समाजकैंपस ग्राउंड रिपोर्ट: सावित्री का विद्याबाग वंचितों तक पहुंचा रहा है शिक्षा का बुनियादी अधिकार

ग्राउंड रिपोर्ट: सावित्री का विद्याबाग वंचितों तक पहुंचा रहा है शिक्षा का बुनियादी अधिकार

बाल मज़दूरी की वजह से यौन हिंसा के सर्वाइवर रहे और शिक्षा से भी दूर हो चुके बच्चों के लिए मथुरा के वृंदावन क्षेत्र के सकराया बांगर में सामुदायिक स्तर पर बच्चों के लिए एक लर्निंग सेंटर चलाया जा रहा है जिसका नाम है- 'सावित्री का विद्याबाग।'

जुलाई 2022 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा ‘गुलामी के समकालीन रूप’ पर तैयार की गई एक रिपोर्ट अगस्त में पब्लिक हुई जिसमें कहा गया कि भारत में, बाल श्रम, जाति-आधारित भेदभाव और गरीबी एक दूसरे से घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं। हमारे समाज में बाल श्रम को सिर्फ़ गरीबी के एक परिणाम के रूप में देखा जाता है जिसमें बच्चे की आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक स्थिति को दरकिनार कर दिया जाता है जबकि भारत में बाल मज़दूरी के पनपने की परिस्थितियों में जाति और उससे उत्पन्न भेदभाव और संसाधन की कमी पहली और मुख्य वजहें हैं।

डीडब्ल्यू द्वारा प्रकाशित एक लेख में सिद्धार्थ कारा (हार्वर्ड यूनिवर्सिटी, केनेडी स्कूल ऑफ़ गवर्मेंट में ह्यूमन ट्रैफिकिंग एंड मॉडर्न स्लेवरी प्रोग्राम के डायरेक्टर) कहते हैं, “हर एक बाल मज़दूर जिसका मैंने दस्तावेजीकरण किया है, एक अत्यधिक गरीब परिवार और एक तथाकथित निम्न जाति या अल्पसंख्यक समुदाय से आता है, जिसे अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और मुसलमानों के रूप में जाना जाता है।” इस अल्पसंख्यक समुदाय की परिभाषा में हमें डिनोटिफाइड ट्राइब्स से से आनेवाले लोगों और बच्चों को भी देखने की ज़रूरत है। जब इन सभी वंचित समुदायों से बच्चे बाल मज़दूरी में जाते हैं तब वे शिक्षा जैसी बुनियादी जरूरत से भी दूर हो जाते हैं और बाल यौन हिंसा का सामना करते हैं।

ऐसे ही बाल मज़दूरी की वजह से यौन हिंसा के सर्वाइवर रहे और शिक्षा से भी दूर हो चुके बच्चों के लिए मथुरा के वृंदावन क्षेत्र के सकराया बांगर में सामुदायिक स्तर पर बच्चों के लिए एक लर्निंग सेंटर चलाया जा रहा है जिसका नाम है- ‘सावित्री का विद्याबाग।’ सकराया बांगर गांव में डेनोटिफाइड कम्युनिटी नट रहते हैं जिनमें कुछ हिंदू, कुछ मुस्लिम हैं और आसपास के गांवों में ठाकुर, निषाद समुदाय रहते हैं। गांव के अधिकतर घर कच्चे हैं, रास्ते संकरे और बिजली की भी बहुत ठीक-ठाक व्यवस्था नहीं है।

विद्याबाग में खुले आसमान में पेड़ के नीचे पढ़ाने की शुरुआत हुई थी। अब सेंटर के बच्चे जिनकी संख्या तीस हो चुकी है उन्हें सेंटर के को-ऑर्डिनेटर रूबिन अपने घर में पढ़ा रहे हैं। ये सभी बच्चे बेहद गरीब, दलित, मुस्लिम, ट्राइबल आदि समुदाय से आते हैं जिनके माता-पिता ज़्यादातर दिहाड़ी मजदूरी का काम करते हैं।

लॉकडाउन के समय में वृंदावन में सामाजिक कार्यकर्ता श्वेता गोस्वामी द्वारा संचालित एनजीओ निर्मल इनिशिएटिव इसी गांव में जब सामग्री वितरण कर रहा था तब उन्होंने देखा कि एक चौदह साल की बच्ची गर्भवती है। इसे देखने के बाद उन्होंने सोचा कि बच्चियों को यौन हिंसा से दूर करने की ज़रूरत है। वे जो खेतों में काम करने जा रही हैं, उनसे उन्हें बचाने की ज़रूरत है। इसकी शुरुआत लॉकडाउन में इस विचार के साथ की गई कि पहले पांच से सात बच्चियों को पढ़ाया जाए और बुनियादी शिक्षा पूरी होने के बाद उनका नज़दीकी प्राइवेट या सरकारी स्कूल में दाखिल करवा दिया जाए।

