‘तुम्हारें कपड़े पहने का तरीका सही नहीं है’, ‘हर वक्त अपनी मर्जी नहीं चलती है’, ‘इस तरह से कपड़े तो फेमिनिस्ट पहनती हैं’ ये कुछ व्यक्तिगत अनुभव है जो मुझे मेरे अपनी पसंद के कपड़े पहने की वजह से अनुभव हुए हैं। हमारे कपड़े हमारी पसंद और सहजता के आधार पर होने चाहिए लेकिन पितृसत्ता ने हमेशा स्त्री के कपड़ों पर बंदिश लगाई है। कपड़ा और फैशन महज एक भौतिक ज़रूरत नहीं है बल्कि उससे अलग एक क्रांति भी है। लैंगिक पहचान की वजह से महिलाएं और अल्पसंख्यक समुदाय के लोग अपनी पसंद के कपड़े के लिए इतिहास से लेकर वर्तमान तक संघर्ष करते आ रहे हैं।
कपड़ों का इस्तेमाल केवल अभिव्यक्ति का एक सौंदर्यात्मक रूप नहीं है, बल्कि एक बयान भी है। क्योंकि कपड़े महज हमारी एक ज़रूरत नहीं बल्कि हमारे व्यक्तित्व और विचारधारा को भी जाहिर करते हैं। इनका संबंध राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर भी जुड़ा होता है। नारीवादी आंदोलनों में ‘मेरा शरीर, मेरा अधिकार’ मुख्य मुद्दा रहा है। इतिहास में नज़र डालने पर कपड़ों और नारीवाद के बीच संबंध स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है।
ग्लोरिया स्टीनम का मानना है कि मिडी-स्कर्ट के ख़िलाफ़ उस वर्ष का विद्रोह अमेरिकी फैशन में महत्वपूर्ण मोड़ था। वह कहती हैं, जब हमें मिनी-स्कर्ट्स छोड़कर मिडी के लिए कहा गया तो अमेरिकी महिलाओं की तरफ से अर्द्ध-सचेत बहिष्कार किया गया।
कपड़ों का इस्तेमाल किसी व्यक्ति की लैंगिक पहचान का हिस्सा तो होता ही है साथ ही यह अभिव्यक्ति की आजादी भी है। समय के साथ-साथ बदलते दौर में फैशन का इस्तेमाल किसी विचार या भावना को व्यक्त करने के लिए देखा गया है। बड़े-बड़े मंचों पर राजनीतिक एकता, विरोध, एकजुटता आदि दिखाने के लिए फैशन को हमेशा हथियार बनाया गया है। नारीवादी आंदोलनों के तहत सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए फैशन का इस्तेमाल बहुत क्रांतिकारी स्तर पर किया गया है।
इतिहास से लेकर वर्तमान तक पितृसत्ता ने हमेशा स्त्री के कपड़े, तौर-तरीकों को तय किया है। उनको अपनी पसंद के कपड़े पहनने तक की स्वायत्ता नहीं दी गई है। खुद की पसंद के कपड़े पहनने के लिए उनकी जान तक ली जाती रही है। हमेशा कपड़ों के ज़रिये भी स्त्रियों पर पारंपरिक रीति-रिवाजों के नाम पर रूढ़िवाद को थोपा गया है। आंदोलनों के ज़रिये यह बदलाव आया है। नारीवादी आंदोलन की तीसरी लहर में निजी स्वायत्तता को विशेष महत्व दिया गया। महिलाओं ने उन कपड़ों को त्याग दिया जो उनके चलने-फिरने में बाधा डालते थे या उन्हें कामुक बनाते थे। उन्होंने ऐसे कपड़ों पर जोर दिया जो उनके लिए आरामदायक हो।
कपड़ों से बनता इतिहास
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20वीं सदी की शुरुआत से ही नारीवाद, फैशन से जुड़ गया, क्योंकि वोट देने के अधिकार के आंदोलन के अभियान के लिए सफेद रंग चुना गया था। पूरी सफेद पोशकों को चुनने का मतलब था, अव्यवहारिक पोशाकों को चुनौती देना और सफेद रंग का इस्तेमाल करना विरोधियों के दृष्टिकोण को चुनौती देना भी था। आंदोलन करने वाली महिलाओं ने अपने कपड़ों का प्रतीकात्मक इस्तेमाल भी किया। बैंगनी, सफेद और हरे रंग के कपड़े पहने जो पवित्रता, आशा और वफादारी का प्रतीक हैं। महिला अधिकार आंदोलनों को फैशन के इस्तेमाल से सहायता मिली और बाद में फैशन बात कहने का ज़रिया बना।
इसके साथ-साथ फैशन महिलाओं के उस मुक्ति का रास्ता भी बना जो कपड़ों के ज़रिये पितृसत्ता ने उनपर लादा हुआ था। फैशन के बदलाव ने महिलाओं को उनकी सुविधा के अनुसार कपड़े मुहैय्या कराए। एक सदी पहले तक महिलाओं के पास किसी अंडरगारमेंट का हुक खोलने और उसे अपनी इच्छानुसार त्यागने की सुविधा तक नहीं थी। न ही बयान देने के लिए उसे वे जला सकती थी। जब महिलाएं वोट के अधिकार के आंदोलन कर रही थी, मैरी फेल्प्स जैकब उर्फ कैरेसे क्रॉस्बी नाम की महिला ने उस चीज़ के लिए अपना पेटेंट हासिल कर रही थी जिसे अब ब्रा के तौर पर जाना जाता है। कैरेसी ने महिलाओं को उस समय कोर्सेट से छुटकारा दिलाया। कोर्सेट महिलाओं के बनी एक पारंपरिक ड्रेस थी।
