राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के साल 2019 में प्रकाशित क्राइम इन इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रत्येक 16 मिनट में एक रेप होता है। वहीं एनसीआरबी की 2018 की रिपोर्ट बताती है कि 94 फीसद मामलों में रेप करने वाला सर्वाइवर का कोई नजदीकी रिश्तेदार, पड़ोसी, सहकर्मी, या कोई जान-पहचान वाले लोगों में से ही होता है। यह आंकड़ा ऐसी घटनाओं के एक छोटे हिस्से पर आधारित है क्योंकि हजारों मामले न दर्ज होते हैं और न ही चारदीवारी के बाहर आने दिए जाते हैं।
यौन हिंसा का कपड़ों और उम्र से मतलब नहीं
समाज के पितृसत्तातमक व्यवस्था के कारण हम सभी ने अपने जीवन के पड़ाव में किसी न किसी रूप में यौन हिंसा का सामना किया है। ये समाज रेप या किसी अन्य प्रकार के यौन उत्पीड़न का जिम्मेदार सर्वाइवर के चरित्र, कपड़े और हाव-भाव को ठहराता है। वहीं दूसरी तरफ ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ के सितम्बर 2022 के रिपोर्ट मुताबिक भारत में हर दिन चार किशोरियों का रेप होता है। इसमें से 25 फीसद की उम्र 12-16 वर्ष के बीच होती है। वहीं वरिष्ठ महिलाओं के खिलाफ़ यौन उत्पीड़न ना हो, ऐसी भी बात नहीं है। इंडियन एक्सप्रेस में जनवरी 2022 में प्रकाशित ख़बर बताती है कि 87 वर्ष की महिला के साथ बलात्कार की घटना हुई। अब सवाल ये है कि बच्चियों और वृद्ध महिलाओं के कौन से अंग या हाव-भाव मर्दों को उकसाते हैं?
क्या महिला महज वस्तु भर है
सच्चाई तो ये है कि इनके लिए हर स्त्री उपभोग की वस्तु है और कुछ नहीं। पुरुषों के इस मानसिक विकृति का कारण कोई और नहीं बल्कि हमारा पितृसत्तात्मक समाज है। ऐसा समाज जहाँ एक मुख्यमंत्री द्वारा एक किशोरी के रेप और मर्डर को महज दुर्घटना बताया जाता है। जहाँ न्याय के आस में थाने गयी रेप सर्वाइवर का थानेदार द्वारा भी रेप किया जाता है। जहाँ गैंग रेप के दोषियों के रिहाई के बाद न सिर्फ़ पुरुष उनका स्वागत करते हैं बल्कि महिलाएं भी उनका आरती कर उनके जेल से बाहर आने का जश्न मना रही हैं। हाल में घटी इन घटनाओं के बाद हम न्याय के लिए समाज तो क्या, सरकार और न्याय व्यवस्था पर भी यकीन नहीं कर सकते। हमारे समाज के साथ-साथ, हमारे देश की सरकार और न्याय व्यवस्था भी महिला विरोधी है।
जहां माँ से भी न हो सके यौन शोषण की बात
इस महिला विरोधी समाज के अंग रहते हुए हम इसके शोषणकारी व्यवस्था से अछुते नहीं रह सकते। अख़बारों में छपी कहानियों के किरदार हम भी हैं बस नाम और जगह अलग हैं। इस पितृसत्ता ने हम सभी स्त्रियों को किसी न किसी रूप में अपना शिकार बनाया है। यहाँ मैं ऐसी ही एक कहानी बताना चाहती हूँ जो थोड़े बहुत बदलाव के साथ जाने कितनी ही बच्चियों की कहानी है। मेरा जन्म बलिया के एक गांव में हुआ, जहाँ समाज लड़कियों को बोझ व मुश्किलों को न्योता देने वाली से अधिक कुछ नहीं समझता है। जहाँ माँ-बेटी के बीच प्यार होते हुए भी यौन शोषण के बारे में बात करने की कोई गुंजाइश नहीं होती है। मैंने महज 6-7 साल की उम्र में अपने जीवन का पहला यौन शोषण झेला, जिसका मानसिक दंश मैंने हाल के वर्षों तक ढोया या शायद आज तक ढो रही हूं। मुझे अब भी कभी-कभी ऐसे सपने आते हैं, जिसमें कोई पुरुष या जानवर मुझ पर यौन हिंसा कर रहे हैं। इसके बाद मैं बुरी तरह डर जाती हूँ। इतनी कि अगले दो-तीन दिनों तक कुछ नहीं कर पाती। दिमाग में वही बात घुमती रहती है।
यौन हिंसा पर क्या सही है खुद को कोसना
