“ये तो परंपरा और धार्मिक विश्वास है जिससे काम चल रहा है लोग अपने त्योहार और परंपरा बनाए हुए तो हमारा काम चल रहा है नहीं तो केवल खानदानी काम के साथ जीवन एक संघर्ष ही बना हुआ है। सालभर की मेहनत इन दिनों आकर खिलती है और हम भी उम्मीद में लगे रहते हैं बाकी अब कुछ ज्यादा बचा नहीं है।” ये शब्द है बाला के जो अपने पारंपरिक काम मिट्टी के सामान बनाने और बेचने का काम करती हैं।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर के रामलीला टिल्ले मोहल्ला में चलह-कदमी बढ़ गई है। त्योहार आने से यहां के रहने वाले लोगों के एक वर्ग के चेहरे पर थकान के साथ उम्मीद भी है। यहां का माहौल व्यस्त है और मोलभाव की आवाज़ सुनाई देती है, हाथों से बने बर्तन, दीये, मूर्तियां और अन्य समानों से घरों में बनी दुकाने हैं। इस मोहल्ले में कुम्हार जाति के लोग मुख्य तौर पर रहते हैं। बड़ी संख्या में कुम्हारों के घरों में मिट्टी के बर्तन, दिये, मूर्ति आदि का काम आज भी होता है। पीढ़ी दर पीढ़ी मिट्टी से बने सामान को बनाने और बेचकर आजीविका कमाने वाले परिवार समय के साथ इस काम में चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। बाजार के बदलते परिवेश में कुम्हारों के द्वारा बने बर्तन और सामान की ज़रूरत कम हो गई है। इस वजह से पारंपरिक तौर पर काम करते आ रहे लोगों की आर्थिक स्थिति बहुत बेहतर नहीं है।
संगीता का कहना है, “यहां सब औरते ही कुम्हारों की परंपरा को बचाने के लिए काम कर रही हैं। आदमियों के खाली इस काम पर निर्भर रहने से घर नहीं चलेगा यह सब जानते हैं तो वे दूसरे कामों में लग गए। उसके बाद उस खाली जगहों को हम औरतों ने यहां ले लिया हैं। घर के काम के बाद मैं, मेरे बेटे की पत्नी यही काम मिलकर करते है।”
मिट्टी के बर्तन बनाना भारत में सबसे पुराना व्यापार माना जाता है। कुम्हारों को ‘कुम्हार’ या ‘कुंभार’ कहा जाता है। एक समूह के रूप में कुम्हार खुद को प्रजापति के रूप में पहचानते है। अतीत में कुम्हार अपना सामान बेचने के लिए एक-जगह से दूसरी जगह तक जाते थे। समय के साथ यह प्रथा खत्म हो गई और मिट्टी के बने बर्तनों की जगह टिकाऊ और प्लास्टिक जैसे चीजों ने ले ली है। पारंपरिक तौर पर काम करता आ रहा कुम्हार समुदाय आज हाशिये के वर्ग की एक ईकाई है। यही वजह है कि आज की पीढ़ी इस काम से अलग रोजगार के विकल्प तलाश रही है।
समय की मांग और मिट्टी के सामनाों की घटती मांग की वजह से नई पीढ़ी के पुरुष ख़ासतौर पर पारंपरिक काम से अलग स्वरोजगार, मजदूरी और नौकरी की तरफ़ बढ़ गए है ताकि बढ़ती महंगाई और सामाजिक बदलाव के साथ कदमताल कर सके। ऐसे में इस मौहल्ले में आज हर घर-घर में पारंपरिक तौर पर होते आ रहे काम को घर की महिलाएं संभाल रही हैं। वे घर के काम के साथ-साथ पूरे साल त्योहारों की मांग के अनुसार गणपति, दुर्गा मूर्ति, दिए और अन्य सामान बनाती है और बेचती है। हर पीढ़ी की महिलाएं अपने पारंपरिक काम को सीखकर उसे आगे बढ़ा रही है।
मेरी सास ने किया अब मैं कर रही हूं
