हमारे शहरों के कई चेहरे हैं। तमाम तरह की असमानताओं की नींव पर बसे इन शहरों को हम ऊपरी तौर पर सपाट सड़कों पर तेजी से गुज़रती गाड़ियां, दफ्तरों में जाते लोग, बड़ी कंपनियां, सजी-धजी दुकाने और काम के बहुत से अवसर की नज़र से देखते हैं। इन्हीं अवसरों की तलाश में अक्सर हर वर्ग के लोग गाँव, कस्बो से निकलकर शहर की ओर काम की तलाश में आते हैं। हाशिये के समुदाय की महिलाएं बड़ी संख्या में शहर अपनी शादी के बाद पति के साथ आती हैं और उसके बाद शहर और उनका एक सफ़र शुरू होता है। जहां वह अपने कौशल के हिसाब से काम की तलाश मे निकलती हैं। इन्हीं में से कुछ आंटी, दीदी, बाई, हाउस हेल्प और काम वाली के तौर पर अपनी पहचान बना लेती हैं। हम बात कर रहे हैं घरेलू कामगार महिलाओं की।
अक्सर सुबह सवेरे तेजी से चलती हुई ये महिलाएं एक घर से दूसरे घर काम करने के लिए पहुंचती हैं और जाते ही सबसे पहले हाथ में झाडू थाम लेती है। दरअसल शहरों की रफ़्तार और अर्थव्यवस्था को कायम रखने में इनकी बड़ी भूमिका है। लेकिन साथ ही एक सच यह भी है कि ये शहर इन्हें और इनके काम को उस तरह से अपना नहीं पाता है जिसकी आवश्यकता है। इस बात को कहने का यह तर्क है घरेलू कामगारों के साथ होने वाला दुर्रव्यहार, उत्पीड़न, मजाक, अभद्र भाषा और अन्य भेदभाव की घटनाएं। घरेलू कामगारों के लिए सार्वजनिक रास्तों के अलावा उनका कार्यस्थल भी बहुत सुरक्षित नहीं है। शहरों में अपनी स्थिति और संघर्षों के साथ आगे बढ़ती इन महिलाओं के पास दरअसल घरों में काम के अलावा कोई विकल्प भी नहीं होता है।
“गाँव में अपना घर होने के बावजूद यहां किराये पर एक छोटी सी जगह पर रहना ही बहुत मुश्किल भरा था। बाद में मैंने काम करना शुरू किया था। फिर कई घरों का काम लिया। पैदल जाने में समय लगता था तो फिर मैंने बाद में एक पुरानी साइकिल खरीदी। इससे समय बचता है और साइकिल पर जाने के फायदे है। सड़क से आप तेजी से गुजर जाते है ज्यादा लोग नोट नहीं कर पाते हैं।”
शहर की अपनी अलग दुनिया है
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर में रहने वाली बबीता एक घरेलू कामगार हैं। वह रोज अपने घर से 9-10 किलोमीटर की दूरी तय करते हुए पांच घरों में काम करती है। गाँव में पति का रोजगार बंद हो गया था, बच्चों के पालन-पोषण के लिए मुश्किलों का सामना कर रहे थे। लगभग 10-11 साल पहले वह बच्चों के साथ मुज़फ़्फ़रनगर रहने आ गई। बबीता बहुत पढ़ी-लिखी नहीं है तो शहर में आकर उन्हें घरों में काम करना ही एकमात्र मेहनत करके के पैसा कमाने का विकल्प लगा। उसके बाद उन्होंने धीरे-धीरे काम करना शुरू कर दिया था। एक से दो घर और यह सिससिला बढ़ गया। बबीता साइकिल चला कर अपने कार्यस्थल पर जाती हैं। अपने काम और चुनौतियों की बारे में बात करते हुए उनका कहना है, “जब गाँव से शहर में आए थे तो एक उम्मीद के साथ ही आए थे कि कुछ बेहतर होगा। गाँव में अपना घर होने के बावजूद यहां किराये पर एक छोटी सी जगह पर रहना ही बहुत मुश्किल भरा था। बाद में मैंने काम करना शुरू किया था। फिर कई घरों का काम लिया। पैदल जाने में समय लगता था तो फिर मैंने बाद में एक पुरानी साइकिल खरीदी। इससे समय बचता है और साइकिल पर जाने के फायदे हैं। सड़क से आप तेजी से गुजर जाते है ज्यादा लोग नोट नहीं कर पाते हैं।”
