आखिर क्या हो जाता है कि जहां हम जन्म लेते हैं जहां की जमीन पेड़-पौधे बाग-तालाब सब चिर-परिचित होते हैं जहां हमारा परिवार समाज बचपन के दोस्त रिश्तेदार सब रहते हैं उसी जगह हम एक दिन रहना नहीं चाहते। वहां से चले जाना चाहते हैं। अपने गाँव का संसार जहां हमारा बचपन बीतता है, जहां हम बड़े होते हैं उस जगह का हमारे जीवन में बहुत महत्व होता है। लेकिन गाँव का समाज सबके लिए एक जैसा नहीं होता क्योंकि सामन्ती मूल्यों से बना लोक का समाज जातीय भेदभाव ,लैंगिक भेदभाव और तमाम तरह की रूढ़ियों से बना होता है। गाँव के जीवन में मनुष्य होने का जो गरिमा पूर्ण जीवन सवर्ण पुरुष जीता है वो गरिमापूर्ण जीवन गाँव के जीवन में न स्त्री को मिलता है न अन्य समुदाय के मनुष्यों को। ग्रामीण जीवन में ऐसी कितनी कुरूपताएं हैं जिन्हें ग्रामीण जीवन के रोमांटिसिज़म में अनदेखा किया जाता है।
इस गैरबराबरी और तमाम तरह के भेदभाव पूर्ण जीवन में देखा जाए तो स्त्री का जीवन हाशिये के पुरुषों से भी ज्यादा विडम्बना से भरा होता है। स्त्री की मनुष्य होने की सामान्य इच्छाओं को भी इस समाज में अपराध की तरह देखा जाता है। जैसे कपड़े पहनने की आज़ादी, बाहर जाने की आज़ादी, पढ़ने की आज़ादी , खेलकूद में भाग लेने की आज़ादी। अगर देखें तो सारी चीजें एक सामान्य ज़रूरत है मनुष्य जीवन जीने की लेकिन ग्रामीण परिवेश में स्त्री के लिए ये आज़ादी मिलना भी बहुत कठिन चीज़ है। ये सामाजिक विषमता का जीवन गाँव में रहकर पार करना स्त्री के लिए बेहद कठिन होता है। ग्रामीण जीवन में ये सब सामजिक प्रतिबंधन सिर्फ हाशिये की स्त्री के लिए नहीं है ये प्रतिबंध सवर्ण स्त्रियों के लिए भी मौजूद हैं। व्यर्थ की मर्यादा और कुलीनता ढोने को अभिशप्त सवर्ण घरों की स्त्रियों का जीवन हाशिये की स्त्रियों से भी ज्यादा परतंत्र और जकड़ा हुआ होता है।
मीना कई साल पहले गाँव से बनारस शहर जाकर रहने लगीं। वह कहती हैं, “गाँव में मुझे जो सबसे बड़ी पाबंदी दिखती थी वह थी कपड़े पहनने की मैं हमेशा से घर में सलवार-कमीज़ पहनना चाहती थी और घरवाले मुझे भारी साड़ी में घूंघट में रखना चाहते थे।” आज जहां दुनियाभर में स्त्री अपनी आज़ादी के बड़े अधिकारों के लिए लड़ रही हैं वहीं अवध के गाँवों में स्त्रियाँ इतनी छोटी सी आज़ादी के लिए तरसती हैं और वो आज़ादी उन्हें नहीं मिलती। इसमें से जिन स्त्रियों को जीवन मे अवसान मिला वो गाँव का जीवन छोड़ देती हैं जिन्हें नहीं मिला वह वहीं रहकर घुटती रहती हैं। किसी भी समाज में मनुष्य के अधिकार की लड़ाई में स्त्री अधिकार की बहुत-बहुत छोटी-छोटी लड़ाइयां दबी पड़ी हैं जिन्हें स्त्री को लड़ना था लेकिन वह चेतना और जागरूकता के अभाव में भी यथास्थिति का वही जीवन जीती रहती है।
