एक लोकतांत्रिक देश में उसकी न्यायिक प्रणाली बहुत महत्व रखती है क्योंकि यह संविधान की रक्षक होती है और लोगों के जीवन और सोच को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। सरकारों को समय-समय पर याद दिलाती है कि उनके पास असीमित शक्तियां नहीं हैं, उनसे भी ऊपर संविधान है। साल 2023 में अदालतों की ओर से कई फैसले आए जो प्रगतिशील समाज के लिए जरूरी थे। वहीं क्वियर समुदाय के लिए राहत भरी कोई ख़बर इन अदालतों से नहीं आ सकी। कुछ फैसले ऐसे जरूर किए गए जो लैंगिक समानता, समाज में समावेशी माहौल को मजबूती देते हैं। आइए नज़र डालते हैं न्यायपालिका के द्वारा लिए गए कुछ प्रगतिशील फैसलों पर।
अनुच्छेद 142 के तहत सुप्रीम कोर्ट के पास है तलाक देने का अधिकार
हिन्दू मैरिज एक्ट के धारा 13बी के तहत तलाक़ के लिए शादीशुदा दंपत्ति सहमति से तलाक की याचिका दायर करते हैं जिसमें छः से लेकर अठारह महीने का कूलिंग पीरियड होता है। अगर इसमें वे तलाक़ के फैसले को बरकरार रखते हैं, तो आगे की कार्यवाही शुरू होती है। 1 मई, 2023 को संविधान पीठ ने शिल्पा शैलेश बनाम वरुण श्रीनिवासन मामले में सर्वसम्मति से फैसला सुनाया कि विवाह के अपूरणीय विघटन की स्थिति में सर्वोच्च न्यायालय हिन्दू मैरिज एक्ट के तरीके से चलने की बजाय सीधा तलाक़ दे सकता है। बेंच ने कहा कि अनुच्छेद 142 के तहत सुप्रीम कोर्ट को दी गई विशेष शक्ति न्याय, समानता और को कायम रखने के लिए है।
माँ की सामाजिक नैतिकता बच्चे के कल्याण से जुड़ा नहीं: केरल हाई कोर्ट
केरल में अलापुज़ाह के फैमिली कोर्ट ने साढ़े तीन साल के बच्चे की कस्टडी उसके पिता को यह मानते हुए दे दी थी कि माँ अपने दोस्त के साथ बातचीत में है। लेकिन पति से पत्नी ख़राब रिश्ते के चलते अलग हुई थी। फैमिली कोर्ट की निम्न टिप्पणी की निंदा करते हुए केरल हाई कोर्ट ने बच्चे की कस्टडी माँ को दी और साथ ही जस्टिस एम मोहम्मद मुश्ताक और जस्टिस सोफी थॉमस की बेंच ने बेहद जरूरी टिप्पणी की। यह कहा गया कि किसी व्यक्ति को समाज द्वारा नैतिक रूप से दोषपूर्ण माना जा सकता है। लेकिन जरूरी नहीं कि यह बच्चों के कल्याण के लिए हानिकारक हो। नैतिकता, जैसा कि समाज द्वारा परिभाषित है, जरूरी नहीं कि माता-पिता-बच्चे के रिश्ते में ही प्रकट हो। फैमिली कोर्ट के इस्तेमाल की गई भाषा का भी बेंच ने विरोध किया।
सुप्रीम कोर्ट ने मलयालम समाचार चैनल मीडियावन पर केंद्र के प्रतिबंध को किया रद्द
सुप्रीम कोर्ट ने मलयालम समाचार चैनल मीडियावन के लाइसेंस को नवीनीकृत करने से केंद्र के इनकार को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि बिना ठोस सामग्री के यहां उठाई गई राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं का प्रेस की स्वतंत्रता पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। साल 2022 में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने चैनल पर दिखाई जा रही सूचना को राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देते हुए मीडिया ग्रुप का लाइसेंस फिर से चालू नहीं किया जिससे उनकी कार्यशीलता पर असर हुआ। केंद्र ने मीडिया ग्रुप पर बैन करने के कारणों को सील कवर किया था जिसे सिर्फ अदालत देख सकती थी। जब केरल हाई कोर्ट में इस बैन के खिलाफ याचिका दायर की गई, तो बैन नहीं हटाया गया। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय में केरल हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ मामला गया और बैन हटाते हुए चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि केंद्र प्रेस की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन करने के लिए अप्रमाणित ‘राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं’ का उपयोग नहीं कर सकता।
बॉम्बे हाई कोर्ट का प्रगतिशील फैसला