काम के दौरान अनुभवों पर उनका आगे कहना है, “सबकुछ बहुत अच्छा हो ऐसा तो कहा नहीं जा सकता है। हाँ बीच में एक ऐसी लाइन है कि जो कडवाहट जैसी मौजूद रहती है। बाकी मैं तो हमेशा कोशिश करती हूं कि मेरी तरफ़ से एक भी गलती न हो। क्योंकि कई बार ऐसा भी होता है कि मालिक अपने घर का गुस्सा हम पर उतार देते है भले ही हमारी कोई गलती हो न हो। एक छोटी सी बात को बहुत तूल दे दी जाती है इसलिए मेरी कोशिश यही रही है हमेशा कि अपनी तरफ़ से कोई गलती न हो।”
कौन हैं घरेलू कामगार
इंटरनैशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन के अनुसार घरेलू कामगार से तात्पर्य साफ-सफाई, कपड़े धोने, खाना पकाना, बच्चों की देखभाल करने जैसे अन्य घरेलू काम से है जिसके लिए उन्हें वेतन मिलता है। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार भारत में 4.75 मिलियन घरेूल कामगार हैं जिनमें से 3 मिलियन महिलाएं हैं। लेकिन इस आकंलन को कम माना जाता है और वास्तविक संख्या 20 से 80 मिलियन श्रमिकों के बीच है। घरेलू कामगार महिलाओं के काम करने की स्थिति को शहरीकरण, पलायन के संदर्भ में जोड़कर देखने की बहुत ज़रूरत है। महिला श्रम प्रवास तेजी से बढ़ता जा रहा है जिसमें जेंडर, जाति और वर्ग से संबंधित विभाजित और बातचीत होनी बहुत आवश्यक है।
डॉ. आंबेडकर ने दलित समुदाय को दमनकारी गाँवों को छोड़ते हुए शहरों की ओर प्रवास करने के लिए कहा था। भूमिहीन दलितों ने शहरों की ओर पलायन किया लेकिन तब भी दमन ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। शहरों में भी उन्हें उसी तरह के काम करने पड़े जैसे सफाई करना। सफाई करने को गंदा और बेकारा काम माना जाता है। अधिकत्तर घरेलू कामगार के तौर पर दलित महिलाओं ने शहरों में यह काम किया। जबकि तथाकथित उच्च जाति के श्रमिकों को खाना पकाने और घर की देखभाल करने के लिए रखा जाता था। इतना ही नहीं सम्मान, सामाजिक सुरक्षा और नियमों के अभाव में घरेलू कामगार पेड लीव, सिकलीव और न्यूनतम वेतन और बोनस तक नहीं कर पाती है।
पांच मिनट जल्दी चले जाओ तो भी परेशानी
