वे महिलाएं जो मां बनने से पहले किसी पेशे में काम कर रही होती हैं उनके मां बनने के बाद लोग यही बातें करते हैं कि मां बनने के बाद अब उनका सारा ध्यान बच्चे पर होना चाहिए, ये नौकरी वगैरह बच्चे की परवरिश से बढ़कर नहीं है इसीलिए नौकरी छोड़ देना ही बेहतर है। इन सब राय विचारों के बीच ऐसा होना बड़ा मुश्किल है कि उस महिला से भी एक बार पूछ लिया जाए कि वह क्या चाहती है। ये सारे विचार उस पर थोप दिए जाते हैं, जो अंत में फैसले बन जाते हैं। बावजूद इसके जो कामगार महिलाएं मां बनने के बाद भी नौकरी नहीं छोड़तीं उन पर “बुरी मां/बुरी महिला/स्वार्थी महिला” होने का आरोप तो मढ़ा ही जाता है लेकिन उनके काम करने की जगह भी उसके साथ बराबरी से पेश नहीं आती। इस प्रकरण को मातृत्व दंड (मदरहुड पेनल्टी) कहा जाता है।
अधिक गहराई से इस प्रकरण को समझें तो मदरहुड पेनल्टी समाजशास्त्रियों द्वारा गढ़ा गया एक शब्द है, कहता है कि कार्यस्थल पर, कामकाजी माँओं को निसंतान महिलाओं, पैरेंटल पुरुषों की तुलना में वेतन, कथित योग्यता और लाभ में नुकसान का सामना करना पड़ता है। इन्हें कम पैसे दिए जाते हैं, काम पर कम रखा जाता है और प्रमोशन मिलने के मौके भी घटा दिए जाते हैं। महिला जब मां नहीं बनना चाहती या नहीं बन सकती वह तब भी कोसी जाती है और जब वह मां बन जाती है तो उसे कार्यक्षेत्र में कमतर समझा जाता है।
अध्ययनों से पता चलता है कि जिन महिलाओं के बच्चे नहीं होते उनकी तुलना में कामकाजी माँओं के वेतन में प्रति बच्चे 5% तक की गिरावट देखी जा सकती है। हालांकि, हकीकत इससे कई गुना अधिक ही है। इस गिरावट का भुगतान महिलाएं आर्थिक रूप से प्रभावित होकर करती हैं। साल 2019 में, अमेरिका की जनगणना के आंकड़ों पर आधारित एक अध्ययन से पता चला कि पिता द्वारा अर्जित प्रत्येक डॉलर के मुकाबले माताएं केवल 71 सेंट कमाती हैं, इस तरह प्रति वर्ष औसतन $16,000 का नुकसान महिलाओं के हिस्से आता है। मातृत्व दंड को सतही निगाह से देखें तो यह सिर्फ़ व्यक्तिगत नुकसान जैसा महसूस होता है लेकिन नारीवाद की दूसरी लहर में ‘पर्सनल इज़ पॉलिटिकल’ का नारा यूं ही नहीं दिया गया था। मातृत्व दंड समाज को, उसकी राजनीति, अर्थशास्त्र को बड़े स्तर पर प्रभावित करता है।
मातृत्व दंड और गुड मदर की रूढ़िवादी सोच
बुद्रोस्का के अनुसार सभी महिलाएं वास्तविक या संभावित मां के रूप में देखी जाती हैं। गॉरमन और फ्रिटजशे मानते हैं कि महिलाओं से केवल एक ‘भावुक अच्छी मां’ की उम्मीद की जाती है। इससे स्वतः करियर छोड़ देने की उम्मीद मांओं के सिर रख दी जाती है और यह उम्मीद न सिर्फ़ परिवार की ओर से आती है बल्कि जहां वे काम कर रही होती हैं वहां भी यही उम्मीद की जाती है। एक महिला कितनी बेहतर मैकेनिक है, मैनेजर है, यह सब उसे समाज में एक अच्छा स्टेटस देने में सहयोगी तो होते हैं लेकिन काफ़ी नहीं जब तक कि वह घर के परिपेक्ष्य में एक बेहतर पत्नी और मां साबित नहीं होती है। इसी रूढ़िवाद का एक परिणाम मातृत्व दंड है जो महिलाओं को काम में गैर-बराबरी देता है।
लैंगिक वेतन अंतराल (जेंडर पे गैप) का एक अहम कारण है मातृत्व दंड महिला पुरुष के बीच के औसत वेतन या आय अर्जन के अंतर को लैंगिक वेतन अंतराल (जेंडर पे गैप) कहते हैं। यह अंतर रूढ़िवाद, असमान शिक्षा आदि कारणों के साथ मातृत्व दंड से भी बढ़ रहा है। जेंडर एक्शन पोर्टल पर छपे सर्वेक्षण के अनुसार, माताओं को गैर-माताओं की तुलना में 7.9% कम शुरुआती वेतन (क्रमशः $151,000 की तुलना में $139,000) की सिफारिश की गई थी, जो कि पिता के लिए अनुशंसित शुरुआती वेतन से 8.6% कम है। पुरुषों में, प्रवृत्ति उलट गई है, और पिता को निःसंतान पुरुषों की तुलना में काफी अधिक शुरुआती वेतन (क्रमशः $148,000 की तुलना में $152,000) की पेशकश की गई थी।