नारीवादी आंदोलनों ने महिलाओं को उनकी पोशाक बदलने और अपना व्यक्तित्व दिखाने का साहस दिया। आंदोलन ने उस बात को भी खत्म कर दिया कि “कपड़े महिला को बनाते है।” साल 1970 से महिला के लिए कपड़े बनाना फैशन बन गया। द न्यू यार्क टाइम्स में प्रकाशित लेख के अनुसार ग्लोरिया स्टीनम का मानना है कि मिडी-स्कर्ट के ख़िलाफ़ उस वर्ष का विद्रोह अमेरिकी फैशन में महत्वपूर्ण मोड़ था। वह कहती हैं, जब हमें मिनी-स्कर्ट्स छोड़कर मिडी के लिए कहा गया तो अमेरिकी महिलाओं की तरफ से अर्द्ध-सचेत बहिष्कार किया गया। हम हर तरह की चालाकी से तंग आ चुके थे। अब सैकड़ों चीजों पर हम अपना फैसला लेना चाहते थे न कि ऊपर से थोपा हुआ।”
1970 और 80 के दशक में पावर ड्रेसिंग उन महिलाओं के बीच लोकप्रिय हो गई जिन्होंने कार्यबल में शीर्ष पायदानों पर काम करना शुरू किया था। इसमें अधिक मर्दाना लुक देने के लिए गद्देदार कंधों के सूट, मैचिंग स्कर्ट और जैकेट पहनने वाली महिलाएं शामिल थीं। हालांकि इसका उद्देश्य पुरुषों जैसे कपड़े पहनने या दिखना नहीं था लेकिन कामकाजी महिलाओं के लिए स्टालिश बनने का एक तरीका बना। समय के साथ-साथ महिलाओं ने अपने पसंद के कपड़े पहनने पर विशेष जोर दिया।
कपड़े, स्लोगन और प्रतिरोध
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फैशन के आधुनिक युग में इसे विरोध, आलोचना का एक ज़रिया भी बनाया जा रहा है। आधुनिक युग में हम अपनी विचारधारा को जाहिर करने के लिए लेबल या स्लोगन से सजे कपड़े पहनने में सहज हो गए हैं। नारीवादी लेबल से बने कपड़े हाल में जितने फैशन में है कोई नहीं है। बड़े-बड़े फैशन आयोजनों या मंचों पर सेलिब्रिटी इस तरह के लेबल लगे कपड़े पहने नज़र आते हैं। नारीवादी नारों से सजे कपड़ों का चलन लगातार बढ़ रहा है।
टोरंटो स्टार में छपी जानकारी के अनुसार नारीवादी नारों की अवधारणा तेजी से आगे बढ़ी है। ‘द फ्यूचर इज़ फीमेल’, ‘दिस इज़ व्हाट ए फेमिनिस्ट’ से सजे कपड़ो से लोग अपने विचारों को सामने रखते नज़र आए हैं। राजनीति में मताधिकार की भावना को जगाने के लिए अक्सर सफेद पैंटसूट पहनती हैं और 70 के दशक की महिलाएं भी सफेद पैंट ही पहनती थीं। डेमोक्रेटिक नैशनल कन्वेंशन में हिलेरी क्लिंटन से लेकर स्टेट ऑफ द यूनियन संबोधन में नैंसी पेलोसी और अलेक्जेंड्रिया ओकासियो-कोर्टेज़ तक ने यह लुक प्रतिरोध की एक परिचित स्वीकृति बन गया है।
1970 और 80 के दशक में पावर ड्रेसिंग उन महिलाओं के बीच लोकप्रिय हो गई जिन्होंने कार्यबल में शीर्ष पायदानों पर काम करना शुरू किया था। इसमें अधिक मर्दाना लुक देने के लिए गद्देदार कंधों के सूट, मैचिंग स्कर्ट और जैकेट पहनने वाली महिलाएं शामिल थीं।
इतना ही नहीं मीटू अभियान के तहत भी सॉलिडेरिटी के तौर पर लोग सर्वाइवर के समर्थम में स्लोगन लगे कपड़े पहने नज़र आएं। फेमिनिस्ट टी-शर्ट भी इस समय का एक ट्रेंड है। ख़ास से लेकर आम आदमी तक अपने विचार जाहिर करने के लिए इन टी-शर्ट का इस्तेमाल कर रहा है। इस तरह से नारीवादी कला, विचारों को फैशन के साथ आगे बढ़ाना एक नया तरीका है जो कलात्मक दृष्टि को बढ़ावा देने के साथ अधिकार, समानता, समावेशी होने के संदेश को भी जाहिर करता है।
नारीवाद की तीसरी लहर में जेंडर और सेक्सुअलिटी के संबंध में भी विचारों का विस्तार हुआ। जहां 2000 का दशक आते-आते यह बहस बनी कि क्या आप नारीवादी और फैशनेबल एक साथ हो सकते हैं। महिला अधिकार आंदोलनों के ज़रिये महिलाओं ने अपनी पसंद की पोशाकों को पहनने के विषय पर अधिक बहस की है और लगातार इस बात को स्पष्ट कर रही है कि एक महिला को यह चुनने का अधिकार है कि वह क्या पहनना चाहती है। नारीवादी विचारधारा के तहत वे सदिया पुराने विचारों को खत्म करने और रूढ़िवादी मानदंड़ों पर सवाल उठा रही है। साथ ही खुद के शरीर और अपनी स्वायत्ता को भी मजबूत कर रही है कि मेरी पसंद मेरा अधिकार है।