“ये छोटे कपड़े मत पहना कर”, “लड़की होकर ज़्यादा न बोला कर,” ऐसी अनगिनत बातें लड़कियां अपनी मां, दादी के मुंह से रोज़ सुनती हैं, लेकिन ये बातें उनकी पिता उनके सामने नहीं कहते हैं। आप भी सोचती होंगी कि हमारी माँएं ही ज़्यादा पितृसत्तात्मक है पिताजी पर तो फालतू के ही इल्ज़ाम लगते हैं। अब इसी बात को हम दूसरे उदाहरण समझने की कोशिश करते हैं। एक महिला जिसके हाथ में चूड़ा है, बिंदी है लेकिन ड्रेस वेस्टर्न है और ऑफिस जा रही है, वहीं याद करिए फिल्मों में दिखाए जाने वाला बहुत साधारण सा दिखने वाला सीन जिसमें नायिका किचन में सूट या साड़ी पहने पसीने से लथपथ होकर भी स्वादिष्ट खाना बना रही है ताकि नायक बाहर से आए तो उसे प्रेम करे और कहीं घुमाने ले जाए।
ये सभी उदाहरण आपको सामान्य लग रहे होंगे और आपका ऐसा सोचना लाज़िम भी है लेकिन कब तक? जब तक कि आप इसके पीछे के मनोविज्ञान, सामाजिक विज्ञान को नहीं समझते हैं। जो हमारी माएं, दादियां हमारे साथ करती हैं, बड़ों द्वारा रिवाजों को मानते हुए काम करना, पति के अनुरूप थोड़ी आज़ादी, तारीफ के लिए काम करना आदि आदि जिस पितृसत्तात्मक व्यवहार के अनुरूप किया जाता है उसे समाजशास्त्र की भाषा में पितृसत्तात्मक सौदेबाजी (पैट्रियार्कल बारगेन) कहते हैं।
क्या है पितृसत्तात्मक सौदेबाजी
डेनिज कंदीयोती ने 1988 में अपने लिखे लेख ‘बार्गेनिंग विद पेट्रियार्की’ में पेट्रियार्कल बारगेन शब्द को इस्तेमाल किया था। यह शब्द किसी महिला के कुछ लाभ प्राप्त करने के लिए पितृसत्ता की मांगों के अनुरूप होने के निर्णय को संदर्भित करता है, चाहे वह वित्तीय, मनोवैज्ञानिक/भावनात्मक या सामाजिक हो। आसान शब्दों में समझना चाहें तो इसे ऐसे समझ सकते हैं कि महिलाएं पितृसत्तात्मक तरीके से पेश आती हैं, वह हर काम करती हैं जिससे पितृसत्ता कायम रहे और फैले ताकि पुरुष का संरक्षण उन्हें मिलता रहे। अगर ऐसा नहीं होता है तो वे बहिष्कृत की जा सकती हैं। उदाहरण के रूप में किसी घर में बहू द्वारा बेटा जनने के लिए उनकी सास अधिक ज़ोर लगाती हैं क्योंकि ऐसा वे अगर नहीं करेंगी तो उनके पति उनके साथ कैसा बर्ताव करेंगे ये उन्हें पता है। एक महिला दूसरी महिला का शोषण करती है ताकि उसके अपने सर्वाइवल पर आंच न आए। यही पावर डायनामिक्स है जो समाज की सबसे अहम संस्था, परिवार में काम करती है और वहां से पूरे समाज में देखने मिलती है।
लेकिन क्या ये एक महिला द्वारा दूसरी महिला पर किए जा रहे शोषण को न्यायिक सिद्ध करता है? बिल्कुल भी नहीं, ऐसा किया जाना बिल्कुल न्याय संगत नहीं है बल्कि दरअसल ऐसी परिस्थितियां दोनों पक्ष की महिलाओं के लिए खतरनाक हैं। पितृसत्ता को चुनौती देने के बजाय उसी को जीवन में आत्मसात कर लेना और बढ़ाना विभिन्न तरीके के शोषण और पितृसत्तात्मक सौदेबाजी के कई रूपों में हमारे सामने आता है। पितृसत्तात्मक सौदेबाजी एक तरह से महिलाओं द्वारा शोषण से लड़ने का एक तरीका है जिसमें वे पुरुषों