असमानता और शोषण की लड़ाई में समाज के जिस पहलू पर सबसे ज्यादा भरोसा किया जाता है, वह है हमारा न्यायिक व्यवस्था और अदालतें। जब भी हाशिये पर रह रहे समुदायों की बात होती है, तो भले समाज और लोगों का नजरिया समावेशी न रहा हो, लेकिन न्याय की उम्मीद और राहत हमें अदालतों से ही मिलती है। लेकिन कई बार न्यायपालिका भी खुद को सामाजिक धारणा से अलग नहीं कर पाती। कई बार सामाजिक मुद्दों पर न्यायपालिका का; न्याय की मांग करते लोगों के प्रति दृष्टिकोण में पितृसत्ता, सामाजिकता और नैतिकता हावी हो जाती है। हम हर साल बार-बार अदालतों के परेशान करने वाले निर्णयों और बयानों को देखते हैं जो लैंगिक भेदभाव का समर्थन या बढ़ावा देते हैं। उदाहरण के भारतीय न्यायालयों के घरेलू हिंसा और दहेज के कानून के संदर्भ में महिला-विरोधी टिप्पणियां शोषण और रूढ़िवादी सोच को बढ़ावा देने का काम कर सकती है।
हाशिये के लोग पहले ही अपने खिलाफ होने वाली हिंसा को रिपोर्ट करने से बचते हैं, या नहीं कर पातें। अगर न्यायालयों का रवैया समावेशी न हो, तो जिस जगह से हमें न्याय की उम्मीद होती है, उससे लोगों का मुंह मोड़ना स्वाभाविक है। जब न्यायालय ही ऐसी मानसिकता दिखाने लगे, तो सर्वाइवर किधर का रुख़ करें? साल 2023 में भी हमें भारतीय अदालतों के कई फैसलों से पितृसत्तात्मक मानसिकता और रूढ़िवादी सोच की झलक दिखाई दी। यह मानसिकता महिलाओं और हाशिये पर रह रहे समुदायों के खिलाफ अपराधों को बढ़ावा देने और उनके न्याय पाने के तरीके को प्रभावित करती है। इस लेख में हम साल 2023 में भारतीय न्यायालयों के दिए गए कुछ मुख्य निर्णयों और टिप्पणियों पर नज़र डालेंगे जहां पितृसत्ता की झलक मिली।
1. महिलाएं मतभेद होने पर पुरुष साथी पर बलात्कार का केस कर देती हैं-उत्तराखंड हाई कोर्ट
उत्तराखंड हाई कोर्ट ने जुलाई में एक व्यक्ति के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही को रद्द करते हुए यह टिप्पणी की, जिस पर एक महिला ने शादी से इनकार करने के बाद आरोपी पर बलात्कार का आरोप लगाया था। कोर्ट ने कहा कि बलात्कार के कानून का गलत इस्तेमाल आजकल महिलाएं तब कर रही हैं जब उनका किसी पुरुष साथी के साथ मतभेद हो जाता है। उच्च न्यायालय की ओर से इस तरह का बयान पीड़ित महिलाओं की कमर तोड़ने का काम करता है। न्यायालय का यह बयान उस रूढ़िवादी मानसिकता को बढ़ावा देता है, जिसके अनुसार यह धारणा पुख्ता हो जाती है कि हिंसा की शिकायत करने वाली महिलाएं अक्सर झूठ का सहारा लेती हैं। साथ ही, कोई भी पुरुष बिना महिला के बढ़ावा दिए, उसके साथ शारीरिक संबंध नहीं बना सकता। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की 2020 की रिपोर्ट मुताबिक, अंतिम रिपोर्ट में बलात्कार की जांच के तहत सभी मामलों में से 8 प्रतिशत से भी कम मामले ‘झूठे’ पाए गए। एनसीआरबी की साल 2021 की रिपोर्ट बताती है कि भारत में दर्ज कुल 31,677 बलात्कार के मामलों में से केवल 4,009 मामलों में ‘अंतिम रिपोर्ट झूठी’ स्थिति में समाप्त हुई। कथित तौर पर, 2021 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण डेटा में कहा गया है कि बलात्कार के 99 प्रतिशत मामले रिपोर्ट नहीं किए जाते हैं।
