ग्राउंड ज़ीरो से चूड़ियां बनाती ये ग्रामीण औरतें कैसे दे रही हैं पितृसत्ता को चुनौती

चूड़ियां बनाती ये ग्रामीण औरतें कैसे दे रही हैं पितृसत्ता को चुनौती

ब्राह्मणवादी पितृसत्ता अपने भारतीय समाज की एक कड़वी सच्चाई है, जिसके आधार पर आज भी हमारा समाज काम करता है। बाज़ारवाद के दौर में नौकरी, दुकानों, उत्पादों और बाज़ारों में भले ही इसका रंग फीका दिखे लेकिन समाज में आज भी गांव की बस्तियां जाति के आधार पर ही बसाई जाती हैं। लेकिन जाति का रंग सिर्फ़ यही तक नहीं है, जब हम इस ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था को गहराई से देखने की कोशिश करते हैं तो इसकी जड़ों को कई मायनों में और भी ज़्यादा मज़बूत पाते हैं। ख़ासकर जाति व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर आनेवाली दलित और महादलित समुदाय की महिलाएं।

जब इस ब्राह्मणवादी पितृसत्ता का भार महिलाओं के ऊपर पड़ता है तो इसका वजन कई गुना ज़्यादा बढ़ जाता है। मैं खुद भी दलित जाति से ताल्लुक़ रखती हूं और अधिकतर लोगों की ही तरह मुझे भी अपनी जाति का पता भेदभाव और हिंसा के व्यवहार से चला। ऐसे में हमेशा से इस व्यवस्था को चुनौती देने चाहत मेरे में मन रही लेकिन इसे कैसे संभव किया जा सकता है, यह सवाल भी रहा।

बीते कुछ सालों से मैं के एक संस्था के साथ जुड़कर समुदाय स्तर पर दलित और अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं के साथ काम कर रही हूं। अपने इस काम के दौरान मैंने देखा है कि दलित में भी मुसहर और अनुसूचित ज़नजाति की महिलाओं के संघर्ष कई मायनों में अन्य की अपेक्षा ज़्यादा है। पहले तो ग्रामीण स्तर पर उन्हें अन्य तथाकथित उच्च जाति की बस्तियों में जाने की अनुमति नहीं होती है। उन्हें हमेशा आवास, पानी, राशन जैसे बुनियादी अधिकारों से दूर रखा जाता है। ऐसे में जब भी समुदाय स्तर पर बैठक का आयोजन किया जाता है हमेशा दूसरी जाति की महिलाएं दलित महिलाओं के साथ बैठने परहेज़ करती हैं। जाति को लेकर ये वे अनुभव और जटिलताएं हैं जिनसे हम सभी परिचत हैं।

तस्वीर साभार: नेहा

हाल ही में संस्था की तरफ़ से ग्रामीण महिलाओं के साथ चूड़ी बनाने का एक प्रशिक्षण आयोजित किया गया, जिसमें मुख्य रूप से मुसहर, मुस्लिम, विधवा, पिछड़ी और तथाकथित ऊंची जाति की महिलाओं को शामिल किया गया। इस प्रशिक्षण का उद्देश्य न केवल महिलाओं को रोज़गारपरक कौशल विकास से जोड़ना था, बल्कि इस कौशल के माध्यम से जेंडर से जुड़ी रूढ़िवादी सोच को चुनौती देना भी था।

चूड़ी को विवाहित महिलाओं के ज़रूरी और सुहाग (महिला के पति) की निशानी माना जाता है। जब भी इस तरह के शुभ काम की बात होती है तो हमेशा महिलाओं को आपस में बांटने का काम किया जाता है। उनके धर्म, विवाहित स्थिति और जाति के आधार पर। जैसे अगर कोई भी सुहाग का सामान कोई विधवा और दलित महिला छू ले तो उसे अपवित्र बताया जाता है या फिर अगर हिंदू धर्म के सुहाग का सामान मुस्लिम महिलाएं छू लें तो उसे अपवित्र बताया जाता है।