सुमन बीते 25 सालों से अधिक समय से घरेलू कामगार के तौर पर काम करती आ रही हैं। अब अधिकतर वह शादियों में खाना बनाने और बर्तन साफ करने का काम अधिक करती है। काम करने के दौरान उनके अनुभवों पर वह कहती है, पूरी उम्र इसी काम में बीत गई। जब बच्चे छोटे-छोटे थे तब काम करना शुरू कर दिया था। जब बच्चों की छुट्टी होती थी तो उन्हें भी साथ लेकर जाती थी। एक मालकिन ऐसी थी कि वह मेरे बच्चों को अंदर नहीं आने देती थी कहती थी कि जितना साफ करेगी उतना तेरे बच्चे गंदा कर देंगे। ऐसे मैं अपने बच्चों को सामने वाले घर के दरवाजे के सामने बैठा देती थी। मेरी बेटी, अपने छोटे भाई को गोद में लिए बैठी रहती थी जब मैं पोछे का पानी बाहर डालने जाती थी तो वह बेटे की आंखे ढ़क देती थी ताकि वो मुझे देखकर मेरे पास आने की जिद न करने लगे। ये देखकर मन बहुत दुखता था लेकिन क्या करे यही मजबूरी थी। अगर काम न करती तो खाना न खिला पाती बच्चों को। कोई एक छोटा सा टुकड़ा भी देता था मैं उसे लेकर अपने पल्लू से बांधकर घर लिया थी।
आगे सुमन कहती है, “बहुत कड़वा अनुभव नहीं रहा है लेकिन हां छोटी-छोटी बातें मन को बहुत दुखाती थी। कभी पांच मिनट जल्दी चले जाओ तो उसको भी तूल बना दिया जाता है कि आज जल्दी क्यों आई और जब कभी देर हो जाती थी तो उस पर तो बहुत कुछ सुनने को मिलता था। बताकर छुट्टी लेना बहुत बड़ी गलती बन जाती थी। अगर मैंने कभी भी बता कर छुट्टी ली है तो एक मालकिन तो कांच की क्रोकरी तक निकाल लेती और सारे बर्तन दो-तीन जोड़ी इकट्ठा कर देती थी इस तरह से मेरा ही काम बढ़ जाता था। बिना बताए या बीमारी पर छुट्टी हो जाने पर बहुत परेशानी होती थी काफी कुछ सुनने को भी मिलता था। एक बार जब मैं बहुत बीमार हो गई थी तो मैंने चार-पांच दिन काम से बिना बताए छुट्टी लेने पर मुझे एक जगह काम से निकाल भी दिया था। इस तरह से लगातर बंधकर काम करना सबको अच्छा लगता है।”
वीमन इन इनफॉर्मल एम्पलॉयमेंटः ग्लोबलाइज़ेशन एंड ऑर्गनाइज़ेशन के एक अध्ययन के अनुसार घरेलू कामगार अनौपचारिक क्षेत्र में घरेलू कामगारों को सबसे कम वेतन मिलता है। घरेलू काम के क्षेत्र में 80 फीसदी महिलाएं और नाबालिग जुड़े हुए हैं। बहुत से श्रमिकों को स्वच्छता की उचित सुविधा की सीमित पहुंच या फिर न होने की वजह से अपमान और तिरस्कार का सामना करना पड़ता है। घरेलू कामगारों और इम्पलॉय के बीच सामाजिक-आर्थिक अंतर एक असंतुलित ताकत की स्थिति बनाता है। राजेश की उम्र ज्यादा नहीं है लेकिन जीवन के संघर्ष ने उन्हें समय से पहले बड़ा बना दिया है। वह अपने काम पर आकर सीधे साफ-सफाई करने लग जाती है। मूल रूप से गांव की रहने वाली राजेश शादी के बाद शहर आकर रहने लगी थी। पति के नशे की आदत और तीन बच्चों के पालन-पोषण के बाद वह पहली बार घर से जब काम करने निकली तो बहुत घबराई हुई थी।
छुट्टी का कोई सवाल नहीं है
अपने काम करने की शुरुआत पर हमसे बात करते हुए राजेश का कहना है, “काम करने के बारे में मैंने कभी सोचा नहीं था लेकिन हालातों ने ऐसी स्थिति ला दी है। पढ़ी-लिखी नहीं होने की वजह से मैंने घर में काम करना चुना। बच्चे स्कूल जाते हैं उसके बाद काम पर आ जाती हूं। फिलहाल वह अकेली अपनी कमाई से घर चलाती हैं। पहले स्कूल में काम करती थी लेकिन वहां दो हजार मिलता था और छुट्टी भी मिलती थी। अभी मैं तीन घरों में काम करती हूं स्कूल से ज्यादा कमा लेती हूं लेकिन छुट्टी का कोई सवाल नहीं है। बहुत मजबूरी में ही छुट्टी लेते है डरते हुए क्योंकि ज्यादा छुट्टी की वजह से काम से सबसे पहले निकाला जाता है। हां बस इससे ये फायदा है मैं बच्चों को स्कूल भेजकर यहां आ जाती हूं और दोपहर तक ही घर वापस चली जाती हूं। काम भी हो जाता है और शाम को अपने घर भी रहती हूं।”
