समाजकैंपस समावेशी माहौल के खिलाफ़ पितृसत्तात्मक सोच को मज़बूती देते हमारे स्कूल

समावेशी माहौल के खिलाफ़ पितृसत्तात्मक सोच को मज़बूती देते हमारे स्कूल

स्कूल के अंदर जेंडर के आधार पर एक बंटवारा किया जाता है। इसका एक परीणाम यह है कि बच्चे अपने से विपरीत जेंडर के प्रति कोई समझ विकसित नहीं कर पाते हैं। उन्हें उनके पहले से ही बनाए हुए पितृसत्तात्मक दायरों में सीमित रखा जाता है।

किसी भी व्यक्ति के लिए सीखने की प्रक्रिया उसके जन्म से ही शुरू हो जाती है।  हम सबसे पहले अपने परिवार, घर, पड़ोस और आस-पास के माहौल से सीखते हैं। हम अपने आस-पास की चीजों को देखते हैं और उनका अनुसरण करते हुए उन्हें अपने व्यवहार का हिस्सा बनाते हैं। जातिवाद और पुरुष प्रधानता का सामना हम किसी एक दिन अचानक से नहीं करते हैं। यह हमारे व्यवहार में स्थापित है जिसकी ट्रेनिंग बचपन से ही शुरू हो जाती है। बचपन से बताया जाता है कि कमज़ोरी लड़कियों की निशानी है इसलिए वो रो सकती हैं। लड़के निडर होते हैं, इसलिए रोना या भावुक होना उनका गुण नहीं है।

खिलौने, कपडे़, स्कूल, सिनेमा आदि सब बताते हैं कि लड़के और लड़कियों के संसार कैसे अलग हैं। समाज की ट्रेनिंग के ज़रिये पुरुष और औरतें बनाए जाते हैं। पितृसत्तात्मक समाज को पोषित करने वाली भेदभाव और असमानता पर आधारित धारणाएं बचपन से ही बच्चों के व्यवहार में रमा दी जाती हैं। ऐसी स्थिति में जहां सारे प्रयास स्थापित व्यवस्था को बनाए रखने के लिए किए जाते है वहां बदलाव के लिए शिक्षा को ही एक उम्मीद के रूप में देखा जा सकता है। 

शुरुआती तौर पर स्कूल सबसे पहले हमारे सीखने की जगह बनते हैं। जहां पढ़ने-लिखने और किताबी जानकारी के अलावा एक बेहतर समाज के लिए व्यक्तित्व निर्माण किया जाता है। स्कूली माहौल पहला एक ऐसा स्पेस बनता है जहां हम अपनी जाति, जेंडर, धर्म आदि के आधार पर की गई कंडीशनिंग को चुनौती देते हैं। स्कूलों में दी जा रही शिक्षा सामाजिक बदलाव की नींव है पर क्या वास्तविकता यही है? क्या हमारे स्कूल समानता, स्वतंत्रता, सामूहिकता जैसे मूल्य बच्चों को सिखा पा रहे हैं? सबसे बड़ी दुविधा यही है कि जिन संस्थानों से बदलाव की उम्मीद की जानी चाहिए वे खुद सामाजिक व्यवस्था का शिकार हैं और स्थापित व्यवस्था को ही मजबूत कर रहे हैं।

स्कूलों में जेंडर के आधार पर एक बंटवारा किया जाता है। इसका एक परीणाम यह है कि बच्चे अपने से विपरीत जेंडर के प्रति कोई समझ विकसित नहीं कर पाते हैं। उन्हें उनके पहले से ही बनाए हुए पितृसत्तात्मक दायरों में सीमित रखा जाता है।

जहां पूरा समाज उन्हें जेंडर के आधार पर एक बाइनरी में फिट करने की कोशिश करता है वहां स्कूलों द्वारा सिखाया जाना चाहिए कि व्यक्ति की क्षमता उसके जेंडर से निर्धारित नहीं होती है। लोगों के बीच शारीरिक अंतर हैं पर ये अंतर किसी भी सामाजिक भेदभाव या उत्पीड़न का आधार नहीं होना चाहिए। मौजूद पुरुष प्रधानता को समझाते हुए समानता, स्वतंत्रता और सह-अस्तित्व के मूल्य सिखाए जाने चाहिए।  

