हाल ही में गुरुग्राम में एक घर में काम करने वाली नाबालिग लड़की के साथ हिंसा की खबर सामने आई। सर्वाइवर लड़की को कथित रूप से परिवार के तीन लोगों ने बंधक बना रखा था, जिसमें एक महिला और उसके 30 वर्षीय वयस्क बेटे भी शामिल थे। उन्होंने कथित तौर पर उसे तेजाब से जलाया, उसे नग्न होने के लिए मजबूर किया, उसका वीडियो बनाया था और उसका यौन शोषण किया था। साथ ही उसके साथ गंभीर रूप से शारीरिक चोट पहुंचाई गई और परिवार ने अपने कुत्ते को उसे काटने के लिए भी उकसाया। यह केवल कम उम्र के लोगों को रोजगार में रखने का जुर्म और यातना देना नहीं है, बल्कि अपर्याप्त वेतन और अधूरी बुनियादी मानवीय जरूरतों का दैनिक संघर्ष भी है, जिससे अनौपचारिक क्षेत्र के में आवश्यक सेवाएं प्रदान करने वाले लोगों को गुजरना पड़ता है।
POSCO अधिनियम के तहत बढ़ते अपराध
हालिया समय में नाबालिग बच्चों के साथ ऐसे कई अपराध सामने आए हैं। घरेलू दायरे में हुए अपराध न सिर्फ बच्चों को मजदूर के रूप में काम करने को मजबूर करते हैं, बल्कि उनके साथ यौन, शारीरिक और मानसिक हिंसा होने की संभावना को बढ़ाते हैं। सीधे तौर पर यह उनके शिक्षा और बचपन को नुकसान पहुंचाते हैं। टाइम्स ऑफ़ इंडिया में छपे लेख के अनुसार, साल 2022 में बच्चों के खिलाफ अपराध से संबंधित कुल 63,414 घटनाएं दर्ज की गईं और जिसकी कुल अपराध दर 14.3 थी। 2022 में, POSCO अधिनियम की धारा 4 और 6 (प्रवेशक यौन उत्पीड़न के लिए सजा) के तहत कुल 38,444 पीड़ितों को पंजीकृत किया गया था, जो 2021 में 33,348 की तुलना में अधिक है। इन मामलों में, 38,030 लड़कियां थीं और 414 लड़के थे।देश भर में, उत्तर प्रदेश में 2022 में सबसे अधिक POSCO के तहत मामले दर्ज किए गए।
बच्चों के खिलाफ हिंसा चिंता का मामला
बच्चों के खिलाफ बढ़ने वाली हिंसा चिंता का विषय है। सरकार समय-समय पर इससे निपटने के लिए नए-नए नियम और क़ानून लाती रहती है। लेकिन उन नियमों और क़ानूनों के लागू होने के बावजूद बच्चों के खिलाफ होने वाली हिंसा में कमी नहीं हुई है। न्यायालय भी बढ़ते मामलों से भरे जा रहे हैं। मामलों के निपटने की दर मामलों के दर्ज होने की दर से काफी कम है। इंडिया चाइल्ड प्रोटेक्शन फंड (आईसीपीएफ) की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार यदि देश की POCSO अदालतों में कोई नया मामला नहीं जुड़े, तब जा कर देश को बैकलॉग निपटाने में कम से कम नौ साल लगेंगे। अरुणाचल प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में लंबित मामलों को बंद करने में 25 साल से अधिक का समय लग सकता है।
क्या फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट से मिली है राहत
चाइल्ड सेक्सुअल एब्यूज (सीएसए) में चिंताजनक वृद्धि और निपटान की धीमी दर, देश भर में सीएसए के पीड़ितों को त्वरित सुनवाई और न्याय प्रदान करने के लिए फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट (एफटीएससी) के गठन के मूल में थी। मामलों का लंबे समय तक लंबित रहने की प्रवृत्ति को देखते हुए, भारत सरकार ने बलात्कार और POCSO अधिनियम से संबंधित मामलों की समयबद्ध सुनवाई और निपटान के लिए देश भर में 389 विशिष्ट POCSO (ePOCSO) अदालतों के साथ 1023 फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट (FTSCs) स्थापित करने के लिए अक्टूबर 2019 में एक केंद्र प्रायोजित योजना लागू करना शुरू किया।
फास्ट ट्रैक कोर्ट के पहल में देरी
फास्ट ट्रैक अदालतों को अक्सर भारत में ‘सामान्य’ अदालतों के कामकाज में होने वाली व्यापक देरी के समाधान के रूप में एक हल माना गया है। खासकर ऐसे समय में जब पिछले कई वर्षों में महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराध में कथित रूप से वृद्धि हो रही है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान, दिसंबर 2012 में दिल्ली बलात्कार मामले से लेकर महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा के कई अत्यधिक प्रचारित मामलों के मद्देनजर, न्याय सुनिश्चित करने के समाधान के रूप में और महिलाओं और बच्चों के खिलाफ यौन हिंसा के मामलों में रोकथाम के लिए फास्ट ट्रैक अदालतों को तेजी से प्रस्तावित किया गया। भारत भर में राज्य सरकारों ने महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा के मामलों की सुनवाई के लिए फास्ट ट्रैक अदालतें स्थापित करने की पहल की है। इन अदालतों का उद्देश्य विशेष रूप से POCSO के तहत मामलों से निपटना था। उस समय, कानूनी और बाल अधिकार विशेषज्ञों ने आगाह किया था कि केवल फास्ट-ट्रैक अदालतें स्थापित करने से मदद नहीं मिलेगी, जबतक कि न्यायाधीशों की पर्याप्त संख्या में नियुक्ति नहीं की जाती या सार्वजनिक अभियोजकों को ऐसे मामलों से निपटने के लिए प्रशिक्षित और संवेदनशील नहीं बनाया जाता।