बॉम्बे हाई कोर्ट ने एक एफआईआर को ख़ारिज किया था जो पांच व्यक्तियों के खिलाफ थी जिसमें उन पर नागपुर के एक रिसॉर्ट में महिलाओं द्वारा तथाकथित अश्लील डांस देखने के लिए की गई थी। इस केस की सुनवाई करते हुए, एफआईआर खारिज करते हुए जस्टिस विनय जी जोशी और जस्टिस वाल्मीकि एसए मेनेसेज ने महत्वपूर्ण टिप्पणियां की। छोटी स्कर्ट पहनना, उत्तेजक नृत्य करना या इशारे करना अपनेआप में ‘अश्लील हरकतें’ नहीं कही जा सकतीं, जो जनता को परेशान करे। अदालत ने कहा कि इस तरह के कृत्य का आकलन पुलिस अधिकारी की निजी राय से नहीं किया जा सकता। ‘ऐसी पोशाकें अक्सर उन फिल्मों में देखी जाती हैं जो सेंसरशिप से गुजरती हैं या किसी भी दर्शक को परेशान किए बिना व्यापक सार्वजनिक दृश्य में आयोजित सौंदर्य प्रतियोगिताओं में देखी जाती हैं’ और आईपीसी की धारा 294 (अश्लील हरकतें या गाने) वर्तमान स्थिति में लागू नहीं होंगी।
सेरोगेसी से बनी माँ को है मातृत्व अवकाश का अधिकारः राजस्थान हाई कोर्ट
सेरोगेसी से दो जुड़वां बच्चों की मां ने कोर्ट में एक याचिका दायर की जिसकी सुनवाई में राजस्थान हाई कोर्ट की जयपुर बेंच ने यह कहा कि सेरोगेसी से बनी माँ को भी मातृत्व अवकाश पर जाने का अधिकार है। कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि सेरोगेसी से बनी माँ को अवकाश न देना अनुच्छेद 21 के तहत उनके जीवन के अधिकार का उलंघन है। कोर्ट ने कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा, अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार में मातृत्व का अधिकार और प्रत्येक बच्चे के पूर्ण विकास का अधिकार भी शामिल है। यदि सरकार गोद लेने वाली माँ को मातृत्व अवकाश प्रदान कर सकती है, तो सरोगेसी प्रक्रिया के माध्यम से बच्चे को जन्म देने वाली माँ को मातृत्व अवकाश देने से इनकार करना पूरी तरह से अनुचित होगा।
सुप्रीम कोर्ट ने POSH के प्रभावी कार्यान्वयन के लिए राज्यों में जिला अधिकारियों की नियुक्ति का आदेश दिया
सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के प्रधान सचिवों को कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम के प्रभावी कार्यान्वयन की निगरानी के लिए चार सप्ताह के भीतर हर जिले में एक अधिकारी की नियुक्ति सुनिश्चित करने का निर्देश दिया। न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट और न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता की पीठ ने हर राज्य के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय को निर्देश दिया कि वह पॉश अधिनियम के तहत निगरानी और सहायता के लिए विभाग के भीतर एक ‘नोडल व्यक्ति’ की पहचान करने पर विचार करें। कोर्ट ने यह भी कहा कि यह व्यक्ति इस अधिनियम और इसके कार्यान्वयन से संबंधित मामलों पर केंद्र सरकार के साथ समन्वय में काम करने में भी सक्षम होगा।
आत्म-सम्मान विवाह के लिए सार्वजनिक अनुष्ठान या घोषणा की आवश्यकता नहीं है: सुप्रीम कोर्ट
जीवन साथी चुनने के किसी के अधिकार की पुष्टि करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के राज्य संशोधन के संदर्भ में तमिलनाडु में ‘आत्म-सम्मान’ विवाह की सार्वजनिक अनुष्ठापन या घोषणा की आवश्यकता नहीं है, जो एक जोड़े को इसकी अनुमति देता है। इसे पुजारी की अनुपस्थिति में लिखित या मौखिक घोषणा के माध्यम से किया जा सकता है। न्यायमूर्ति एस.आर. की अध्यक्षता वाली पीठ भट्ट ने मई 2023 के मद्रास उच्च न्यायालय के फैसले को रद्द करते हुए यह टिप्पणी की, जिसमें कहा गया था कि स्व-विवाह समारोह को गुप्त रूप से नहीं किया जा सकता है और एक वकील ऐसी शादी में शामिल नहीं हो सकता है। अदालत ने कहा कि शादी करने का इरादा रखने वाले जोड़े पारिवारिक विरोध या अपनी सुरक्षा के डर सहित विभिन्न कारणों से सार्वजनिक घोषणा करने से बच सकते हैं। पीठ ने कहा, ऐसे मामलों में, सार्वजनिक घोषणा को लागू करने से जीवन खतरे में पड़ सकता है और संभावित रूप से मजबूरी में अलग होने की स्थिति हो सकती है।
2023 में सर्वोच्च न्यायालय ने जेंडर स्टीरियोटाइप्स पर एक हैंडबुक भी जारी की थी जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे शब्दों की एक संकलित शब्दावली जारी की, जिनसे न्यायाधीशों को आदेश लिखते समय बचना चाहिए और वकीलों को मामले दायर करते समय दूर रहना चाहिए। इसका उद्देश्य लैंगिक रूढ़िवादिता को दूर करना है जो न केवल अपमानजनक और रूढ़िवादी हैं बल्कि अदालतों के निर्णयों को भी कमजोर कर सकते हैं। इसका उद्देश्य लिंग के आधार पर रूढ़िवादिता को सक्रिय रूप से चुनौती देना और दूर करना है।