इंटरसेक्शनलजेंडर भारतीय औरतें हर दिन 7.2 घंटे अवैतनिक घरेलू काम में बिताती हैंः रिसर्च

भारतीय औरतें हर दिन 7.2 घंटे अवैतनिक घरेलू काम में बिताती हैंः रिसर्च

टाइम यूज सर्वे (टीयूएस) पर आधारित शोध में कहा गया है कि पैसा कमाने वाली महिलाएं घर की सफाई, भोजन तैयार करने, देखभाल करने जैसी बुनियादी ज़रूरतों कामों को करने में पुरुषों की तुलना में घरेलू काम पर ज्यादा समय खर्च करती हैं।

दिल्ली की रहने वाली विशाखा जैन की दिनचर्या रोज सुबह जल्दी शुरू हो जाती है। वह घर और बाहर के काम देर रात तक करती हैं। विशाखा एक कामकाजी महिला हैं। सुबह घर के काम, खाना उसके बाद दफ्तर ये उनकी दिनचर्या का हिस्सा है। इतना ही नहीं नौकरी से लौटने के बाद वह दोबारा घर से जुड़े कामों पर लग जाती हैं। इन सबके बीच बाकी और जिम्मेदारियां भी वह निभाती हैं। दरअसल यह अकेली विशाखा की कहानी नहीं है, नौकरी करने वाली अधिकांश महिलाएं घर और दफ्तर के काम के साथ इसी तरह तालमेल बैठाकर आगे बढ़ती हैं। महिलाओं के ऊपर इस वजह से काम का दोहरा बोझ बन जाता है।

पूरी दुनिया में बात जब महिलाओं और उनके काम की आती है तो कहा जाता है कि औरतें करती ही क्या हैं! घर पर ही तो रहती हैं। ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक सोच महिलाओं की मेहनत को मेहनत तक मानने से मना कर देती है। भले ही महिलाएं घर-गृहस्थी के कामों में घंटों लगाती हैं लेकिन इसके लिए पैसा मिलना तो दूर बल्कि उसे काम के रूप में दर्ज भी नहीं किया जाता है। यही वजह है जब महिलाएं घर से बाहर जाकर नौकरी करना चुनती हैं तो उन्हें नौकरी और घर दोनों संभालना होता है। दोहरे काम जिसे हम ‘डबल शिफ्ट’ भी कहते हैं, के कारण महिलाओं के लिए जीवन ज्यादा चुनौतीपूर्ण हो जाता है।

घरेलू काम में महिलाएं हर दिन बिताती हैं 7.2 घंटे

हाल ही में भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) अहमदाबाद के द्वारा किए गए शोध के अनुसार 15 से 60 साल की कामकाजी महिलाएं घरेलू काम पर 7.2 घंटे बिताती हैं, जबकि पुरुषों द्वारा 2.8 घंटे बिताए जाते हैं। द प्रिंट में प्रकाशित ख़बर के मुताबिक़ यह आंकड़ा महिलाओं के पास समय की भारी कमी दर्शाता है। टाइम यूज सर्वे (टीयूएस) पर आधारित शोध में कहा गया है कि पैसा कमानेवाली महिलाएं घर की सफाई, भोजन तैयार करने, देखभाल करने जैसे कामों में पुरुषों की तुलना में ज्यादा समय खर्च करती हैं। रिसर्च का दावा है कि टाइम यूज डेटाः ए टूल फॉर जेंडर पॉलिसी एनालिसिस के जरिये पहली बार यह पता लग सका है कि भारत में महिलाएं घरेलू काम पर कितना समय खर्च करती हैं।

आईआईएमए प्रोफेसर नम्रता चिंदाकर का कहना है कि साल 2019 में एनएसएसओ द्वारा टीयूएस भारत के लिए पहला राष्ट्रीय समय उपयोग सर्वे है। इसमें केवल अंडमार और निकोबार द्वीप समूह शामिल नहीं है। इस रिसर्च में 24 घंटे का डेटा इकट्ठा किया गया है। सुबह चार बजे से लेकर अलगे दिन सुबह 4 बजे तक के दौरान काम का डेटा शामिल है। डेटा के आंकलन से पता लगाया गया है कि क्या भारत में महिला और पुरुष के बीच समय का आवंटन जेंडर तय करता है। जेंडर के आधार पर बनी भूमिकाएं समय और काम के बंटवारे में क्या भूमिका निभाती है।

