबसे पहले तो शिक्षकों को ही गैप से उबरना होगा। हम मीटिंग में जाते हैं तो स्त्री और पुरुष अलग-अलग बेठे रहते हैं। जब हम 24 घंटे यही सोचते रहेंगे कि मैं स्त्री हूं और वह पुरुष तो समानता कैसे आएगी। मैंने ख़ुद कई वर्षों तक इस भेद का कड़ाई से पालन किया। बाद में उम्र बढ़ी, समझ बढ़ी। आप देखिए मेरे यहां प्रार्थना की अलग लाइन नहीं लगती है। बच्चे क्लासरूम में एकसाथ बैठते हैं। लंच में भी कहीं अलग-अलग बैठकर खाना नहीं खाया जाता। धीरे-धीरे बच्चों ने समझा। अब वे भी बहुत सहज हैं। हम नहीं कहते कि सब भाई-बहन बन जाएँ पर दोस्त तो हो ही सकते हैं। छठवीं में नये बच्चे आये तो इसी कंडीशनिंग के साथ आये थे। लड़के और लड़कियाँ एक-दूसरे के बगल में बैठने को तैयार नहीं थे। मैंने आकाश को बुलाकर गले लगाया और बच्चों से कहा कि इसमें क्या ख़राब लग रहा है। बच्चों ने कहा कुछ नहीं। मैंने कहा कि अगर तुम लोगों को लड़का-लड़की मानना है तो मैं बस लड़कियों को पढ़ाऊँगी और भैया सिर्फ़ लड़कों को। रसोइया सिर्फ़ लड़कियों के लिए खाना बनायेंगी क्योंकि वह लड़की हैं। ख़ैर बच्चे मान गये। अब ये अंतर लगभग न के बराबर है। हम पीरियड्स पर चर्चा करते हैं। हम सेक्सुअल एब्यूज, रेप पर बात करते हैं। जब अख़बार और मोबाइल में यह सब है तो क्लासरूम में बात क्यों न हो।
नोट: सभी तस्वीरें ममता सिंह द्वारा साझा की गई हैं।