इन दिनों घरेलू गैस सिलेंडर के मूल्य में दो सौ रुपये की घटत हुई तो मीडिया ने इस घटना की ख़बर को लेकर महिलाओं से बड़ी उत्सुकता से बातचीत की जैसे घरेलू गैस सिलेंडर उत्पाद सिर्फ़ महिलाओं के लिए बना उत्पाद है। इसका कारण यह है कि राज्य, समाज, बाजार में सबकी यही धारणा है कि महिलाएं ही इन मुद्दों का केंद्र हैं। घरेलू गैस सिलेंडरों पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा होता है ‘उज्ज्वला योजना /महिलाओं को मिला सम्मान /स्वच्छ ईधन /बेहतर जीवन के लिए। आखिर रसोई से जुड़े सारे उत्पादों के लिए महिलाओं को ही केंद्र में क्यों रखा जाता है जवाब में जाहिर है कि ये बात कही जायेगी कि महिलाएं रसोई से जुड़े मसलों में प्रमुख भूमिका में रहती हैं इसलिए महिलाओं को ही केंद में रखा जाता है। अब इस जवाब के बाद हम महिलाओं का ये सोचना लाज़िम है कि घर-गृहस्थी रसोई के केन्द्र आखिर हमीं क्यों है। घर नाम की संस्था स्त्रियों के लिए कैसे एक तरह की कैद बन जाती है और उसी घर में रसोई एक ऐसी जगह जहां हमेशा स्त्रियों को ही केंद्रित किया जाता है।
जब देश का बजट आता है तो घरेलू उत्पादों से लेकर रसोई का बजट या घरेलू गैस सिलेंडर के मूल्य वृद्धि की बात हो तो स्त्रियों को ही केंद्र में रखा जाता है। बजट आने के बाद रसोई से जुड़े उत्पादों में बढ़ी-घटी वृद्धि के लिए मीडिया संस्थानों आदि में महिलाओं से बातचीत होती है कि वो बताएं कि रसोई उत्पादों के घटते-बढ़ते मूल्य दरों से उनके जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा है। भारत सरकार की अन्नपूर्णा योजना एक फूड पैकेट योजना है जिसके तहत दस किलो अनाज गरीब परिवारों को दिया जाता है। योजना तो ठीक है लेकिन नाम को देखा जाए तो इसमें भी रसोई से जुड़े उत्पाद में स्त्रियों को जोड़ दिया गया है।
बाज़ार ने जेंडर रोल्स को किया मज़बूत
बाज़ार ने महिलाओं को सबसे ज्यादा घेरा है उन्होंने बाकायदा घर-रसोई से जुड़े उत्पादों के विज्ञापनों में महिलाओं को केंद्र में रखा जैसे घर और रसोई सिर्फ और सिर्फ़ महिलाओं के लिए ही बने हैं। रसोई से जुड़े उत्पादों का कोई भी विज्ञापन आप देख लीजिए बाज़ार ने सबका केन्द्र महिलाओं को बनाया है। चाहे वो आटा हो, दाल हो, चावल हो या चाय की पत्ती या मसाले से लेकर प्रेशर कुकर या कढ़ाही का विज्ञापन आदि। यहां तक कि बर्तन धोने का साबुन भी।
विम बार प्रोडक्ट के विज्ञापन में एक बड़ा सा सामूहिक परिवार का दृश्य है जिसमें महिलाएं खाना बनाकर सबको खिला चुकी हैं और उनके बच्चे मैच खेलने जा रहे हैं घर आयी मेहमान पूछती है आप लोग मैच नहीं देखेगीं तो लाचार सी महिलाएं खूब जले बर्तनों की ओर निहारती हैं तब आयी हुई मेहमान विम बार प्रोडक्ट का प्रयोग करने की सलाह देती है जिससे घर की महिलाएं जल्दी से बर्तन धो लेती हैं और तब जाकर अपने बच्चों का मैच देखती हैं। इसी तरह प्रेशर कुकर के विज्ञापन में हमेशा महिलाओं को ही केंद्र में रखते हैं। हॉकिन्स प्रेशर कुकर के विज्ञापन में स्त्री कहती है कि आज इनके( पति) दोस्त घर आ रहे हैं और उसे चिंता है बेहतर खाना खिलाने की। गाजर का हलवा स्त्री कितनी जल्दी सबके लिए बना सकती है ये बात उस विज्ञापन में बतायी जाती है।