रिसर्च पेपर के अनुसार पुरुषों के मुकाबले महिलाओं के पास फुर्सत का समय 24 प्रतिशत कम होता है। इस अध्ययन में यह भी पता चलता है कि पुरुष प्रतिदिन लगभग 150 मिनट अधिक अपने रोज़गार के लिए खर्च करते हैं। रिसर्चर के द्वारा कहा गया है कि इस विश्लेषण में कुछ निश्चित जेंडर पैटर्न को उजागर किया गया है। महिलाओं के समय का एक बड़ा हिस्सा उनके रोज़गार की स्थिति के बावजूद घरेलू जिम्मेदारियों को पूरा करने में खर्च हो जाता है। नौकरीपेशा महिलाओं के लिए इसका परिणाम ‘सेकेंड शिफ्ट’ के तौर पर निकलता है। 

कामकाजी महिलाओं का क्या है कहना

उत्तर प्रदेश पुलिस में कार्यरत हेड कांस्टेबल विनीता पंवार एक सिंगल मदर हैं। साल 2005 में पति की मौत के बाद से वह घर, बच्चे और नौकरी सभी को साथ लेकर मैनेज कर रही हैं। घर और नौकरी के बीच तालमेल को लेकर बात करते हुए विनीता का कहना है, “अगर शुरुआत की बात करूं तो कुछ समझ नहीं आता था। बच्चे छोटे थे उनको भी संभालना था और काम भी करना था। दूसरा पुलिस की नौकरी में आपके ऑफिस जाने का समय तय है लेकिन वापस आने के बारे में कुछ निश्चित नहीं कहा जा सकता है। जब बच्चे स्कूल जाते थे तो मैं सुबह बहुत जल्दी उठ जाती थी। पहले सभी का स्कूल का टिफिन बनाना, सबके लिए नाश्ता तैयार करके दोपहर तक का खाना बनाकर ही मैं ड्यूटी पर जाया करती थी।”

आगे वह कहती हैं, “उसके बाद वापिस आकर बच्चों की पढ़ाई को भी देखना कि उसमें क्या चल रहा है। ये मेरा हमेशा से रहा है कि मैंने बच्चों की स्टडी को कभी भी काम के बीच में नहीं आने दिया है। बस हिम्मत कह सकते है या ये कि सब औरतें यही तो करती हैं। हमने अपनी मां को सारा दिन काम करते देखा है। मैं नौकरी के साथ ये कर रही हूं। ये काम का दोहरा बोझ है कायदे में ये भी नहीं कह सकते क्योंकि घर संभालने को तो काम ही नहीं माना जाता है। औरतों के ऊपर तो घर की जिम्मेदारी होती है। पूरा समय काम के बीच निकलता है। छुट्टी का मतलब भी काम ही होता है।”

मुजफ़्फ़रनगर की रहने वाली 52 वर्षीय सरोज एक निजी स्कूल में पढ़ाती हैं। नौकरी और घर के काम के बारे में सवाल पर उनका कहना है, “ठहरकर सोचूं तो शायद ही इस सवाल का जबाव दे सकती हूं। दरअसल नौकरी करते हुए पूरा जीवन बीत गया है और साथ में घर का काम भी। मुझे याद है जब मैंने घर से बाहर जाकर पढ़ाने का फैसला लिया था तो मुझे कहा गया था कि नौकरी करना तुम्हारी पसंद है लेकिन इस वजह से यह घर बिखरना नहीं चाहिए। ये बात उस वक्त मेरे लिए बहुत तनावपूर्ण बन गई थी। मुझे घर और बाहर दोनों में तालमेल बैठानी थी।”

उनका आगे कहना है,“गर्मियों में स्कूल जाने के लिए सात बजे निकलना पड़ता है और घर के बाकी लोगों के लिए नाश्ता, टिफिन बनाने के लिए मैं शुरू में अक्सर साढ़े चार बजे जग जाती थी। पूरे घर की सफाई, रसोई का काम करके स्कूल जाना और वापस आकर फिर यही रूटीन फॉलो करना होता है। इन सब जिम्मेदारियों के बीच दिन से रात और रात से दिन सब ऐसे ही बीतता रहता है। खुद को भी कई बार लगता है मशीन बन गए है बस चले जा रहे है। जब ज्यादा तनाव महसूस होता है जब इस रूटीन से एक्सट्रा कुछ भी होता है तो मैनेज करना मुश्किल होता है। मैं हिंदी की टीचर हूं और मुझे पढ़ना-पढ़ाना बहुत पसंद है। मुझे अपनी ये चाहत पूरी करने के लिए जो भी करना था मैंने किया। अब रिटायरमेंट की उम्र में जा रहे हैं बच्चे बड़े हो गए हैं लेकिन घर का काम कह लो या जिम्मेदारियां उनसे रिटायरमेंट नहीं मिलने वाला है।”     