61 वर्षीय बाला अपने घर में ही दुकान पर बैठकर गेरू को घड़े पर ग्राहक की मांग से दोबारा लगा रही है। 120 नहीं 110 के मोल भाव में आखिर में वह 110 रूपये में घड़ा दे देती है। वह मिट्टी से बने बर्तन और अन्य सामान बेचती हैं। उनका कहना है कि त्योहार और शादी-ब्याह के रिवाज़ है जिस वजह से कुम्हारों का काम चल रहा है वरना अब जमाना बदल गया है। पहले आमतौर पर खाना मिट्टी के बर्तनों में बनता था लेकिन अब यह सब पीछे छूट गया है। मैंने ये मिट्टी का काम अपने घर ही सीख लिया था बाद में शादी के बाद यहां ससुराल में आई। यहां मेरी सास भी करती थी। दुकान पहले पुरुष संभालते थे लेकिन जब मर्दों ने बाहर जाकर काम करना शुरू किया तो सास ने दुकान संभाली उसके बाद मैं करने लग गई। बहुत मेहनत है लेकिन कमाई सीमित है। ज्यादा कुछ बचता नहीं है। मिट्टी मिलनी मुश्किल हो गई है और मंहगी हो गई है। शहर में जब रहते है तो कुछ करना चाहिए और कही बाहर तो जाना नहीं है बस घर संभालते हुए काम करने की आदत पड़ गई है। अब तो वैसे भी बूढ़े हो गए है तो बस कुछ कमाई हो जाए तो बैठे रहते है वैसे ज्यादा जोर इन दो-तीन महीने में ही होता है वरना न के बराबर ही कुछ बिक्री होती है।”
खाली इस काम पर निर्भर रहने से घर नहीं चलेगा
42 वर्षीय सुनीता, उनकी बेटी, बहू सब मिलकर अपने घर में बनी दुकान में मिट्टी के बर्तन, मूर्ति और अन्य सामान बेचती है। उनका कहना है, “यहां सब औरते ही कुम्हारों की परंपरा को बचाने के लिए काम कर रही हैं। आदमियों के खाली इस काम पर निर्भर रहने से घर नहीं चलेगा यह सब जानते हैं तो वे दूसरे कामों में लग गए। उसके बाद उस खाली जगहों को हम औरतों ने यहां ले लिया हैं। घर के काम के बाद मैं, मेरे बेटे की पत्नी यही काम मिलकर करते है। स्कूल से आने के बाद मेरी बेटी भी मदद करती है। कभी अपने मायके काम नहीं किया था लेकिन सीख वहीं लिया था। वो कहते है ना कुछ भी सीखा हुआ बेकार नहीं जाता है तो बस ऐसा ही समझ लो तब का सीखा यहां ससुराल में आकर काम आ गया। दो पैसों की मदद हो जाती है और हम भी काम में लगे रहते है। हालांकि थोड़ा अब संदेह बना रहता है कि लोग हाथ से बनी मूर्ति खरीदेंगे भी या नहीं। इसलिए इन चीजों में ज्यादा जोखिम नहीं लेते है और हाथ की मूर्तियां तय ही बनाते है नहीं बिकती है तो निराशा होती है।”
“त्योहार और शादी-ब्याह के रिवाज़ है जिस वजह से कुम्हारों का काम चल रहा है वरना अब जमाना बदल गया है। पहले आमतौर पर खाना मिट्टी के बर्तनों में बनता था लेकिन अब यह सब पीछे छूट गया है।”
लोग पैसे देना पसंद नहीं करते हैं
प्रजापति समुदाय ने अपने पारंपरिक काम मिट्टी से बने सामना बनाने की प्रक्रिया को आम तौर पर तीन हिस्सों में बांटा गया है। पहला मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए कच्चा माल, मिट्टी के सामान बनाने की तकनीक और अंतिम उत्पाद और बाजार। अपने काम और मौजूदा स्थिति के बारे में बात करते हुए 30 वर्षीय आरती बेहद कम रोशनी में दुर्गा की मूर्ति में रंग भरने के साथ-साथ हमारे सवालों के जवाब