हमारे पितृसत्तात्मक समाज में जब भी कोई महिला यौन हिंसा की बात बताती है, तब समाज के लोगों का एक वर्ग अक्सर यही मानता है कि वह झूठ बोल बोल रही है या महिलाएं ‘झूठे मामले’ दर्ज कराती हैं। यही वजह है कि हमारे यहां बलात्कार और उत्पीड़न के अनगिनत ऐसे मामले हैं जो दर्ज ही नहीं होते। यह मानसिकता कि महिला झूठ बोल रही है या झूठा मामला बना रही है, महिलाओं के खिलाफ हिंसा को बढ़ावा देने का काम करती है। केस हार जाना या सबूतों के आभाव में केस का बंद हो जाना यह साबित नहीं करता कि महिला झूठ का सहारा ले रही हैं। न्यायालयों की ओर से इस प्रकार की टिप्पणियां आरोपी का मनोबल बढ़ाती हैं।
2. दहेज कानून के दुरुपयोग से फैलाया जा रहा है कानूनी आतंकवाद- कलकत्ता हाई कोर्ट
अगस्त के महीने में कलकत्ता हाई कोर्ट ने हिंसा और दहेज़ के एक मामले की सुनवाई के दौरान टिप्पणी की कि कुछ महिलाओं ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 498ए का दुरुपयोग करके ‘कानूनी आतंकवाद’ फैलाया है। हाई कोर्ट ने एक व्यक्ति और उसके परिवार से उसकी अलग हो चुकी पत्नी के उनके खिलाफ दायर आपराधिक मामलों को चुनौती देने वाले अनुरोध पर सुनवाई करते हुए ये टिप्पणियां कीं। कहा जा सकता है कि अदालत की इन टिप्पणियों में कुछ भी गलत नहीं है। लेकिन कुछ केस के झूठे होने से अदालत को सभी महिलाओं के खि़लाफ़ ऐसी व्यापक टिप्पणी से बचना चाहिए। इस तरह सभी महिलाओं के लिए ‘कानूनी आतंकवाद’ कहना ग़लत है। इससे महिलाओं के अधिकारों को ही नुकसान पहुंचता है। साथ ही पहले से ही चले आ रहे नैरेटिव कि महिलाएं झूठे केस दायर करती हैं, इसे मज़बूती मिलती है।
3. 17 महीने की उम्र में माँ बन जाने से फ़र्क़ नहीं पड़ता- गुजरात हाई कोर्ट
गुजरात हाई कोर्ट ने एक नाबालिग बलात्कार सर्वाइवर के 7 महीने से अधिक के गर्भवस्था को खत्म करने से जुड़ी याचिका के मामले की सुनावाई के दौरान ‘मनुस्मृति’ का हवाला देते हुए कहा कि अतीत में लड़कियों की शादी 14 से 16 साल की उम्र में कर दी जाती थी। 17 साल की उम्र में वह कम से कम एक बच्चे की माँ बन जाती थी। मामले की सुनवाई करते वक्त न्यायाधीश समीर दवे ने कहा कि लड़कियां, लड़कों के मुकाबले जल्दी समझदार हो जाती हैं। 4-5 महीने इधर-उधर हो जाने से ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। न्यायपालिका में शीर्ष पदों पर बैठे न्यायाधीशों का मनुस्मृति जैसे पितृसत्तात्मक किताबों का संदर्भ देना पिछले कुछ वर्षों में अधिक हो गया है। न्यायधीश समय-समय पर मनुस्मृति का हवाला दे कर औरतों के अधिकारों का हनन करते हैं। देखा जाए तो यह ‘मनुस्मृति पठन’ न्याय पाने के लिए एक बाधा है जो भारतीय संविधान के तहत एक आम नागरिक को मिलती है। साथ ही मनुस्मृति को संदर्भित करना संविधान के दिए गए अधिकारों का उल्लंघन भी है। मनुस्मृति में हजारों ऐसी बातें हैं जो जातिवाद और पितृसत्ता को बढ़ावा देती है। एक समान समाज की कल्पना के बजाय ऐसे किताबों का संदर्भ देना रूढ़िवादी सोच है।
4. कुंडली में मंगल दोष की जांच की जरूरत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय
मई महीने में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने बलात्कार के एक मामले में सुनवाई के दौरान एक आदेश देते हुए बलात्कार सर्वाइवर की कुंडली जांच करने को कहा था। लखनऊ बेंच के जस्टिस बृज राज सिंह ने लखनऊ विश्वविद्यालय के ज्योतिष विभाग को सर्वाइवर की कुंडली जांच करने और यह पता लगाने का आदेश दिया था कि वह मांगलिक है या नहीं। दरअसल यह बेंच बलात्कार के मामले में आरोपी के जमानत याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें लड़की ने शिकायत दर्ज की थी कि आरोपी ने शादी का वादा करके उसके साथ यौन संबंध बनाए और बाद में शादी से यह कह कर मना कर दिया कि वह मांगलिक है। न्यायालय को इस मामले में सबसे मुख्य बात जो लगी वह लड़की का मांगलिक होना ही था। हालांकि इस आदेश के सुर्खियों में आने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले पर बाद रोक लगा दिया था। लेकिन अदालत की ओर से ऐसे फैसले या बयान पितृसत्तात्मक सोच दर्शाती है।
5. पति और उसके परिवार के खिलाफ 5 मुकदमों का पैकेज है – मध्य प्रदेश हाई कोर्ट
मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने महिलाओं के दायर मामलों को ‘पांच मामलों का पैकेज‘ कहा, जहां पत्नियां पतियों और उनके परिवार के सदस्यों के खिलाफ अदालतों में कई मामले दायर कर रही हैं। हमारा पितृसत्तात्मक समाज यह बख़ूबी समझता है कि दहेज लेन-देन और घरेलू हिंसा कानूनी रूप से अपराध है। लेकिन वे इस सामान्य ज्ञान को नज़रअंदाज करना चुनते हैं क्योंकि हमारे सामाजिक मानदंडों ने घरेलू हिंसा के प्रति सहनशीलता को ही सामान्य बना दिया है। पति का पत्नी पर हाथ उठा देना घरों में एक ‘नार्मल बात’ मानी जाती है। यदि कोई महिला खुद को बचाने के लिए इस हिंसा के खिलाफ खड़ी हो जाए, तो पैकेज में मुकदमा दायर करने की बात की जा रही है। अदालत की यह सोच पूरी तरह पितृसत्तात्मक है।
6. पत्नी का पति, उसके परिवार के प्रति सम्मान न करना क्रूरता के समान है: एमपी हाई कोर्ट
मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने एक मामले में निर्णय देते हुए कहा है कि अगर पत्नी अपने पति और उसके परिवार के प्रति असम्मानजनक व्यवहार करती है, तो यह पति के प्रति क्रूरता मानी जाएगी। पति ने ट्रायल कोर्ट के समक्ष पत्नी पर आरोप लगाया था कि जिस दिन से उसकी पत्नी ने अपने ससुराल आई हैं, उसने यह कहते हुए सभी की अवज्ञा करना शुरू कर दिया कि वह एक प्रगतिशील लड़की है। याचिककर्ता के अनुसार उसकी पत्नी ने बताया कि न तो रूढ़िवादी परंपराओं को वह पसंद करती है और न ही उनका पालन करती है। इस केस में पत्नी का मुंह दिखाई की रस्म को करने से मना करना उसके ससुरालवालों को अच्छा नहीं लगा। उनका कहना था कि यह पीढ़ियों से चली आ रही रस्म है। वहीं पत्नी का कहना था कि उसे दूसरों को सामने ‘शो पीस’ की तरह नहीं आना। इसके आलावा सास को अपनी बहु का पढ़ाई करना भी पसंद नहीं था। इन बातों के न मानने के कारण पत्नी पर पति के खिलाफ मानसिक क्रूरता के आरोप लगाए गए।