इस डर के पृष्ठभूमि की बात करें तो यह उस घटना में निहित है जो पन्द्रह साल पहले घटी थी। मैं अपने घर से केवल पांच सौ मीटर दूर स्थित स्कूल में पढ़ने जाती थी, जहाँ के ज्यादातर कर्मचारी और बच्चे मेरे घर के आस-पास के थे और बचे हुए मेरे गांव या पास के गाँव के ही थे। उस वक्त न मैं कथित तौर पर असमय घर से निकली थी, न मेरे कपड़े इतनी पारदर्शी थे कि किसी का मन मचल जाए। मेरे तो अंग भी इतने विकसित नहीं थे कि उपरी तौर पर उन्हें देखकर मेरा जेंडर तय किया जा सके। फिर भी मेरे साथ वह सब हुआ, जो एक स्त्री को शारीरिक से अधिक मानसिक पीड़ा देती है। लेकिन मैंने उस वक्त दर्द और घिन्न के अलावा कुछ और महसूस नहीं किया। मुझे तो ये भी नहीं पता था कि मेरे साथ हो क्या रहा है। हमारे घरों में हमें गुड टच, बैड टच के बारे में कुछ नहीं बताया जाता है। इस घटना के हफ्तों बाद तक मैं दर्द में रहते हुए भी, किसी से कुछ बता नहीं सकी। बस ये जानने की कोशिश करती रही कि जो मेरे साथ हुआ है, वो सबके साथ होता है या मैं अकेली ऐसी हूँ जिसने कुछ इतना बुरा किया है, जबकि सच तो ये था कि मैंने कुछ किया ही नहीं था।
हमारे घरों में हमें गुड टच, बैड टच के बारे में कुछ नहीं बताया जाता है। इस घटना के हफ्तों बाद तक मैं दर्द में रहते हुए भी, किसी से कुछ बता नहीं सकी। बस ये जानने की कोशिश करती रही कि जो मेरे साथ हुआ है, वो सबके साथ होता है या मैं अकेली ऐसी हूँ जिसने कुछ इतना बुरा किया है। जबकि सच तो ये था कि मैंने कुछ किया ही नहीं था।
यौन हिंसा के कारण होती मानसिक समस्याएं
उस डरी-सहमी बच्ची को याद करते हुए मैं आज भी टूट जाती हूँ। बड़े होने के साथ मैं ये घटना भुल-सी गयी। पर जब भी उस आदमी को अपने आस-पास देखती तो सहम जाती। मेरे भीतर का डर नहीं गया। जब मैं आठवी कक्षा में थी, एक दिन अपने घर के बाहर बैठकर अखबार पढ़ रही थी, वो आदमी अचानक कहीं से आया और मेरे दोनों पैरों के बीच अपने पैर घुसाने की कोशिश करने लगा। मैं बहुत डर गयी थी और वो मुझे सहमा देखकर मुस्कुरा रहा था। लेकिन तभी वहाँ कोई आ गया जिसके बाद वह पीछे हट गया और हँसता हुआ चला गया। उस दिन वह सब,जो सालों पहले हुआ था, एक बार फिर मेरे आँखों के सामने घुम गया। इस घटना के बाद मेरे जीवन में मनोवैज्ञानिक संघर्ष का दौर शुरू हो गया। मैं जब कभी अखबार में रेप, या हूँ हिंसा की खबरें पढ़ती, मेरा गला रुँघ जाता। मैं ठीक से सो नहीं पाती। यहाँ तक कि समाज द्वारा निर्मित पवित्रता-अपवित्रता की धारणा भी मुझे प्रभावित करने लगी थी। मुझे लगने लगा था कि मैं अपवित्र हूँ। एक तरह से मैं मानसिक रूप से बीमार थी।
मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता की कमी
लेकिन मनोवैज्ञानिक समस्याओं के विषय में जागरूक नहीं होने के कारण मैं लगभग छह साल परेशान रही। मेरे स्नातक के दौरान मेरे कुछ दोस्तों और हमारी एक प्रोफ़ेसर के मदद से मैं उस बुरे दौर से बाहर आ सकी। पर पूरी तरह शायद अब तक नहीं उभर पायी हूँ। वो आदमी मेरे घर आता था और मैं उसे अपने घर में बर्दाश्त नहीं कर पाती थी। मेरी प्रोफ़ेसर के सलाह पर हाल ही में मैंने अपनी माँ को इस बारे में बता दिया। इसके बाद उन्हें इस बात का अपराध बोध भी हो रहा था कि मैं उनके सामने रहते हुए, इस दौर से गुजरी और उन्हें पता भी नहीं चला। लेकिन सच तो ये है कि इसमें उनकी भी कोई गलती नहीं है, इस व्यवस्था ने हमेशा इन मुद्दों पर पर्दा डालकर सर्वाइवर पर सवाल उठाकर गुनाहगार लोगों के पक्ष को न सिर्फ़ मजबूत किया है बल्कि ऐसे अपराधों को जानबुझ कर बढ़ावा दिया है।