लर्निंग सेंटर पर रूबिन, तस्वीर साभार: आशिका

इन बच्चियों के साथ प्रयास सफल होने तक बच्चियों की संख्या 15 तक पहुंच गई (जिनका दाखिला वृंदावन के एक प्राइवेट स्कूल में करा दिया गया था)। विद्याबाग में खुले आसमान में पेड़ के नीचे पढ़ाने की शुरुआत हुई थी। अब सेंटर के बच्चे जिनकी संख्या तीस हो चुकी है, उन्हें सेंटर के कोऑर्डिनेटर रूबिन पढ़ा रहे हैं। सेंटर में पांच-छह साल की उम्र से लेकर सत्रह-अठारह वर्ष की उम्र तक की बच्चियां और पांच-छह साल की उम्र से लेकर आठ-दस साल के लड़के पढ़ते हैं। ये सभी बच्चे बेहद गरीब, दलित, मुस्लिम, ट्राइबल आदि समुदाय से आते हैं जिनके माता-पिता ज़्यादातर दिहाड़ी मजदूरी का काम करते हैं।

हाशिये की पहचान से आनेवाले लोग संसाधन की कमी से सबसे अधिक जूझते हैं। किसी भी तरह की पूंजी न होने पर समय-समय पर घर को चलाने में उन्हें बच्चों की मदद लेनी पड़ती है। हम जब विद्याबाग को जानने और देखने पहुंचे थे तब वहां तीस में से केवल ग्यारह बच्चियां मौजूद थीं। कारण था कि वे कपास के खेतों में मज़दूरी करने अपने परिवारों के साथ न सिर्फ आसपास के क्षेत्र में बल्कि दूसरे राज्यों जैसे पंजाब, हरियाणा गई हुई थीं।

समाज बहुत आसानी से यह नैरेटिव गढ़ देता है कि बाल मज़दूरी के दोषी मज़दूरी करनेवाले बच्चों के मां बाप हैं लेकिन यह कभी सामने नहीं लाया जाता है कि ये बच्चे जिन समुदायों से आ रहे हैं उनके पास इस व्यवस्था ने क्या विकल्प छोड़ा है? पूंजी के नाम पर ये समुदाय खाली हाथ हैं, अवसर जैसी कोई भी चीज़ इन तक नहीं पहुंचती। स्कूल में अगर वे दाखिल हो भी जाएं तो ओमप्रकाश वाल्मीकि का जीवन उनके साथ क्रूरतम रूप में घटित होता है।

तस्वीर साभार: आशिका

लर्निंग सेंटर में सबसे मुख्य भूमिका निभा रहे हैं रूबिन। इन्होंने हाल ही में बारहवीं पास की है और आगे बैचलर्स डिग्री लेने पर विचार कर रहे हैं। वह आगे चलकर अध्यापक बनना चाहते हैं। वह एनजीओ निर्मल इनिशिएटिव की महात्मा फुले अर्ली चाइल्डहुड एजुकेशन फेलोशिप के चार फेलो में से एक फेलो हैं। वर्तमान में वह इंदिरा गांधी नेशनल ओपन यूनिवर्सिटी, दिल्ली से अर्ली चाइल्डहुड एजुकेशन में डिप्लोमा कर रहे हैं। रूबिन ने भी छोटी उम्र से काम करना शुरू कर दिया था। वह लॉकडाउन में राजस्थान में पेंट करने के काम को छोड़कर घर आए ही थे कि इस लर्निंग सेंटर से जुड़ गए। अब वह बच्चों को दो शिफ्ट में पढ़ाते हैं जिसमें सुबह बच्चियां और शाम में लड़के पढ़ते हैं। दो अलग शिफ्ट चलाने का कारण यही है कि आसपास के लोग और बच्चियों के माता-पिता उन्हें शाम में घर से बाहर रखने के पक्ष में नहीं हैं। सुबह भी ये बच्चियां घरेलू काम करके ही आती हैं जिसकी वजह से सेंटर में पढ़ाई का समय भी सुबह दस बजे से दोपहर बारह बजे तक का है।