ग्रामीण इलाकों के स्कूल अधिक और पितृसत्तात्मक अनुभव

अगर शिक्षा व्यवस्था पर विशेष तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में गौर किया जाए तो हम पाएंगे कि स्कूली माहौल न सिर्फ पितृसत्तात्मक मानसिकता को बनाए रखता है बल्कि इसे मजबूती प्रदान करता है। एक समावेशी माहौल की जगह एक बाइनरी में बच्चों को रखकर उन्हें शिक्षित करने के प्रयास किए जाते हैं। पूरी स्कूली शिक्षा के दौरान जेंडर से संबंधित मुद्दों के लिए कोई स्पेस उपलब्ध नहीं  है। ग्रामीण क्षेत्रों में अगर स्कूली शिक्षा का अवलोकन किया जाए तो साफ तौर पर ऐसी व्यवस्थाएं देखी जा सकती हैं जो बच्चों के अंदर जेंडर के आधार पर बनाई गई रूढ़ियों और धारणाओं को मजू़बती प्रदान करती हैं।

हालांकि, सभी जगह परिस्थितियां एक जैसी नहीं हैं। शहरों के मुकाबले ग्रामीण क्षेत्रों में और खास तौर पर सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर अधिक खराब है। इन स्कूलों में सामान्य रूप से हाशिये से आनेवाले बच्चे पढ़ते हैं। ये बच्चे न सिर्फ अपने परिवार में फर्स्ट जनरेशन लर्नर नहीं होते हैं बल्कि एक ऐसे सामाजिक परिवेश से संबंध रखते हैं जहां जातिवाद और पितृसत्ता की पकड़ सबसे अधिक है। ऐसी स्थिति में इन बच्चों के पास शिक्षा ही एक ऐसा ज़रिया होता है जिसके सहारे वे अपनी कंडीशनिंग तोड़ सकते हैं और अपने परिवेश में बदलाव ला सकते हैं। 

अनुशासन के नाम पर बाइनरी 

हमारे स्कूलों में अनुशासन बनाए रखने को सबसे बड़ा काम समझा जाता है। स्कूलों में टीचर्स अपनी अधिकतर ऊर्जा और समय सिर्फ अनुशासन को कायम रखने पर लगा देते हैं। कोएड स्कूलों में इसका सबसे आसान तरीका एक बाइनरी को समझा जाता है। जिसकी शुरुआत लड़के और लड़कियों के लिए अलग क्लास रूम, खेल के मैदान से होती है। स्कूल के अंदर जेंडर के आधार पर एक बंटवारा किया जाता है। इसका एक परीणाम यह है कि बच्चे अपने से विपरीत जेंडर के प्रति कोई समझ विकसित नहीं कर पाते हैं। उन्हें उनके पहले से ही बनाए हुए पितृसत्तात्मक दायरों में सीमित रखा जाता है। स्कूलों में 12-13 साल की उम्र में लड़कों में मेल इगो पनप जाती है, जिनके लिए गर्व का विषय यह होता है कि वे लड़कियों के विपरीत व्यवहार कर रहे हैं या कहें कि मर्द होने के मापदंडों पर कितना खरा उतर पा रहे हैं।

जहां पूरा समाज उन्हें जेंडर के आधार पर एक बाइनरी में फिट करने की कोशिश करता है वहां स्कूलों द्वारा सिखाया जाना चाहिए कि व्यक्ति की क्षमता उसके जेंडर से निर्धारित नहीं होती है। लोगों के बीच शारीरिक अंतर हैं पर ये अंतर किसी भी सामाजिक भेदभाव या उत्पीड़न का आधार नहीं होना चाहिए। मौजूद पुरुष प्रधानता को समझाते हुए समानता, स्वतंत्रता और सह-अस्तित्व के मूल्य सिखाए जाने चाहिए।  

