हमारे देश में शिक्षा के अधिकार को लेकर धीरे-धीरे ही सही पर जागरूकता हुई है। शैक्षिक संस्थानों पर ध्यान दें, तो इन्हें अक्सर माता-पिता बच्चों के सीखने का एकमात्र संस्था मानते हैं। लेकिन बात जब लड़कियों और लड़कों की शिक्षा की आती है, तो न सिर्फ शिक्षा के स्तर में अंतर पाया जाता है, बल्कि उसकी गुणवत्ता, उनकी शिक्षा तक पहुंच और शैक्षिक संस्थानों में उनका अनुभव भी अलग होता है। स्कूल या कॉलेज के कम से कम स्नातक के साल किसी भी युवा के अस्तित्व का एक बड़ा हिस्सा है। किशोरावस्था के दौरान स्कूल की समस्याएं विद्रोह करने की वजह, स्कूल में न जाना या न जा पाना; स्वतंत्रता या जीवन में चुनौतियों का एहसास करवा सकता है। लेकिन अमूमन जहां लड़कों के लिए स्कूल या कॉलेज जाना सिर्फ एक साधारण काम है, वहीं लड़कियों के लिए यह एक चुनौती भरा काम है। लड़कियों को पर आम तौर पर न सिर्फ घर के काम का बोझ रहता है बल्कि पढ़कर आगे बढ़ने का रास्ता भी मुश्किल होता है।
स्कूलों में जो सबसे महत्वपूर्ण है वह है शिक्षकों का व्यवहार, स्कूल का माहौल और स्कूल के भीतर या बाहर सुरक्षा। लेकिन भारत में अक्सर लड़कियों को स्कूल या कॉलेज आते-जाते वक्त हिंसा का सामना करना पड़ता है। यह जरूरी है कि हम इस बात पर भी ध्यान दें कि लड़कियों का आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक स्थिति क्या है। अक्सर शोध महिलाओं और बच्चों के खिलाफ हिंसा पर केंद्रित होते हैं। लेकिन किशोर लड़कियां जिन मुद्दों का सामना करती हैं, उन्हें अक्सर नजरअंदाज किया जाता है। हमें सुनने को मिलता है कि कॉलेज जाने के रास्ते होने वाली मौखिक हिंसा ‘सामान्य’ है। लड़कियों को इसे नजरंदाज कर कॉलेज जाने की आदत बना लेने को कहा जाता है।
“मैं इतनी परेशान थी कि मैं दो महीने स्कूल नहीं गई। मुझे डर रहता कि वह फिर से पीछा और परेशान करेगा। घर पर इसलिए नहीं बताया कि कहीं मेरी पढ़ाई न बंद करवा दे।” लेकिन अंत में रूबी एक रोज जब स्कूल के लिए निकली, तब उन्हें दोबारा हिंसा का सामना करना पड़ा और पुलिस कार्रवाई भी करनी पड़ी।
लड़कियों के शिक्षा में बाधा में परिवार की भूमिका
लैंगिक भेदभाव, मानदंड और रूढ़िवादी प्रथाओं का मतलब है कि किशोर लड़कियों को लड़कों की तुलना में बहुत अधिक यौन हिंसा या अन्य हिंसा के अनुभव होने की संभावना। इस विषय पर उत्तर प्रदेश की संस्था रेड ब्रिगेड ट्रस्ट के लखनऊ की संयोजक रूबी खान से मेरी बातचीत हुई। वह बताती हैं, “लड़कियों की शिक्षा खासकर 12वीं के बाद बहुत मुश्किल है। अक्सर हमें कहा जाता है कि आगे पढ़ने की जरूरत नहीं है। आगे पढ़ना चाहे और परिवार मान भी जाए, तो आस-पास के लोग घरवालों को भड़काते हैं।” रूबी की साल 2014 में एक सरकारी प्राथमिक स्कूल से आठवीं की पढ़ाई के बाद स्कूल बंद करवा दिया गया था। घरवालों को मनाने के लिए उन्होंने लगभग एक हफ्ता खाना नहीं खाया और दाखिला दिलवाने के अपने जिद पर अड़ी रहीं। इसके बाद सिर्फ इस शर्त पर कि वह घर के कामों से पीछे नहीं हटेंगी, और कोई प्रेम संबंध या ऐसी कोई बात सुनने में नहीं आएगा, उनका स्कूल में दाखिला करवाया गया। लेकिन इसके बाद भी उनके लिए पढ़ाई का रास्ता आसान नहीं रहा।