वहीं, विशाखा का कहना है, ”घर और नौकरी में मैनेज करना बहुत आसान है ये तो नहीं कह सकती। लेकिन हम औरतों को ही घर देखना होता है। बाकी फैमिली मेंबर मदद के नाम पर एक-दो काम कर देते हैं लेकिन सबकुछ लेकर हमें ही चलना हैं। बड़े शहर में भागदौड़ वाली जिंदगी में घर और नौकरी करने के लिए सबकुछ बहुत रफ्तार से करना पड़ता है। मैं एक सिंगल पेरेंट हूं और मुझे काम के साथ बच्ची को भी संभालना है। हम औरतों को अक्सर मल्टी टास्कर कहा जाता है लेकिन सच बोलू तो दिमाग में हमेशा काम चलता रहता है। सुबह ऑफिस जाने के लिए रात को तैयारी करके सोना वापस आकर इसी पर लग जाना। छुट्टी वाला दिन भले ही ऑफिस न जाना हो लेकिन घर के एक्सट्रा काम खत्म करने का दबाव रहता है। कभी-कभी लगता है कि एक दिन ऐसा आएगा कि कुछ नहीं करूंगी। फिर बाकी चीजों को देखती हूं तो लगता है कि हम क्या कुछ अलग कर रहे हैं सब ऐसे ही तो जीते हैं।”

काम के दोहरे बोझ का महिलाओं पर असर

समाज में काम के तौर पर हमेशा पहचान नौकरी को दी जाती है। यानी जो घर से बाहर जाकर काम करेंगा वही काम है इसी वजह से पुरुषों के काम को हमेशा महत्व दिया जाता है। इस क्रम में जब महिलाएं घर से बाहर जाकर काम करती है तो उन्हें तभी कामकाजी समझा जाता है। लेकिन एक कामकाजी महिला बनने के लिए आम भारतीय महिलाओं को नौकरी और घर दोनों जगह के काम को करना पड़ता है। इस दिशा में कई शोध से यह बात भी सामने निकलकर आई है कि काम के दोहरे बोझ की वजह से महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर भी असर पड़ता है। इस लेख में शामिल महिलाओं ने भी यह बात कबूली है कि घर और नौकरी दोनों को साथ-साथ संभालते हुए स्तिथि बहुत तनावपूर्ण भी बन जाती है।

मुजफ़्फ़रनगर की रहने वाली 52 वर्षीय सरोज एक निजी स्कूल में पढ़ाती है। नौकरी और घर के काम के बारे में सवाल पर उनका कहना है, “ठहर कर सोचूं तो शायद ही इस सवाल का जबाव दे सकती हूं। दरअसल नौकरी करते हुए पूरा जीवन बीत गया है और साथ में घर का काम भी। मुझे याद है जब मैंने घर से बाहर जाकर पढ़ाने का फैसला लिया था तो मुझे कहा गया था नौकरी करना तुम्हारी पसंद है लेकिन इस वजह से ये घर बिखरना नहीं चाहिए।”

यूनिवर्सिटी ऑफ मेलबर्न  की द लैंसेंट में प्रकाशित रिसर्च के अनुसार अनपेड काम करने की वजह से महिलाओं को खराब मानसिक स्वास्थ्य का सामना करना पड़ता है। काम, घर और मानसिक स्वास्थ्य के जेंडर इंटरसेक्शन की जांच के करने के लिए 19 अध्ययनों की समीक्षा की गई। जिसमें 14 अध्ययनों में से 11 में महिलाओं पर अनपेड लेबर की डिमांड बढ़ने की वजह से डिप्रेशन और तनाव के लक्षणों को बढ़ता देखा गया। अवैतनिक श्रम के 10 घंटा अधिक हो जाने की वजह से डिप्रेशन बढ़ जाता है। इतना ही नहीं महिलाओं में इस वजह से गुस्सा, चिड़चिड़ापन भी बढ़ जाता है।  शोध में कहा गया है कि अवैतनिक काम मुख्य रूप से जेंडर के आधार पर बांटा गया है। मैक्रिन्से की 2020 की वीमन इन द वर्कप्लेस रिपोर्ट के अनुसार तीन में से एक उत्तरी अमेरिकन कामकाजी माँ का कहना है कि वे अपना करियर को कम करने या काम छोड़ना चाहती हैं। 

साल 2021 के आंकड़ों के अनुसार भारत के कुल लेबर फोर्स में 19.23 प्रतिशत महिलाएं शामिल हैं। नव उदारवादी दौर में महिलाओं के काम करने का चलन बढ़ गया है। लेकिन महिलाओं के ऊपर घर की जिम्मेदारियां उनके लिए बोझ बन रही हैं। जेंडर के आधार पर किसी भी काम को बांटा नहीं जा सकता है लेकिन रूढ़िवादी नियमों में घर के काम और जिम्मेदारियों को महिलाओं के लिए ही तय कर दिया गया है भले ही इस वजह से वे कितनी ही परेशानियां क्यों न सहन कर रही हो। 


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