घरेलू कामगारों के ख़िलाफ़ अपराध और कानून
भारत में लगातार देश के बड़े-बड़े शहरों से घरेलू कामगार के तौर पर काम करने वाली महिलाओं के साथ बंधक बनाने, मारपीट और अन्य अपराधों की ख़बरे लगातार सामने आ रही है। गुड़गाँव, बेंगलुरु, दिल्ली हर शहरों से घरेलू कामगारों के ख़िलाफ़ नफरत और हिंसा का माहौल बना हुआ है। महत्वपूर्ण बात यह है कि कोई भी कानून घरेलू कामगारों को कानूनी तौर पर मान्यता नहीं देता है। रोजगार के इस क्षेत्र में कानून और रोकथाम के लिए एक सुरक्षित फ्रेमवर्क की कमी की ही वजह से श्रमिक उत्पीड़न और भेदभाव का सामना करते है। द लीफलेट में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार घरेलू कामगारों के ख़िलाफ़ धमकी, पिटाई और यौन शोषण के मामले हमेशा सुर्खियां बन जाते हैं लेकिन फिर भी उनकी रक्षा करने वाले कानून बहुत कम है।
द नैशनल प्लेटफॉर्म फॉर डोमस्टिक वर्कर्स, सामाजिक कार्यकर्ता अरूणा रॉय और अन्य गैर-सरकारी संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट में घरेलू कामगारों के अधिकारों के संरक्षण से जु़ड़ी एक याचिका दायर की है। याचिका में घरेलू कामगारों की पहचान देने की मांग की गई है। साथ ही यह भी मांग है कि उनके एक दिन में काम करने के आठ घंटे और हफ्ते में एक छुट्टी की मांग की गई है। याचिका 1998 के न्यूनतम वेतन एक्ट के तहत काम की मान्यता दी गई है। राष्ट्रीय महिला आयोग ने डोमस्टिक वर्कर्स वेलफेयर और सोशल सिक्योरिटी बिल 2010 के रूप में देश के भीतर एक कानून बनाने का प्रयास किया था। उस बिल का मकसद घरेलू कामगारों को कार्यबल में मुख्यधारा में लाना और मदद करना था। जिससे वह अवैतनिक वेतन, भुखमरी, बर्बर काम के घंटे और मौखिक और शारीरिक शोषण के बारे में शिकायतों का समाधान करें।
“अभी मैं तीन घरों में काम करती हूं स्कूल से ज्यादा कमा लेती हूं लेकिन छुट्टी का कोई सवाल नहीं है। बहुत मजबूरी में ही छुट्टी लेते है डरते हुए क्योंकि ज्यादा छुट्टी की वजह से काम से सबसे पहले निकाला जाता है।”
भारत में घरेलू कामगारों के रूप में काम करने वाले लोग बिना किसी ढ़ांचे के और कानून के काम में लगे हुए हैं। सबसे पहले तो इनके काम को एक काम, रोजगार के नज़रिये से देखने और उससे आंकड़ों में सुरक्षित करने की आवश्यकता है। महिला कामगारों की सुरक्षा के लिए यौन शोषण से जुड़े कानून को स्थापित करने की मांग है। दरअसल रोजगार की स्तिथि में सुरक्षा के अलग-अलग पहलूओं को सुरक्षित करने की ज़रूरत है।