हम जब विद्याबाग को जानने और देखने पहुंचे थे तब वहां तीस में से केवल ग्यारह बच्चियां मौजूद थीं। कारण था कि वे कपास के खेतों में मज़दूरी करने अपने परिवारों के साथ न सिर्फ आसपास के क्षेत्र में बल्कि दूसरे राज्यों जैसे पंजाब, हरियाणा गई हुई थीं।

हम अक्सर सोशल मीडिया पर और अपने आसपास ये देखते हैं कि समाज सेवा के लिए कोई भी व्यक्ति तीन-चार गरीब बच्चों को सीधा पढ़ाने लगते हैं और समाज के प्रति ज़िम्मेदारी पूरी कर देने के भाव से भर जाते हैं। यह ऐसी प्रक्रिया होती है जिसका कोई परिणाम इन बच्चों के जीवन में नहीं निकलता। लेकिन सावित्री का विद्याबाग ऐसी ‘समाज सेवा’ को चुनौती दे रहा है। बच्चों को बकायदा छोटी उम्र से एजुकेशन किट के माध्यम से पढ़ाया जा रहा है जिसमें बच्चों के लिए गाइडेंस की सामग्री होती है। साथ ही हर महीने एक प्लान बनाकर रोज़ पढ़ाई का रूटीन तैयार करते हैं।

यहां पढ़ते हुए बच्चों का एक बेस तैयार किया जाता है और फिर नज़दीकी प्राइवेट स्कूल या प्राथमिक शिक्षा विद्यालय में दाखिला करवा दिया जाता है। जिनका दाखिला हो जाता है उनका भी बकायदा ट्रैक रखा जाता है। इस तरह सावित्री का यह विद्याबाग बाल मज़दूरी से जूझते बच्चों को शिक्षा से जोड़कर मुख्यधारा का हिस्सा बनाने का काम कर रहा है। हमने विद्याबाग की अपनी विजि़ट के दौरान वहां मौजूद बच्चियों से बातचीत की। तो मालूम हुआ कि कुछ बच्चियां जैसे किरण का पहला अनुभव शिक्षा के साथ विद्याबाग में ही हो रहा है यानी वे ज़ीरो लेवल से यहां पढ़ाई कर रही हैं। छबीली, शहनाज़, रवीना, सपना, शिवानी, मधु, नज़मा लॉकडाउन से पहले प्राइवेट स्कूल या किसी प्राथमिक विद्यालय में पढ़ रही थीं लेकिन लॉकडाउन के बाद उनकी पढ़ाई आर्थिक हालातों की वजह से और शादी के दबाव के कारण उनका स्कूल जाना छूट गया है।

सेंटर में मौजूद लड़कियां, तस्वीर साभार: आशिका

समाज बहुत आसानी से यह नैरेटिव गढ़ देता है कि बाल मज़दूरी के दोषी मज़दूरी करनेवाले बच्चों के मां बाप हैं लेकिन यह कभी सामने नहीं लाया जाता है कि ये बच्चे जिन समुदायों से आ रहे हैं उनके पास इस व्यवस्था ने क्या विकल्प छोड़ा है? पूंजी के नाम पर ये समुदाय खाली हाथ हैं, अवसर जैसी कोई भी चीज़ इन तक नहीं पहुंचती।

लेकिन कुछ बच्चियों के माता-पिता उन्हें आगे पढ़ना भी चाहते हैं। जैसे शहनाज़ के माता-पिता उन्हें पढ़ाना चाहते हैं लेकिन “लड़की बड़ी हो गई है, शादी के लायक है, बाहर पढ़ने भेजने पर लड़की के साथ कुछ भी हो सकता है” जैसी बातों से डर के कारण वे उन्हें आगे पढ़ाने में हिचकिचा रहे हैं। छात्राओं को लर्निंग सेंटर में पढ़ाने के लिए माता-पिता को समझाते हुए सहमति लेने में श्वेता गोस्वामी समेत पूरी टीम ने बहुत मेहनत की है। वहां मौजूद छात्राओं से पता चला कि दो लड़कियों की जिनकी उम्र चौदह से सत्रह के बीच में थी, उनकी शादी तक हो चुकी है। छात्राओं से हमने जब पूछा कि उन्हें क्या चीजें पसंद हैं? सबका जवाब था कि उन्हें पढ़ना पसंद है।