से संवाद में और एक समझौते में है। इसे लेकर कंदीयोती का मानना है कि “पितृसत्तात्मक सौदेबाजी एक कठिन समझौता है, एक तरफ, अनियंत्रित एजेंसी की संभावना है जबकि दूसरी तरफ लिंग संबंध को नियंत्रित करने वाले नियमों और स्क्रिप्ट के कारण एजेंसी बाधित है।” आसान शब्दों में समझें तो महिलाएं एक परिस्थिति में स्वतंत्र एजेंसी लग सकती हैं लेकिन होती नहीं हैं, जेंडर रिलेशन्स, नियमों में उस पर एक पुरुष का दबाव बना ही रहता है। डेनिज कंदीयोती की रिसर्च पितृसत्तात्मक सौदेबाजी कैसे समाज दर समाज बदलती है जिसमें महिलाओं के समझौते के तरीके भी बदलते हैं को समझने के लिए कंदीयोती ने दो केस पर रिसर्च की थी।
उप-सहारा अफ्रीका में पितृसत्तात्मक व्यवस्था और दक्षिण, पूर्व और मध्य पूर्व (विशेष रूप से मुसलमानों) की शास्त्रीय पितृसत्ता या पितृसत्ता के तथाकथित ‘बेल्ट’ पर विचार करते हुए, कांदियोती इस बात की तुलना करती हैं कि महिलाएं कैसे अलग-अलग ‘खेल के नियम’ पेश करती हैं। .उप-सहारा अफ्रीका में, बहुपत्नी असुरक्षा से संबंधित, महिलाएं अपनी स्वायत्तता की रक्षा और अधिकतम करके विरोध करती हैं, शास्त्रीय पितृसत्ता में महिलाओं के विपरीत जो घर और परिवार में दीर्घकालिक सुरक्षा प्राप्त करने के लिए समर्पण और हेरफेर के माध्यम से रणनीति बनाती हैं। इस प्रकार, पितृसत्तात्मक सौदेबाजी के माध्यम से, कांदियोति दिखाती है कि महिलाएं उत्पीड़न से निपटने के लिए अलग-अलग रणनीतियाँ पेश करती हैं, यह वर्ग, जाति और जातीयता के संदर्भ में पितृसत्ता के निम्नलिखित रूपों में से प्रत्येक के तहत उपलब्ध अवसरों द्वारा निर्धारित होता है।
अपने जीवनकाल में महिलाएं इस सौदेबाजी को संस्कृति के नाम पर आत्मसात कर लेती हैं और जब वे बूढ़ी हो जाती हैं और घर के बुजुर्गों, बड़ों में गिनी जाती हैं तब इसी पितृसत्ता का वे पुनुरूत्पादन अपने से छोटों पर, घर की महिलाओं पर करती हैं। पितृसत्तात्मक सौदेबाजी का यह इंटरजेनरेशनल पावर डायनामिक्स का हाल फिलहाल के दौर में टूटना बहुत संभव नहीं लगता है, इसकी वजह से महिलाओं ने एक दूसरे पर हिंसा भी की है, हुक्म भी चलाया है, मानसिक प्रताड़ित भी किया है जैसे दहेज के नाम पर होने वाली लड़कियों पर घरेलू हिंसा।
पितृसत्तात्मक सौदेबाजी में थोड़ा बहुत लचीलापन वैश्वीकरण के दौर में आया है जैसे छोटे मोटे कस्बों, शहरों में पर्दा परंपरा बहुत कम होने लगी है। हालांकि, गांवों में ऐसा नहीं है लेकिन कभी ही नहीं होगा ऐसा नहीं कह सकते हैं। कानून की मदद से और तर्कवाद के असर से बेटियां परिवारों में धीरे-धीरे अपनाई जाने लगी हैं। ऐसा बदलाव जिसका असर लंबा हो उस बदलाव को आने में भी पीढ़ियों का समय में लगता है। पितृसत्तात्मक सौदेबाजी को ना तो एकदम से नकारा जा सकता है और ना ही अपनाते रहने की सलाह दी जा सकती है, दोनों की रूप में इसके फायदे और नुकसान मौजूद हैं, महिलाओं के जीवन की परिस्थितियां तय करती हैं कि वे क्या चुनती हैं।