इस केस के निर्णय में मध्य प्रदेश ट्रायल कोर्ट और उच्च न्यायालय की रूढ़िवादी मानसिकता की भरपूर झलक देखने को मिलती है। पति के घर वालों का सम्मान न करना उसके प्रति क्रूरता लेकिन पत्नी के घर वालों का सम्मान न करने पर सबूतों के अभाव की बात कह देना, पितृसत्तात्मक मानसिकता की दलील भी है। घर वालों का सम्मान करने का जिम्मा जितना पत्नी का है, उतना ही पति का भी है। विवाह संबंध में दोनों पक्ष के रिश्तेदारों को सम्मान का समान अधिकार है। न्यायालय के इस फैसले ने और टिप्पणी ने उन लोगों की हिम्मत और बढ़ा दी है जो कि महिलाओं के घरवालों के नाम पर बदसलूकी और दुर्व्यवहार करते हैं और बात-बात पर उसके परिवार की अपमान करते हैं।
7. किशोरियों को यौन इच्छाओं पर नियंत्रण रखना चाहिए – कलकत्ता हाई कोर्ट
पिछले दिनों कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश चित्त रंजन दाश और पार्थ सारथी सेन की पीठ ने कहा कि किशोर लड़कियों को अपने यौन इच्छाओं पर नियंत्रण रखना चाहिए। उच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी एक लड़के की अपील पर सुनवाई करते हुए की थी, जिसे यौन हिंसा के अपराध में 20 साल जेल की सजा सुनाई गई थी। उच्च न्यायालय ने लड़के को यह कहते हुए बरी कर दिया था कि यह दो किशोरों के बीच गैर-शोषणकारी सहमति से किए गए यौन संबंध का मामला था। हालांकि सर्वाइवर की उम्र को देखते हुए सहमति महत्वहीन है। उच्च न्यायालय ने एक व्यक्ति को बरी करते हुए ये टिप्पणी की, जिसे एक नाबालिग लड़की के साथ बलात्कार का दोषी ठहराया गया था, जिसके साथ उसका ‘रोमांटिक संबंध’ था।
8. महिला को “लैंगिक संवेदीकरण परामर्श” की जरूरत: केरल उच्च न्यायालय
इसी साल केरल उच्च न्यायालय ने एक महिला को “लैंगिक संवेदीकरण परामर्श” के लिए जाने का निर्देश दिया गया था, क्योंकि उसके समलैंगिक साथी ने आरोप लगाया था कि संबंध के लिए विरुद्ध उसके माता-पिता ने उसे गैर कानूनी रूप से हिरासत में लिया था। हालांकि इसके बाद, सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश पर रोक लगा दी।
9. अगर पत्नी की उम्र है 18 साल या उससे ज़्यादा है, तो पति पर नहीं लगा सकते मैरिटल रेप का आरोप: इलाहाबाद हाई कोर्ट
हाल ही में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने मैरिटल रेप के मामले में एक व्यक्ति को इस आधार पर बरी कर दिया कि उसकी पत्नी की उम्र 18 साल से ज़्यादा थी। कोर्ट ने कहा कि अगर महिला की उम्र 18 साल या उससे ज़्यादा है, तो पति पर मैरिटल रेप का आरोप नहीं लगाया जा सकता है। रिपोर्ट के अनुसार जस्टिस राम मनोहर नारायण मिश्रा की बेंच ने 2017 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया जिसमें कहा गया था कि 15 से 18 साल की पत्नी के साथ यौन संबंध बलात्कार के बराबर है। यह भी नोट किया गया कि बलात्कार कानून (भारतीय दंड संहिता की धारा 375) में 2013 का संशोधन पति और पत्नी के बीच किसी भी ‘अप्राकृतिक’ अपराध को मान्यता नहीं देता है। अदालत ने कहा कि जब तक सुप्रीम कोर्ट मैरिटल रेप को अपराध घोषित करने की याचिकाओं पर विचार कर और उन पर फैसला नहीं सुनाता, तब तक इसके लिए कोई आपराधिक दंड नहीं हो सकता है।