इस पवित्र-अपवित्र के पीछे ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की नीतियों का उद्देश्य महिलाओं को आपस में बांटने और उस बंटवारे को बनाए रखना है। ये वे अनुभव रहे है जिसे मैंने भी समुदाय में अनुभव किया है। इसलिए इन दक़ियानूसी सोच को चुनौती देने के लिए इस प्रशिक्षण का आयोजन रहा, इस प्रशिक्षण में मैने एक साथ कई छोटे-छोटे बदलाव की शुरुआत देखी।

सीखने की ललक और पितृसत्ता को चुनौती

कहते हैं कि शिक्षा किसी भी तरह के भेदभाव से इंसान को ऊपर उठाने का काम करती है। मैंने इस बात को इस प्रशिक्षण में लागू होते देखा, जब चूड़ी बनाने की सीख के लिए अलग-अलग गांव, जाति और धर्म से आई महिलाएं एकसाथ मिलकर इसे सीख रही थीं और एक-दूसरे के साथ अपना समूह विकसित कर अलग-अलग डिज़ाइन पर काम करने लगीं। ये वह नज़ारा था जिसे लेकर आज तक हम संघर्ष करते रहे हैं क्योंकि आमतौर पर अलग-अलग जाति और धर्म से ताल्लुक़ रखनेवाली महिलाओं को एकसाथ बैठाना हमेशा से मेरे लिए चुनौती रही है, लेकिन इस प्रशिक्षण में मैंने ऐसी किसी चुनौती का सामना नहीं किया।

तस्वीर साभार: नेहा

पवित्र और अपवित्र के ख़िलाफ़ ‘क्रांति बैंगल’

सभी महिलाओं ने पहले दिन ही अपना-अपना परिचय दिया था, जिसमें उन्होंने अपनी सामाजिक प्रस्थिति के बारे में बताया था, जिसमें कोई मुसहर थी कोई विधवा और कोई मुस्लिम थी। ये वह सामाजिक वर्ग है जिन्हें आमतौर पर मुख्यधारा का समाज हाशिये पर रखता है। इस धारणा को तोड़ने के लिए एक-दूसरे के लिए चूड़ी डिज़ाइन की जिसे एक-दूसरी महिला को दिया गया। इतना ही नहीं, कई महिलाओं ने इसे अपने रोज़गार के रूप में भी शुरू करने की योजना बनाई है।

रचनात्मकता और रोज़गार को बढ़ावा

इस प्रशिक्षण में शामिल होने के बाद सभी महिलाओं ने अपने अनुभव में अपना-अपना एक प्लान साझा किया, जिनमें अधिकतर महिलाओं ने इसे रोज़गार के रूप में शुरू करने की योजना बनाई है। सामान्य रूप से मुसहर जाति की बात करें तो इस समुदाय में महिलाएं अधिकतर मज़दूरी का काम ही करती हैं। लेकिन जब इस समुदाय की महिलाएं चूड़ी बनाने जैसे हुनर कोई सीखने के बाद रोज़गार का सपना देखने लगे तो यह एक बदलाव है।

‘चूड़ी’ को आमतौर पर पितृसत्ता के चिन्ह के रूप में देखा है, जिसके साथ कमज़ोरी और महिला को ही जोड़ा जाता है। इसलिए जब कभी भी बहादुरी का दावा करने की बात आती है तो लोग आसानी से कहते है – “मैंने चूड़ियां नहीं पहन रखी हैं।” लेकिन जब हम चूड़ी के इस स्वरूप को देखते हैं तो यह समाज जेंडर आधारित भेदभाव को चुनौती देती नज़र आती है, जो बहुत धीमे स्वरों में रचनात्मकता के साथ पितृसत्ता को सीधेतौर पर चुनौती देती है। संस्था इन प्रशिक्षित महिलाओं के साथ चूड़ियों का काम शुरू कर चुकी है और इसे बाज़ार में भी पहुंचाया जाने लगा है। ये एक ऐसा जीवंत उदाहरण मैंने देखा है, जिसके माध्यम से बेहद सहज तरीक़े से जाति, सत्ता और भेदभाव की साख को कमज़ोर किया जा सकता है। शायद सामाजिक बदलाव के लिए ये माध्यम ही ज़्यादा प्रभावी हो सकते हैं।


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