देती हैं। वह कहती है, “मैंने शादी से पहले ही अपने मायके से ही मिट्टी की मूर्ति बनानी सीख ली थी हालांकि जब मैंने कभी इस तरह से काम करना और पैसे के बारें में नहीं सोचा था। शादी के बाद जब मैं यहां आई तो मेरी सास इस तरह से नवरात्रि के लिए दुर्गा मूर्ति और अन्य सामान अपने हाथों से बनाकर बेचती थी। उसके बाद मैंने भी उनके साथ काम करना शुरू कर दिया है। हमारे घर के आदमी तो दूसरा काम करते है दुकान संभालना हमारी ही जिम्मेदारी है। सच कहूं तो ये मेरे लिए बहुत सुकूनदायक होता है कि मैं भी खुद से कुछ करके कमा रही हूं”
आरती का आगे कहना है, “जितनी मेहनत है उतनी कमाई नहीं है। अक्टूबर में नवरात्रि से ब्रिकी के सामान को हम होली से बनाना शुरू कर देते है। अब घर में मैं अकेली हूं तो टुकड़ों-टुकड़ों में बांटकर काम करती हूं। सबसे पहले मूर्ति में इस्तेमाल अलग-अलग चीजें बनाती हूं उसके बाद बाकी सारी चीजें जोड़ती हूं। घर-परिवार को संभालने के साथ-साथ काम करना बहुत आसान नहीं है। तीन छोटे बच्चे हैं उन्हें भी संभालना है और साथ में घर के सारे काम। अगर एक दुर्गा की मूर्ति की बात करूं तो एक साथ तैयार करने में एक दिन में एक मूर्ति बनती है। बात जब दाम की आती है तो कभी भी बहुत ज्यादा नहीं मिलता है। लोग मेहनत, हाथ की कला को नहीं देखते हैं। एक मूर्ति अधिकतम ढ़ाई सौ रूपये की बिकती है। साथ ही अब बाजार में प्लास्टर और सफेद सीमेंट की मशीन से बनी मूर्ति लोगों को ज्यादा आर्कषक लगती है और सस्ती मिलती है तो अधिकतर लोग वहीं खरीदते है।”
आरती काम की चुनौतियों के बार में आगे कहती है, “हम अधिकतर जो लोग ऑर्डर देकर बनवाते है उससे कुछ दो-तीन पीस ही ज्यादा बनाते है क्योंकि अब सबको हाथ का काम पसंद नहीं है। साथ ही जो चीजें हम हाथ से बनाते हैं उनमें मेहनत काफी लगती है और उस हिसाब से लोग पैसे देना भी पसंद नहीं करते है। अब बाजार पूरी तरह से बदल गया है। इस वजह से ज्यादा मुनाफा न होने के कारण पुरुष काम को न संभालकर घर में रहने वाली औरतों ने संभाल लिया। पूरे सीजन में बहुत ज्यादा तो नहीं लेकिन ठीक-ठाक ही बचत हो पाती है।
आधुनिक बाजार में पारंपरिक तौर पर काम करने वाले कुम्हार और शिल्पकारों की स्थिति बहुत बेहतर नहीं है। जाति और समुदाय के तौर पर काम करते आ रहे कुम्हार अपने पारंपरिक काम की वजह से वर्तमान में गरीबी में रहने को भी मजबूर है। एक तरफ तो कुम्हार के काम की मांग पहले के मुकाबले कम हो गई है दूसरी तरफ हस्तशिप के काम में बिचौलिए भी बढ़ गए है। कुम्हारों की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए साल 2020 में सूक्ष्म और मध्यम उद्यम मंत्रालय ने दिशा-निर्देश जारी किए। सरकार ने मिट्टी के बर्तनों के पहिये, क्ले ब्लंजर और ग्रेनुलेटर सहित प्रशिक्षण और सामग्री के रूप में सहायता प्रदान करने को कहा था। सरकारी ने घोषणआ की थी कि योजना से 6075 पारंपरिक और गैर-पारंपरिक मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कारीगरों, ग्रामीण बेरोजगार युवाओं और प्रवासी मजदूरों को लाभ होगा।