वहीं, हाशिये के वर्ग की स्त्री और पुरुषों का जीवन जातीय हिंसा और भेदभाव को झेलता हुआ इतना त्रस्त होता है कि गाँव छोड़ने पर मजबूर हो जाता है। पतिहार गाँव के चंदन सूरत में रहकर मज़दूरी करते हैं। चन्दन को अपने गाँव से बहुत प्यार था वहां उनके बचपन के दोस्त रहते थे, उनका घर-परिवार था। खेत और बाग तालाब था चंदन अपने गाँव से पलायन को लेकर याद करते हुए उदास हो जाते हैं। वह पढ़ने में अच्छे थे। उनकी माँ का सपना था कि चंदन टीचर बनें और गाँव में रहकर बच्चों को पढ़ाए। चंदन की भी इच्छा थी कि गाँव में रहकर वह अपनी जो थोड़ी सी खेती-बारी है उसे भी देखेगें। क्लास में कुछ टीचर्स उन्हें हमेशा प्रोत्साहित करते थे। लेकिन स्कूल में सवर्ण जातियों के लड़के उन्हें जातिसूचक गाली देकर बुलाते थे। इसी बात को लेकर एकदिन झगड़ा बहुत बढ़ गया, मारपीट हुई। चंदन के माता- पिता बहुत डर गए और पढ़ाई छुड़वाकर उन्हें शहर भेज दिया। इस तरह चंदन का गाँव, परिवार और पढ़ाई सब कुछ छूट गया। आज वह फैक्ट्री के एक कामगार बनकर रह गए। चंदन कहते हैं कि गाँव जाने का जैसे अब मन ही नहीं करता। इस तरह गाँव की सामन्ती और जातिवादी सोच के कारण चंदन की पढ़ाई और सपना दोनों छूट गया।
इसी तरह इलाहाबाद शहर में मिली थीं सुमन। वह पेशे से एख घरेलू कामगार हैं। सुमन उत्तर प्रदेश के किसी गाँव से इलाहाबाद आई हैं। सुमन बताती हैं कि गाँव मे उनका छोटा सा कच्चा घर और थोड़ी सी ज़मीन भी थी लेकिन गाँव का वातावरण बेहद सामन्ती था। उनके गाँव में ज़्यादातर राजपूत जातियों के लोग थे जो हाशिये की जातियों के लोगों को जातिसूचक संबोधन या गालियां देकर बात करते थे। सुमन बताती हैं कि एकबार उनकी बकरी किसी राजपूत समाज के व्यक्ति के खेत में चली गई। वह बकरी को हांकने गई थीं जिस व्यक्ति का खेत था उसने सुमन को भद्दी गलियां दीं। सुमन के पति को पता चला तो उन्होंने कुछ प्रतिरोध किया तो उन्होंने सुमन के पति की पिटाई की। इस घटना से आहत होकर दोनों पति-पत्नी शहर में आकर मजदूरी करने लगे।
सुमन आगे बताती हैं कि उनके गाँव में सामंती जातियों के लोग तरह-तरह से हाशिये के जनों को अपमानित और प्रताड़ित करते रहते हैं। गाँव में ज्यादातर जमीनें उनकी हैं। बाग और तालाब रास्ते सब उनकी जमीनों में पड़ते हैं जिससे गाँव में हाशिये के जनों का जीवन बहुत कठिन होता है। कोई भी मनुष्य यूं ही अपना गाँव नहीं छोड़ना चाहता लेकिन जब वह देखता है कि शहर का जीवन कठिन होते हुए भी एक हद तक आज़ादी का जीवन देता है जिसमें आप अपनी इच्छा से बाहर घूम सकते हैं। अपनी पसंद के कपड़े पहन सकते हैं। बाकी शहर में रहकर जीवन जीने की अपनी कठिनाइयां हैं। लेकिन शहर के जीवन की तमाम कठिनाइयों को झेलते हुए भी स्त्री और हाशिये के जन गाँव नहीं लौटना चाहते। रोज़गार और जाति की पहचान का दंश उन्हें गाँव नहीं लौटने देता।