इसी तरह मसालों के विज्ञापन में स्त्री ही है केंद्रीय भूमिका में, चावल का विज्ञापन स्त्री ही कर रही है, खाने वालों में परिवार है, पति, ससुर-सास और बच्चे शामिल हैं। इसी तरह रसोई की साफ-सफाई से बर्तनों की सफाई सारे विज्ञापनों में स्त्री है। अपनी किशोरावस्था में टीवी में बर्तन धोने के एक विज्ञापन में देखा कि स्त्री पति और परिवार को खाना खिलाने के बाद रसोई में बर्तन धोने जाती है उसे बर्तन धोने में काफ़ी समय लग जाता है और पति, पत्नी का इंतजार करके सो जाता है तब बेडरूम में पहुँची पत्नी को अफ़सोस होता है।
हैरानी नहीं होती ऐसे विज्ञापनों को देखकर क्योंकि बाजारवाद की जो प्रकृति है उसका ढांचा पितृसत्तात्मक है वहां किसी नैतिक मूल्य की जिम्मेदारी नहीं है, जो पितृसत्तात्मक समाज देखना चाहता बाजार वही दिखाता है। गैरबराबरी, लोकतंत्र, संविधान, समता जैसे मूल्य वहां महज शब्द हैं। बाज़ार में घरेलू कामकाज से जुड़े सारे विज्ञापनों में महिलाओं को ही रखता है। इस तरह श्रम का यौन-आधारित विभाजन परिवार और समाज से लेकर सरकारी संस्थानों और बाज़ार सब में अपनी ही चाल से चलता है। बाज़ार जब आधुनिकता का दावा करे तो ध्यान से देखना चाहिए कि फाल्ट कहां पर फिट किया गया है।
पितृसत्ता को मजबूत करते विज्ञापन
व्हील वाशिंग पाउडर के विज्ञापन में पुरूष अपने कपड़े धोने का बखान करता है साथ में स्त्री भी पुरुष और प्रोडक्ट दोनों की तारीफ कर रही है, विज्ञापन जब आप थोड़ा सा ध्यान देकर देखते है तो पायेंगे कि पितृसत्ता का बाजार वहाँ अपने मूल्यों पर कार्य कर चुका है। विज्ञापन में स्त्री गर्भवती है। इस तरह इस प्रोडक्ट के विज्ञापन में दिखाया जा रहा है कि पुरुष इसलिए कपड़े धो रहा है क्योंकि स्त्री गर्भावस्था के आखिरी चरण में है। तो पितृसत्ता और बाज़ार का संयुक्त सामाजिक ढाँचा घर के कामों में श्रम की साझेदारी सिर्फ तब दिखा सकता हैं जब स्त्री गर्भावस्था में हो अर्थात यहां कपड़ें धोना प्राथमिक तौर पर महिला का काम है, आपात स्थिति में ही पुरुष उसका इस तरह के घरेलू कामों में साझेदार होगा।
विज्ञापनों में सारे घरेलू कामों में स्त्री की भूमिका को दिखाना पितृसत्तात्मक विज्ञापन जगत का अदृश्य जाल है जिसमें हम ऐसे फंसे हैं कि हमें एहसास भी नहीं होता कि ये एक तरह का भेदभाव, अन्याय और हिंसा है क्योंकि ये विज्ञापन पीढ़ियों के लिए परवरिश बनते जा रहे हैं। हम परिवार में समाज में भेदभाव करेंगे और हमें उसका एहसास नहीं हो पाता है। टीवी के इन विज्ञापनों के जरिए जब यह दिखाया जाता है कि घर की परिधि के सम्पूर्ण घरेलू या रसोई से जुड़े कार्य महिलाओं के लिए है तो उस समय वह पितृसत्ता के स्वर बोल रहा होता है, उसके वाहक के तौर पर वह हमारे मस्तिष्क में प्रवेश करता है। राज्य और बाजार समाज की मर्दवादी मूल्यों,परम्पराओं को हम पर थोपते चल रहे हैं।