मदरहुड पेनल्टी में निहित असंवेदनशीलता देखिए कि बच्चे को पालती महिला की मुश्किलों को समझने की बजाय उन्हें कम प्रोडक्टिव, काम को कम वक्त देने वाली, कमिटमेंट्स को ना पूरा कर पाने की श्रेणी में रख दिया जाता है। गर्भावस्था के दौरान और उसके बाद अलग-अलग दौर से महिलाएं गुजरती हैं। उनके शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य में भी कई बदलाव आते हैं मसलन उनमें भावुकता बढ़ जाती है लेकिन इस वजह से महिलाओं से ये मौके ही छीन लेना कि मां बनते ही उनके अंदर का कार्यक्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन करने का हुनर ही चला गया है महिलाओं को कार्यक्षेत्र में भी पुरुषों के अधीनस्थ बनाए रखने का ज़रिया है। ।
मातृत्व दंड से प्रभावित होती श्रम बल भागीदारी में औरतों की भागीदारी
श्रमबल भागीदारी दर जनसंख्या का वह प्रतिशत होता है जो या तो काम कर रहा है या सक्रिय रूप से काम की तलाश में है। महिलाएं जब मां बन जाती हैं तब इस बल भागीदारी में उन्हें लेने का दर बहुत कम हो जाता है, एक तरह से मां बनना उनकी आर्थिक स्वतंत्रता में बाधा बन जाता है। अगर वे इस भागीदारी का हिस्सा बन भी जाती हैं तो उस जगह उन्हें कैसी जगह कैसा काम मिलेगा, उनके अनुरूप मिलेगा या नहीं कहा नहीं जा सकता है।
चीन में हुए शोध को उदाहरण के रूप में देखें तो नवीनतम चीनी परिवार पैनल अध्ययन डेटा के साथ लॉजिस्टिक रिग्रेशन मॉडल का उपयोग करते हुए, परिणाम बताते हैं:
- श्रम बल भागीदारी की संभावना एक बच्चे वाली विवाहित महिलाओं के लिए 20.7 प्रतिशत और दो या दो से अधिक बच्चों वाली महिलाओं के लिए 37.7 प्रतिशत कम हो गई है बिना संतान वाले लोगों की तुलना में।
- श्रम बल भागीदारी पर बच्चे पैदा करने का प्रभाव उन महिलाओं के लिए अधिक मजबूत है जो उच्च शिक्षित हैं या 30-39 वर्ष की आयु की हैं।
- बच्चे (बच्चों) की उम्र माँ की श्रम भागीदारी के साथ सकारात्मक रूप से सहसंबद्ध होती है, जिसका ग्रामीण क्षेत्रों से आने वाली महिलाओं (अर्थात् कृषि हुकूऊ वाली महिलाओं), 30 वर्ष से कम आयु की महिलाओं और उच्च शिक्षित महिलाओं पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। इस अध्ययन को और आसानी से समझें तो बच्चों की संख्या और उनकी उम्र यह तय करती है कि मार्केट में उनकी मां के काम का क्या मूल्य निर्धारित होगा।
क्या यह गैर न्यायिक नहीं है कि अपनी काबिलियत के बूते काम करती महिलाओं का कार्यक्षेत्र में भविष्य इस बात पर तय किया जा रहा है कि उनका निजी परिवार कैसा चल रहा है? मातृत्व दंड को कम करना या ख़त्म करने की पहल आर्थिक क्षेत्र में निसंदेह महिलाओं के लिए और समूचे रूप से एक समाज के लिए प्रगति की राह आसान कर सकती है। यह हकीकत कैसे साबित हो सकता है उसके लिए इसके जड़ कारण पर ज़ोर देना होगा, यह मानसिकता कि मां बनने के बाद एक महिला के कार्यक्षेत्र में काम करने की क्षमता घट जाती है, इसे बदलना पड़ेगा। लैंगिक रूप से समान समाज का सपना सुनहरा है लेकिन उसके रास्ते बहुत कठिन है बावजूद इसके इस राह में मुश्किलों को पहचानते, चिन्हित करते, कदम उठाते रहना ही हमारे वश का काम है।