हिंसा की वजह से स्कूल ड्रॉप आउट
रूबी इन्टर में थी जब उन्होंने स्कूल जाने के रास्ते हिंसा का सामना किया। स्कूल आते-जाते समय हर दिन उत्पीड़क उनका पीछा किया करता, उन्हें मानसिक और भावनात्मक रूप से परेशान करता, अपने प्रेम के इजहार को मनवाने के लिए ब्लैक्मैल भी करता। रूबी बताती है, “मैं इतनी परेशान थी कि मैं दो महीने स्कूल नहीं गई। मुझे डर रहता कि वह फिर से पीछा और परेशान करेगा। घर पर इसलिए नहीं बताया कि कहीं मेरी पढ़ाई न बंद करवा दे।” लेकिन अंत में रूबी एक रोज जब स्कूल के लिए निकली, तब उन्हें दोबारा हिंसा का सामना करना पड़ा और पुलिस कार्रवाई भी करनी पड़ी। वह बताती है, “मुझे उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज करनी पड़ी। जब उसके घर पर पुलिस गई, और मैं अपने घर पर आई तो अम्मी बहुत गुस्सा हुईं। इसके बाद अब्बा को जब यह बात पता चली तो उन्होंने मेरी पढ़ाई बंद करवा दी। एक साल बाद ही किसी तरह जब वे माने, तब ऐफिडेविट देकर साल 2019 में आइडियल डिग्री कॉलेज में दाखिला ले पाई हूं।” हालांकि स्नातक की पढ़ाई भी उन्होंने छोटी-मोटी नौकरी कर अपने बलबूते पूरी की क्योंकि घर से आर्थिक मदद मिलना बंद हो चुका था। अब उनके घरवाले शादी के लिए दबाव बना रहे हैं। हिंसा की घटना पर, लड़कियों का परिवार कितना साथ देता है, या लड़की का अपने ही परिवार तक पहुंच कितनी है, यह महत्वपूर्ण है। कई बार स्कूल या कॉलेज के रास्ते आते-जाते हुए हिंसा की घटनाओं को वह इस डर से नहीं बताती कि घरवाले इसपर उसकी पढ़ाई बंद करवा देंगे।
परिवार की आर्थिक, सामाजिक हालात का हिंसा से संबंध
किशोर लड़कियां एक सबसे ‘असुरक्षित’ समूह हैं क्योंकि इस उम्र तक वे कमाना भी शुरू नहीं कर पातीं। साथ ही, वे हमारे रूढ़िवादी भारतीय समाज के लैंगिक असमानता और बाहरी दुनिया में सामाजिक मानदंडों के साथ-साथ शारीरिक, मनोवैज्ञानिक और हार्मोनल परिवर्तनों का सामना भी कर रही होती हैं। लैंगिक असमानता और हिंसा को स्वीकार करने की प्रवृत्ति किशोर लड़कियों के खिलाफ हिंसा का मूल कारण हैं। इस संदर्भ में बनारस की रहने वाली आस्था कहती है, “बस्ती के लड़के अक्सर कॉलेज के रास्ते में टिप्पणी कर परेशान करते हैं।” आस्था फिलहाल कॉलेज के क्लास को बंद रख परिवार की आर्थिक रूप से मदद करने के लिए एक अस्पताल के ओपीडी में हेल्पर के तौर पर काम कर रही है। आर्थिक परेशानी का जिक्र करते हुए वह बताती है, “मेरी थर्ड ईयर की फीस भरी नहीं गई है। शायद मुझे नौकरी और पढ़ाई में नौकरी को ही चुनना होगा और पढ़ाई बंद करनी पड़ेगी।” आस्था की मां घरेलू कामगार और पिता श्रमिक हैं। अमूमन सवेरे उठकर वह पहले मां के साथ जाकर उनकी मदद करती हैं, फिर घर का काम निपटा कर नौकरी के लिए निकलती हैं।
वहीं रेड ब्रिगेड की रूबी बताती हैं कि संस्था के साथ जिन किशोरियों के बीच वह काम कर रही हैं, उनके माता-पिता दिहाड़ी मजदूर या श्रमिक हैं। वहीं कईयों की मांएं घरेलू कामगार है। इन परिवारों में से अधिकतर के पास अपना घर नहीं है। उत्तर भारत के एक ग्रामीण ब्लॉक में 10 सरकारी और निजी माध्यमिक विद्यालयों में आठवीं कक्षा से बारहवीं कक्षा में पढ़ने वाली 13-19 वर्ष की आयु वर्ग की किशोर लड़कियों के बीच एक अध्ययन किया गया। इस अध्ययन में किशोर किशोरियों के बीच 6.6 शारीरिक हिंसा, 5.4 फीसद यौन और 5.2 फीसद भावनात्मक हिंसा की व्यापकता पाई गई। रिपोर्ट बताती है कि शारीरिक हिंसा सबसे अधिक माता-पिता कर रहे थे। वहीं यौन हिंसा के लिए सबसे ज्यादा पड़ोसी और दोस्त या रिश्तेदार जिम्मेदार थे। साथ ही, मध्यमवर्गीय परिवारों की किशोरियों ने ज्यादा भावनात्मक हिंसा का अनुभव किया।
