भारत में महिला अधिकारों की शुरुआत समाज सुधार आंदोलनों से हुई। इन समाज सुधार आंदोलनों के नेतृत्त्व की बागडोर पुरुषों के हाथों में थी। पुरुष प्रधानता का जोर इतना था कि इन आंदोलनों में महिला अधिकारों के प्रतिनिधित्व का जिम्मा पुरुषों ने अपने कंधो पर ही रखा। महिलाएं घरों की चार दीवारों में बंद, अपने ही हकों की लड़ाई में गौण कर दी गईं थीं। ऐसे माहौल में लक्ष्मीबाई अभ्यंकर उन चुनिंदा महिलाओं में से थीं जिन्होंने महिला अधिकारों के लिए संघर्ष किया।
लक्ष्मीबाई अभ्यंकर ने अपनी कहानियों और कविताओं के जरिए मराठी साहित्य में नारीवादी नजरिए की शुरूआत की। वो ऐसी पहली महिला थीं जिनकी लघु कथाएं प्रसिद्ध मराठी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। अपनी लघु कथाओं के जरिए उन्होंने समाज में प्रचलित रूढ़िवादी सोच का खंडन किया और समान अधिकारों की वकालत की। उनके द्वारा लिखी कहानियां उस समय के सामाजिक परिवेश की अभिव्यक्ति थीं।
लक्ष्मीबाई अभ्यंकर का जन्म सांगली, महाराष्ट्र में हुआ। वो अपने पिता राव बहादुर लक्ष्मण की इकलौती संतान थीं। शुरू में उनका नाम कृष्णा था। उनका शुरुआती बचपन हैदराबाद और बॉम्बे प्रेजिडेंसी में बीता, जहां उनके पिता असिस्टेंट क्लेक्टर के तौर पर नौकरी करते थे। उनके परिवार के सदस्य समाज सुधारक आंदोलनों से जुड़े हुए थे। उनके दादा गोपाल हरि देशमुख, नवमतवादी समाज आंदोलन की शुरुआत करने वाले लोगों में अग्रणी थे। नवमतवादी, महिलाओं का दमन करने वाली परम्पराओं और प्रचलित रीति-रिवाजो के विरुद्ध नए विचारों के समर्थक थे।
लक्ष्मीबाई पर अपने घर के माहौल का गहरा असर पड़ा और वो नवमतवादी आंदोलन से जुड़ गईं। उन्होंने महिला अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई। 14 साल की उम्र में उनका विवाह गणेश रघुनाथ से हुआ जोकि पेशे से वकील थे। गणेश रघुनाथ भी संस्थानी प्रजा परिषद आंदोलन के जरिए समाज सुधार कार्यों से जुड़े हुए थे। उन्होंने ही लक्ष्मीबाई को लिखने के लिए प्रोत्साहित किया।
उस समय प्रिंट मीडिया समाज सुधारकों के लिए लोगों को सामाजिक रूढ़ियों के प्रति जागरूक करने का सबसे कारगर माध्यम था। अख़बार, पत्रिकाओं में छपने वाले लेखों, कविताओं और कहानियों के जरिए बाल विवाह, दहेज, महिला अधिकार, विधवा विवाह आदि मुद्दों पर लोगों में प्रगतिशील सोच पैदा की जा रही थी। लेकिन महिला के लेखन के लिए प्रिंट में कोई ख़ास स्थान नहीं था। सामाजिक विरोध के चलते उनके लिखे लेखों, कहानियों को अख़बार, पत्रिकाओं में कोई जगह नहीं मिलती थी। जो महिलाएं अपने हकों की आवाज़ उठा रही थीं वो भी अपनी पहचान को छुपाते हुए बदले हुए नामों के साथ अपनी मांगों को दर्ज कर रही थीं।
इन परिस्थितियों में उनका लेखन क्रांतिकारी रहा। उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से महिला अधिकारों के प्रति जागरूकता फैलाने के प्रयास किए। वो उस समय समाज सुधार के लिए हो रही बहसों में नारीवादी नजरिए को लाने वाली शुरुआती महिलाओं में से थीं। उनके द्वारा लिखी गई लघु कथाओं और कविताओं ने करमानुक, मनोरंजन, विविध्यान्विस्तार जैसी प्रसिद्ध मराठी पत्रिकाओं में अपनी जगह बनाई। 1927 में लक्ष्मीबाई सांगली क्षेत्र से ऑल इंडिया वूमन कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लेने वाली एक मात्र प्रतिनिधि थीं।