गंवईं सामाजिकता में जो रूढ़ियों और मान्यताओं का जीवन है उसमें स्त्री के और भी जटिलताएं हैं। ग्रामीण समाज की निर्मिति का गहरा अध्ययन किया जाए तो जैसे गंवई समाज स्त्रीद्वेष की एक अबूझ धारणाओं से ग्रस्त है। पूरा लोक जिन मूल्यों से बना है वहां स्त्री की जो जगह है बेहद संकुचित है। इन दिनों थोड़ा सा बदलाव बाज़ार की तरफ से हुआ है लेकिन वहां प्रतिगामी मूल्यों का कोई नवजागरण जैसी चेतना नहीं है। बस बाज़ार की चकाचौंध और जीवन के हर क्षेत्र में उसका अपना प्रवेश है।।
जैसे पहले तो हाशिये के मनुष्यों और स्त्रियों के लिए यहां हमारे गांवों में पैर में चप्पल पहनकर चलने या काम करने की आज़ादी नहीं थी। अब लोग पैरों में चप्पल आदि पहन रहे हैं लेकिन स्त्रियों के लिए इसमें भी सामन्ती मूल्यों से मुक्ति नहीं। जैसे बाज़ार उसे चप्पल तो डिजाइनर और ऊंची हील का उपलब्ध करा रहा है लेकिन वे स्त्रियां उन ऊंची हील की सैंडिलों को पहनकर घूंघट निकालकर चल रही हैं। उन्हें घूंघट हटाकर चलने की आज़ादी अब भी नहीं मिली। वे साड़ियां तो बाज़ार से खूब चमकीली लेकर गाँव में पहनकर चल सकती हैं लेकिन वहीं सादगी से सलवार-कमीज़ पहनकर गाँव में नहीं चल सकतीं। गाँव में बाज़ार तो छलांग लगाकर झट से पहुंच जाता है लेकिन आधुनिक वैज्ञानिक विचार जैसे वहां पहुंच ही नहीं सकते। यहां गाँव में अगर कोई स्त्री यहां के विद्यालयों में पढ़ा रही है तो वह घूंघट निकाल कर स्कूल जाती है। इस तरह की मान्यताओं का ये नवस्थापन बताता है कि बाज़ार और विकास किन हाथों में है और वे स्त्री की उपयोगिता को कैसे अपने हक में भुनाते हैं।
जो हाशिये के जन, श्रमशील जातियां, हाशिये की जातियाँ और स्त्री अगर गाँव में नहीं रहना चाहते तो ये पूरी उस व्यवस्था पर प्रश्न है जिसे भारतीय पारंपरिक समाज महिमामण्डित करता है क्योंकि उस व्यवस्था में समाज के उन लोगों का जीवन इतना त्रासद और घुटन भरा है कि वो उसे त्यागकर पलायन का एक उजाड़ जीवन जीने को अभिशप्त हैं। आखिर अपनी छोटी छोटी इच्छाओं के लिए उन्हें शहर में तरसना नहीं पड़ता। अपनी मनपसंद जगहों पर जाना, अपनी पसंद के कपड़े पहनना और जातिसूचक शब्दों से पहचान न मिलना भी उन मनुष्यों के लिए बहुत बड़ी चीज़ है जिनके लिए उन्हें उनके गाँव-जवार में अपनी इच्छाओं आकांक्षाओं को मारकर जीना पड़ता है। भारतीय गाँवों की इन सामाजिक विषमताओं का अध्ययन किया जाए तो पता चलता है कि इसमें समाज के गैरबराबरी से बने आर्थिक ढांचे का सबसे बड़ा प्रभाव है क्यों कि गाँवों के समाज में जो लोग उपेक्षित हैं वे आर्थिक रूप से बहुत कमजोर हैं।
स्त्री और हाशिये के जन की भूमिका समाज में श्रम करने की रही लेकिन उनके श्रम का लाभ हमेशा दूसरों को मिलता रहा। जाति और जेंडर के साथ वर्ग का भी इन सामजिक भेदभाव को बनाए रखने में बड़ी भूमिका होती है। ये देखा जाता रहा है कि गाँव में जो व्यक्ति आर्थिक रूप से सम्पन्न हो जाता है उसके लिए सामाजिक भेदभाव की दृष्टि बदल जाती है। लेकिन ये विडम्बना है कि शिक्षा और भेदभाव के कारण ये दोनों शोषित वर्ग जल्दी आर्थिक रूप से मजबूत नहीं बन पाते और विषमता और अन्याय का यह सिलसिला चलता रहता है।