क्यों हिंसा जटिल समस्या है
स्कूल संबंधी लैंगिक हिंसा एक जटिल, बहुआयामी सामाजिक मुद्दे का हिस्सा है। समाज के व्यापक रूप में छोटी सी इकाई के रूप में स्कूल ऐसे स्थान हैं, जहां लैंगिक भूमिकाएं को और पुख्ता किया जाता है और पावर डाएनैमिक्स अपनी भूमिका निभाती है। हिंसा के खिलाफ किसकी कैसी प्रतिक्रिया होगी, कौन किस हद तक लड़ सकता है, या इसका प्रतिरोध कर पाएगा, इसका संबंध सर्वाइवर के आर्थिक, शैक्षिक, पारिवारिक, मानसिक और शारीरिक स्थिति से भी है। स्कूल से संबंधित लैंगिक हिंसा (एसआरजीबीवी) विद्यार्थियों के स्वास्थ्य और शैक्षिक स्थिति दोनों को प्रभावित करती है। चाहे वे प्रत्यक्ष रूप से हिंसा से प्रभावित हों या अप्रत्यक्ष रूप से दर्शक के रूप में। एसआरजीबीवी के प्रभावों में विद्यार्थियों के बीच प्रेरणा की कमी, असफल ग्रेड, अनुपस्थिति, और स्कूल छोड़ने वालों की संख्या में वृद्धि शामिल है।
शोध बताते हैं कि एसआरजीबीवी विद्यार्थियों को हतोत्साहित भी करता है, जिससे उनके शैक्षिक लक्ष्यों को प्राप्त करने की क्षमता प्रभावित होती है। साल 2021 में आंध्र प्रदेश के तिरुपति के शहरी क्षेत्र के चार सरकारी कॉलेजों में 16-19 वर्ष के कॉलेज जाने वाले किशोरों के बीच एक अध्ययन किया गया। इसमें 54 फीसद के साथ अधिकतर प्रतिभागी महिलाएं थी। अध्ययन के अनुसार लोगों ने सबसे ज्यादा 28.1 फीसद शारीरिक हिंसा का सामना किया और 17.7 फीसद मनोवैज्ञानिक हिंसा का सामना किया। महिलाओं में शारीरिक, यौन और मनोवैज्ञानिक हिंसा 17.8 फीसद, 1.9 फीसद, 11.0 फीसद पाई गई। वहीं और पुरुषों में शारीरिक, यौन और मनोवैज्ञानिक हिंसा 10.3 फीसद, 0.7 फीसद और 6.5 फीसद पाई गई।
प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में हिंसा का प्रभाव
हिंसा लड़कियों की शिक्षा को प्रत्यक्ष और अन्य मानवाधिकारों पर अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। हिंसा का खतरा माता-पिता को अपनी बेटियों को स्कूल भेजने से हतोत्साहित कर सकता है। इसके अलावा समुदाय की दखलंदाज़ी और परिवार की आर्थिक स्थिति भी एक अहम भूमिका निभाती है। स्कूलों के रास्ते या स्कूल में हिंसा को घर, समुदाय और कार्यस्थल में हिंसा से कम महत्वपूर्ण माना नहीं जा सकता। स्कूल वह स्थान है जहां किशोरों को अपने साथियों के साथ कई व्यक्तिगत मुद्दे साझा करने का अवसर मिलता है। स्कूली विद्यार्थियों के शिक्षा के अधिकार पर दलीलें दी जाती है, लोगों को जागरूक किया जा रहा है और समस्याओं से निपटने के लिए अलग-अलग तरीके भी अपनाए जाते हैं। लेकिन आज भी हिंसा, परिवार का साथ न देना, आर्थिक स्थिति खराब होना लड़कियों की शिक्षा में सबसे बड़ी बाधा है। जरूरी है कि हम समझे कि हिंसा रोकी जा सकती है और स्कूल के रास्ते हिंसा सामान्य नहीं।