उनका लेखन उस समय के हिसाब से काफी प्रगतिशील था। उन्होंने समाज और घरों में शिक्षित महिलाओं के प्रति अपनाए जा रहे रूढ़िवादी नजरिए को समाज के सामने रखा। अपनी कहानियों के चरित्रों के माध्यम से उन्होंने बाल विवाह, दहेज प्रथा, विधवाओं के मुंडन, लड़कियों को शिक्षा से वंचित रखना और शादी के बाद घरों में महिलाओं के साथ किए जाने वाले भेदभाव का खुलकर विरोध किया। अपनी एक लघु कथा में लक्ष्मीबाई लिखती है, “हम अपनी बहू के आचरण को परिभाषित करते समय ‘मर्यादा’ की व्याख्या ‘गुलामी’ के रूप में करते हैं।”
शादी के बाद ससुराल में महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव का जिक्र करते हुए लिखती हैं, “हम उसके हर काम, उसकी हर गलती वास्तविक या काल्पनिक को लगातार उसके साथ दुर्व्यवहार करने के बहाने के रूप में बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हैं।किसी को सास के ऐसे व्यवहार का वर्णन कैसे करना चाहिए।” उन्होंने अपने लेखों और आन्दोलन के जरिए महिलाओं का दमन करने वाले धार्मिक रीति-रिवाजों जैसे विधवाओं के मुंडन, सत्ती प्रथा आदि की आलोचन की। इसके चलते उन्हें समाज का विरोध सहना पड़ा। सामाजिक विरोध और पुरुष प्रधानता की नींव पर महिला अधिकारों के लिए चलाए जा गए आंदोलनों का परिणाम ये हुआ कि लक्ष्मीबाई अभ्यंकर जैसी महिलाएं इतिहास के पन्नों में खो गईं। अपने संघर्षों से समानता और अधिकारों की बात करने वाली अभ्यंकर जैसी महिलाओं के जीवन के बारे में हमारे पास बहुत कम जानकारी उपलब्ध है।
17 साल की उम्र में अभ्यंकर की पोती ने सबसे पहले उनके लेखन कार्यों को खोजा और मराठी साहित्य में उनके नारीवादी योगदान को हमारे सामने रखा। 1967 में रंजना कौल जब अपने पैतृक घर गई तो उन्होंने एक किताब खोजी, जिसमें लक्ष्मीबाई तनया (TANYA) नाम लिखा हुआ था। जब उन्होंने इसके बारे में अपने पिता से पूछा तो उन्होंने उनकी दादी के बारे में बताया जो 1900 के दशक में इस नाम से मराठी में लिखती थीं।
लक्ष्मीबाई अभ्यंकर की मृत्यु 20 सितंबर 1969 में हुई। इतिहास में उनकी विरासत और योगदान को जिंदा रखने के लिए 55 साल बाद रंजना कौल ने उनकी एक मात्र किताब का ‘द स्टेपमदर एंड द अदर्स’ के नाम से अंग्रेजी में अनुवाद किया। यह किताब आठ लघु कथाओं का संग्रह है। लक्ष्मीबाई के द्वारा लिखी गई ये कहानियां रूढ़िवादी मराठी घरों की सबके सामने रखती है।
लक्ष्मीबाई का लिखने का तरीका साधारण, स्पष्ट और यथार्थवादी था। रंजना कौल कहती हैं, “जब पहली बार मैंने उन्हें पढ़ा तो मुझे लगा वो मुझसे बात कर रही हैं। उनकी कहानियां एक ऐसे समाज की तस्वीर हमारे सामने रखती हैं जिसमें महिलाओं के चुनाव के लिए कोई जगह नहीं थी। उनकी शिक्षा को समाज के ख़िलाफ़ एक बुराई समझा जाता था। जब महिलाएं अपने घरों की चार दीवारों तक सीमित कर दी गई थीं, वहां लक्ष्मीबाई अभ्यंकर का होना क्रांतिकारी था।
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