इस तरह के हालात में भी वे पढ़ने के लिए हिम्मत दिखा रही हैं, डटी हुई हैं, संघर्ष कर रही हैं। इस संघर्ष में रूबिन इनका बहुत बड़ा सपोर्ट हैं। वह जब बच्चियों को पढ़ा रहे हैं तब खुद भी बहुत कुछ झेल रहे हैं। पढ़ाने को लेकर चुनौतियों पर जब हमने उनसे पूछा तो वह बताते हैं कि गांववाले उन्हें कभी भी घेरकर धमकियां देने लगते हैं, झगड़ने के लिए इस तर्क के साथ आते हैं कि लड़कियों को पढ़ाकर वह दरअसल उन्हें ‘बिगाड़’ रहे हैं। इन सबका जवाब रूबिन चुप होकर देते हैं।

रूबिन किसी से कुछ नहीं कहते हैं, बस अपना काम कर रहे हैं। इसीलिए ही शायद जब हम बच्चियों से बात कर रहे थे तब एक बच्ची रूबिन की ओर इशारा करते हुए कहती है भैया ही हमारे महात्मा फुले हैं। विद्याबाग में पढ़ाई से इतर दूसरी गतिविधियों जैसे खेल आदि को लेकर रूबिन से हमने बात की तो उन्होंने बताया कि कई तरह के कंसंट्रेशन से संबंधित खेल बच्चियों को खिलाए जाते हैं। खिलौने भी हैं और अंतरिक्ष से संबंधित किताबें, चित्र भी हैं। छात्राओं का अंतरिक्ष के बारे में जानना जरूरी है ताकि वे ये जान सके दुनिया सिर्फ़ इतनी नहीं है जितनी उनके आसपास है बल्कि बहुत बड़ी है जिसके रहस्य रोहित वेमुला ढूंढना चाहते थे।

सावित्री का विद्याबाग एक ऐसा मॉडल है जिसे हर वंचित समुदाय के बच्चों के बीच ले जाने की जरूरत है, समुदाय द्वारा समुदाय के ही बच्चों के लिए शिक्षा का यह संघर्ष बहुत जरूरी है जब तक कि मुख्यधारा में इन समुदायों की बात न की जाने लगे।

साथ ही उन्होंने बताया कि बिजली की व्यवस्था गांव में बेहतर नहीं है क्योंकि कम आय वाले ये परिवार बिजली का बिल भरने में असमर्थ हैं इसीलिए बिजली विभाग के लोग कनेक्शन काट गए हैं, ऐसे में सोलर पैनल की मदद से यहां बिजली की व्यवस्था है जिससे टीवी पर सावित्रीबाई फुले संबंधित फिल्म, आदि चीजें दिखाई जाती हैं। लर्निंग सेंटर में जो सामान बच्चों की उपयोगिता के लिए मौजूद हैं वे सब क्राउड फंडिंग की वजह से हैं। इस प्रक्रिया में यहां पढ़ने वाले बच्चों की आइडेंटिटी ‘गरीब बच्चों के लिए सहायता’ तक सीमित नहीं की जाती बल्कि बकायदा बताया जाता है कि किस समुदाय के बच्चों के लिए फंडिंग की जा रही है।

हमने रूबिन की माँ पिंकी से भी पूछा कि उनके घर में विद्याबाग चल रहा है तब आसपास की महिलाओं पर इसका क्या कहना है। पिंकी ने बताया कि आसपास की महिलाएं विद्याबाग के बारे में खुश नज़र आती हैं और इस बात की सराहना करती हैं वे बेशक नहीं पढ़ पाईं लेकिन कम से कम उनकी बेटियां पढ़ रही हैं, जो उन्होंने झेला है, शायद उनकी बेटियां वैसा नहीं झेलेंगी। सावित्री का विद्याबाग एक ऐसा मॉडल है जिसे हर वंचित समुदाय के बच्चों के बीच ले जाने की जरूरत है, समुदाय द्वारा समुदाय के ही बच्चों के लिए शिक्षा का यह संघर्ष बहुत जरूरी है जब तक कि मुख्यधारा में इन समुदायों की बात न की जाने लगे। हम बाल मज़दूरी में संलग्न बच्चों को दया भाव से तो देखते हैं लेकिन उन्हें उससे निकालने के लिए, उनके कारणों पर कभी ठोस विचार नहीं करते, काम नहीं करते। लेकिन सावित्री का विद्याबाग न सिर्फ ऐसे बच्चों को पहचान रहा है बल्कि उनके लिए वैसे अवसर पैदा कर रहा है जिससे वे इस दुष्चक्र से बाहर निकलकर अपना भविष्य सुनिश्चित कर सकते हैं।


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