जिस तरीके से घरों के अंदर बच्चों की लड़का और लड़की होने के रूप में कंडिशनिंग की जाती है। हमारे स्कूल भी इसी कंडिशनिंग के तहत काम करते हैं।  ड्रेस कोड, खेल, सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि साफ तौर पर बताते हैं कि लड़का और लड़की होने के क्या मतलब हैं। स्कूलों में होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में रंगोली बनाने, नाचने, अतिथि सत्कार करने का काम लड़कियों को दिया जाएगा और लड़कों को प्रबंधन का। यहां रूचि और क्षमता का सवाल नहीं है। ये पूर्वनिर्धारित होता है।बिल्कुल शुरू से बच्चों को जेंडर रोल्स में फिट करने की कोशिश चलती है। पहली क्लास के बच्चों को कविता के नाम पर ‘ मम्मी की रोटी गोल-गोल, पापा के पैसे ‘गोल- गोल’ सिखाया जा रहा है। इसके अलावा स्कूलों में लड़का और लड़की की बाइनरी के अलावा अञ किसी सम्भावना पर कोई बात ही नहीं होती है।

पूरी स्कूली शिक्षा के दौरान बच्चों के पास अवसर नहीं होते जहां वे इस बाइनरी की कडिशनिंग के बाहर कुछ समझ विकसित कर पाए। ग्रामीण परिवेश में स्कूली पढ़ाई का अनुभव बताते हुए पल्लवी कहती हैं, “गांवों के स्कूलों में एक सामाजिक दबाव में पढ़ाई होती है जहां सब बने-बनाए ढांचे के हिसाब से होता है। अकसर स्कूलों में टॉक्सिक माहौल बनाया जाता है जहां एक लड़के की लड़की के साथ बेंच पर बैठने के लिए पिटाई कर दी जाती है। जब मैं दिल्ली विश्वविद्यालय पहुंची तो मेरे लिए क्वीयर समुदाय के बारे में जानना आश्चर्य की बात थी। मेरे स्कूल में एक भी ऐसा मौका नहीं रहा जहां इस पर बात हुई हो।”

जेंडर के प्रति समझ

हमारी स्कूली शिक्षा जेंडर के प्रति बच्चों में जागरूकता पैदा करने में नाकाम है। इसका एक कारण ये है कि स्कूलों में इसे शिक्षा के स्तर पर महत्व ही नहीं दिया जाता है। बच्चों के सामाजिक शैक्षणिक विकास के लिए होने वाली तमाम बहसों में जेंडर के लिए कोई स्पेस नहीं दिखता है। किसी तरीके की बात होती भी है तो उसे भी सिर्फ महिला-पुरुष की बाइनरी में ही समझा जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में पढ़ाने वाले टीचर्स की भी जेंडर के प्रति कोई खास समझ नहीं होती क्योंकि वे स्वयं उसी सामाजिक व्यवस्था से संबंध रखते हैं जिसे बदलने की कोशिश की जानी चाहिए। स्कूलों में होने वाली तमाम गतिविधियों में जेंडर के नज़रिये के लिए कोई जगह नहीं होती है।

ग्रामीण परिवेश में स्कूली पढ़ाई का अनुभव बताते हुए पल्लवी कहती हैं, “गांवों के स्कूलों में एक सामाजिक दबाव में पढ़ाई होती है जहां सब बने-बनाए ढांचे के हिसाब से होता है। अकसर स्कूलों में टॉक्सिक माहौल बनाया जाता है जहां एक लड़के की लड़की के साथ बेंच पर बैठने के लिए पिटाई कर दी जाती है। जब मैं दिल्ली विश्वविद्यालय पहुंची तो मेरे लिए क्वीयर समुदाय के बारे में जानना आश्चर्य की बात थी। मेरे स्कूल में एक भी ऐसा मौका नहीं रहा जहां इस पर बात हुई हो।”

राजस्थान में दो साल तक पढ़ा चुकी कनिका बताती हैं, “अध्यापक कमजोर बी.एड के चलते बच्चों को प्रोग्रेसिव तरीके से पढा़ने में सक्षम नहीं हैं, उन्हें इस बात की जानकारी ही नहीं होती कि स्कुलों में किसी तरीके के बदलाव की जरूरत है। जिन लोगों को जानकारी है, उन पर सामाजिक ढांचे के अनुसार पढा़ने का दबाव होता है। एक बार मैंने बोर्ड पर धारा 377 लिख दिया था तो स्कूल की प्रिंसिपल को इस चीज़ से काफी समस्या हुई और मुझे स्कूल प्रशासन साथ विवाद का सामना करना पड़ा। स्कूलों में सुधारवादी नज़रिया नहीं है।”