क्या कहती है रिपोर्ट
आईसीपीएफ के एक अध्ययन ‘जस्टिस अवेट्स- अन अनैलिसिस ऑफ द एफ़िकेसी ऑफ द जस्टिस डेलीवेरी मेकॅनिज़म इन केसेस ऑफ चाइल्ड सेक्शुअल अब्यूज़ इन इंडिया के अनुसार 2022 में POCSO अधिनियम के तहत केवल 3 फीसद मामलों में सजा हुई है। 2022 में प्रत्येक फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट (एफटीएससी) द्वारा औसतन केवल 28 पोक्सो मामलों का निपटारा किया गया, जबकि प्रत्येक मामले के निपटान के लिए औसत व्यय 2.73 लाख रुपये था। शोध के अनुसार देश में 1,000 से अधिक ऐसी अदालतों में प्रत्येक में इतने ही मामलों का निपटान किया गया जबकि शुरुआत में प्रति वर्ष 165 मामलों के निपटान की कल्पना की गई थी। 31 जनवरी, 2023 तक फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट (FTSCs) में 2.43 लाख से अधिक POCSO मामलों की सुनवाई लंबित है।
न्याय पाने के लिए करना होगा इंतज़ार
कई राज्यों में लंबित मामलों की संख्या इतनी अधिक है कि महाराष्ट्र में पोक्सो मामले में एक बच्चे को न्याय मिलने में साल 2036 तक का समय लग सकता है। इस साल जनवरी तक, राज्य में फास्ट-ट्रैक अदालतों में ऐसे 33,073 मामले लंबित थे। आंध्र प्रदेश में, एक शिकायतकर्ता को साल 2034 तक इंतजार करना होगा क्योंकि राज्य में 8,137 मामले लंबित हैं, जबकि राजस्थान और झारखंड में 8,921 और 4,408 मामलों के साथ साल 2033 तक का समय लगेगा। अरुणाचल प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में लंबित मामलों को बंद करने में 25 साल से अधिक का समय लग सकता है। कर्नाटक में 919 और गोवा में 62 लंबित मामले हैं जहां साल 2024 तक न्याय की उम्मीद कर सकता है। प्रत्येक एफटीएससी से एक तिमाही में 41-42 मामलों और एक वर्ष में कम से कम 165 मामलों का निपटान करने की उम्मीद की गई थी। आंकड़ों से पता चलता है कि योजना शुरू होने के तीन साल बाद भी एफटीएससी निर्धारित लक्ष्य हासिल करने में असमर्थ हैं।
समस्या को क्यों किया जा रहा है नजरंदाज
बाल यौन शोषण और बलात्कार एक चिंताजनक राष्ट्रीय संकट है। भारत की न्यायायिक प्रणाली की अपर्याप्तता और कार्यशीलता के कमी के कारण शारीरिक, मानसिक, यौन शोषण और बलात्कार के शिकार बच्चों को न्याय नहीं मिल पा रहा है। कानून कहता है कि यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (POCSO) अधिनियम के तहत मामलों की सुनवाई 1 साल में पूरी की जाएगी और बलात्कार के मामलों की सुनवाई 2 महीने में पूरी की जाएगी। इसके लिए आवश्यक है कि जटिल आपराधिक न्याय प्रणाली से निपटने और न्याय की लड़ाई जारी रखने के लिए बाल सर्वाइवरों को मुआवजा, मानसिक स्वास्थ्य और कानूनी सहायता दी जाए। हालांकि बाल यौन शोषण के मामलों में कानून और इसके कार्यान्वयन के बीच एक समस्या दिखाई दे रही है। हजारों बाल यौन शोषण के मामले दर्ज ही नहीं हो पाते। सर्वाइवरों को अक्सर सामाजिक रूढ़िवाद, समर्थन की कमी और इस तथ्य के आधार पर चुप करा दिया जाता है कि अपराधी उन्हें और परिवार को जानता है, जिससे अधिकांश सर्वाइवर अपराध की रिपोर्ट करने से डरते हैं। समाज में विशेषाधिकार, बुनियादी सुविधाओं तक पहुंच भी मामले दर्ज न करने में एक अहम भूमिका निभाती है। जरूरी है कि हम बच्चों को काम पर रखने वालों के खिलाफ सख्ती से पेश आए। ऐसे मामलों में नागरिक समाज भी समय पर अपराध की खबर कर अहम भूमिका निभा सकता है। जरूरी है कि हम अपराध के गंभीरता को नजरंदाज न करें और इसपर रिपोर्ट के मामले में सर्वाइवर या उसके परिवार पर किसी भी प्रकार का दवाब का कारण न बने इसके लिए सामूहिक रूप से मदद करें।