ये हम औरतों का पार्ट-टाइम काम है
अगर रामलीला टिल्ले में महिलाओं कुम्हारों से सरकारी की योजना के बारे में बात करते तो वहां इस बारे में कोई जानकारी नहीं है। 31 वर्षीय लक्ष्मी परिवार की तीसरी पीढ़ी की महिला है जो त्योहारों के सीजन में मूर्ति बनाकर बेचने का काम करती हैं। उनका कहना है हम लोगों के त्योहार मनवाते हैं, खुद तो बस काम में लगे रहते है। गणपति उत्सव से लेकर दीवाली तक सीजन होता है। त्योहारों में खुद के लिए कोई समय नहीं मिलता है पूरा समय भाग-दौड़ और दुकानदारी में चली जाती है। पूरे साल में केवल सर्दियों में काम नहीं करते है क्योंकि धूप और दिन भी छोटा होता है। सावन के महीने के बाद से तो जोरों में तैयारी चल जाती है। धीरे-धीरे काम करते रहते है और इन दिनों आकर तो होश नहीं रहता है।
कमाई के बारे में बोलते हुए उनका कहना है कि पहले जो मिट्टी आसानी से मिल जाती थी वह अब मुश्किल से दूर से मंगानी पड़ती है। पिछले साल के मुकाबले इस साल महंगी मिट्टी आई है। इसबार पांच हजार में एक बुग्गी मिट्टी आई है। इस साल सीजन में हमने तीन हजार के रंग ही खरीदे है। कुल मिलाकर अगर जिस तरह से काम करते है उतना नहीं पड़ता है। ये है कि हमारे पुरखे इसी काम में लगे हुए हैं और फिर घर पर रहकर कुछ काम करने का मौका मिला है तो खाली रहकर भी क्या ही करेंगे तो हम लोगों ने जिम्मदारी संभाल ली। दरअसल इस काम को महत्व देने की बहुत ज़रूरत है। कुम्हारों के काम और उनकी आवश्यकता को समझना चाहिए। कुम्हारों के काम को ज्यादा वरीयता न देने के कारण ही आज इस मौहल्ले में ही यह काम घर की औरतों ने पार्टटाइम की तरफ संभाल रखा है। परिवार की आय का मुख्य ज़रिया केवल कुम्हार के काम तक सीमित नहीं रह गया है क्योंकि सब जानते है इसमें ज्यादा कुछ बचत नहीं है। मिट्टी की बनी जो मूर्तियां मंगाते है उनमें भी बहुत खास बचत नहीं होती है अगर होती तो इस तरह से अभावों में जीवन न जीते।
आरती का कहना है, “अब घर में मैं अकेली हूं तो टुकड़ों-टुकड़ों में बांटकर काम करती हूं। सबसे पहले मूर्ति में इस्तेमाल अलग-अलग चीजें बनाती हूं उसके बाद बाकी सारी चीजें जोड़ती हूं। घर-परिवार को संभालने के साथ-साथ काम करना बहुत आसान नहीं है। तीन छोटे बच्चे हैं उन्हें भी संभालना है और साथ में घर के सारे काम।”
कुम्हारों का पारंपरिक काम सीमित होता जा रहा है। शहरों में तो यह करना और भी मुश्किल हो गया है। न शहरों में मिट्टी है और न ही भट्टी चलाने के लिए जगह है। प्रजापति समुदाय की इस कालोनी में महिलाएं मिट्टी की मूर्तियां तो बना रही है लेकिन बाकी पानी के घड़े, दिये, गमले, गुल्लक और अन्य गाँव से मंगाती है। ऐसा सामान खरीदने के लिए पैसे भी चाहिए होते है लेकिन लगातार बहुत ज्यादा मांग न होने के की वजह से वे कतराती भी है। अधिकतर महिलाओं का कहना है कि जब ज्यादा खरीदार नहीं होते है तो सामान को बिना किसी ज्यादा मुनाफे के ही बेचना पड़ता है।
नोटः लेख में इस्तेमाल सारी तस्वीरें पूजा राठी ने उपलब्ध कराई हैं।