सेक्स एजुकेशन का अभाव

सेक्स जुकेशन हमारे शरीर को सही तरीके से समझने के लिए जरूरी है। शरीर से जुड़ी रूढ़ियों को खत्म करने और जेंडर के आधार पर बनाई गई तमाम धारणाओं को खत्म करने के लिए स्कूलों में बेसिक सेक्स एजुकेशन दी जानी चाहिए। इससे बच्चे न सिर्फ अपने शरीर के बारे में सही से जानेंगे बल्कि उनमें दूसरे जेंडर के प्रति समझ बढे़गी। लेकिन हालात ये हैं कि सेक्स जुकेशन हमारे स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा ही नहीं हैं। इसका एक परिणाम ये है कि आज भी ये माना जाता है कि महिलाएं पीरियड्स में अशुद्ध हो जाती हैं।  

हरियाणा के सरकारी स्कूल में पढा़ने वाली अध्यापिका कमला देवी बताती हैं, “क्लासरूम के अंदर टीचर्स स्वयं प्रजनन पढ़ाने में सहज नहीं होते हैं। इस विषय पर टीचर्स के पास कोई ट्रेनिंग ही नहीं है कि बच्चों को कैसे पढा़या जाना चाहिए। बच्चे जिस सामाजिक परिवेश से आते हैं उसके लिए पहले उन्हें मानसिक रूप से तैयार करने की जरूरत होती है ताकि जो पढ़ाया जा रहा है उसमें वे सहज हो सकें। स्कूलों में सेक्स ऐजुकेशन का नाम लेना ही अपने आप समस्या पैदा कर सकता है। टीचर्स भी उतने ही अनजान है जितने की बच्चे।”

पीरियड्स पर बात करने के लिए क्लासरूम के दरवाजे बंद किए जाते हैं। विज्ञान की किताबों में दिए गए प्रजनन विषय को  लड़के और लड़कियों को अलग अलग करके पढ़ाया जाता है। किशोरावस्था के दौरान बच्चे शारीरिक और मानसिक बदलाव महसूस करते हैं, इन बदलाव को सही तरीके से समझने और अपनाने के लिए जरूरी है कि बच्चों को सही तरीके से स्कूलों में पढ़ाया जाए। 

सरकारी स्कूल से पढी़ तमन्ना कहती हैं, “जब मैं स्कूल में थी तो हमें बेसिक सेक्स जुकेशन के बारे में नहीं बताया गया। किशोरावस्था के दौरान मैंने जो बदलाव अपने अंदर महसूस किए उसे मैं एक लंबे समय तक नहीं समझ पाई और न ही स्वीकार कर पाई। मैं असहज महसूस करती थी जिसका प्रभाव मेरे आत्मविश्वास  पर पड़ा। मेरे लिए अब भी पीरियड्स पर खुले तौर पर बात करना मुश्किल है।“

घरों में ऐसे कोई अवसर नहीं होते जिसके चलते बच्चे अपनी किशोरावस्था को सही तरीके से समझ सके। ऐसे में स्कूलों में बुनियादी तौर पर बच्चों को शिक्षा दी जानी बहुत आवश्यक है, पर असलियत यही है कि स्कूल और घरों के माहौल में बहुत अंतर नहीं है। स्कूलों में परीक्षा पास करवाने के लिए किताबी जानकारियां तो दी जा रही हैं, पर बच्चों में किसी तरीके की सामाजिक समझ पैदा नहीं हो रही है। स्कूली शिक्षा में हर स्तर पर समस्याएं हैं जिन्हें अनदेखा नहीं  किया जा सकता है। बच्चों को रूढ़ियों से दूर करने से पहले पढाने वाले अध्यापकों को रूढ़ियों से मुक्त करने की जरूरत है। पाठ्यक्रम में सेक्स ऐजुकेशन, जेंडर, समानता आदि विषय जोड़ने से लेकर टीचर ट्रेनिंग में बच्चों की ज़रूरतों के हिसाब से बदलाव करने की ज़रूरत है। ये सुधार व्यक्तिगत स्तर पर कभी नहीं किए जा सकते हैं इसके लिए नीतियां बनाने वालों के प्रयासों और सरकारी इच्छा शक्ति की ज़रूरत है।


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