भारतीय समाज में रसोई में स्त्री की भूमिका पर सोचते हुए ‘द ग्रेट इंडियन किचेन’ फ़िल्म की याद आती है। फ़िल्म के दृश्य बहुत बारीक तऱीके रसोई में स्त्री की जड़ भूमिका और हमारे परिवारों में लैंगिक भेदभाव की गहरी पड़ताल दिखती है,और वहाँ अंततः स्त्री का विद्रोह ही आधुनिक स्त्री का मूल है। फ़िल्म का एक-एक दृश्य बताता है कि आधुनिक मूल्यबोध का जीवनसाथी भी रसोई से जुड़े कामों में स्त्री की भूमिका को केंद्र में रख देता है और उसे इस बात का एहसास भी नहीं है। फ़िल्म में रसोई के माध्यम से बहुत बारीकी से औरतों की घुटन को चित्रित किया है। दृश्यों को देखकर निश्चित रूप से औरतों को इस बोझल रसोई और उससे जुड़े रोज़-रोज़ के अपमान से मुक्ति की आकांक्षा बलवती होती है।
हमारे पूरे सामाजिक तंत्र और राज्य और बाजार तक के सारे क्रिया व्यवहार में पितृसत्ता का इतना दखल है कि कभी-कभी मुश्किल हो जाता है देखना कि आखिर कहाँ-कहाँ और किन-किन अर्थों में यहां पितृसत्ता पोषित हो रही है। प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना इसकी एक बानगी भर है। बड़े तकलीफ़ की बात है कि गैस चूल्हा सिलेंडर देना हम महिलाओं का सम्मान और अधिकार कहा जा रहा है। जबकि ध्यान से देखा जाये तो रसोईघर स्त्रियों के जीवन को उज्ज्वल नहीं करता बल्कि उन्हें बांध देता है। गांवों में तो आज भी स्त्रियों का जीवन चूल्हे-चौके में सिमटा हुआ है। गाँव में तो कोई पुरुष घर में अपने हाथ से एक गिलास पानी उठकर नहीं पीता। अगर कोई पी रहा है तो इसे गाँव में उसकी शान के ख़िलाफ़ समझा जाता है। ऐसे परिवेश में स्त्री के घरेलू काम में सहयोग या रसोई से जुड़े काम को करना बहुत दूर की बात है क्योंकि गाँव में तो रसोई में स्त्रियों की मदद करने वाले पुरुषों के लिए बहुत तरह के व्यंग्यात्मक उपनाम और कहावतें आदि हैं।
कुल मिलाकर हमारा पारम्परिक समाज स्त्रियों के लिए बहुत भेदभाव और अमानवीय व्यवहार का समाज रहा है लेकिन आज जब संविधान बराबरी और लोकतांत्रिक मूल्यों की बात कर रहा है तो सरकार और बाज़ार मिलकर महिलाओं को उनके समानता के अधिकार से किसी न किसी रूप में वंचित रखने का उपक्रम करते ही रहते हैं। कोई भी काम करना खराब नहीं है, रसोई में काम करना भी कोई खराब काम नहीं है लेकिन किसी कार्य विशेष से किसी मनुष्य को जेंडर और जाति या रंग रूप के आधार पर जोड़ना खराब बात है। और ये बात तब और खराब हो जाती है जब राज्य और बाज़ारवाद इसे बढ़ावा देने पर उतारू हो तो उस जमीन पर स्त्री मुक्ति का प्रश्न ही बेमानी होता है।