“मैं कॉलेज आ पा रही हूं, क्योंकि दिल्ली मेट्रो में एक लेडीज़ कोच है और यह कॉलेज सिर्फ लड़कियों के लिए हैं।” यह बात सुन कर उस समय मैं स्तब्ध रह गई। मेरी पढ़ाई दिल्ली विश्वविद्यालय के एक महिला महाविद्यालय से हुई है और उस दौरान मेरे साथ पढ़ने वाली लड़की ने मुझसे ये बात कही थी। उस समय दिल्ली में मैं नई थी और मुझे नहीं पता था कि दिल्ली मेट्रो का पहला डिब्बा महिलाओं के लिए आरक्षित क्यों है। मुझे लगता था कि किसी भी कोच में यात्रा कर लो, क्या फ़र्क पड़ जाएगा? लेकिन फिर मेट्रो के जनरल कोच में मुझे दो बार यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ा। दिल्ली में जब भी महिलाओं से बात करो तो वे यात्राओं के दौरान ऐसी स्थिति के अनुभव से गुजरी होती हैं।
सार्वजनिक परिवहन बसों और मेट्रो में महिलाओं के लिए सुरक्षित माहौल बनाने के लिए आरक्षित सीटें और मेट्रो में एक डब्बा भी आरक्षित किया गया है। दिल्ली में मेट्रो की शुरुआत साल 2002 में हुई थी और 2010 से दिल्ली मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन ने महिलाओं के सुरक्षित यात्रा के लिए एक डिब्बा आरक्षित करने का कदम उठाया। महिलाओं के लिए यात्राएं सुरक्षित और यौन उत्पीड़न से बचने के लिए इस तरह की नीति लागू की गई। जब बात स्त्री और पुरुष में बराबरी की आती है तो अक्सर पुरुष वर्ग महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों और कोच को लेकर बेतुका तर्क देते नज़र आते हैं।
दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाली अंजली का कहना है कि महिलाओं के लिए इस अलग डिब्बे में यात्रा करना बहुत सुविधाजनक है क्योंकि दिल्ली में हर रोज़ माहिलाओं के साथ उत्पीड़न और हिंसा की खबरें आती हैं। यात्रा के दौरान अगर हमें इस आरक्षित कोच से सुरक्षित महसूस हो रहा है तो इसमें क्या खराबी है?”
गुरुग्राम में काम करने वाली दिव्या, रोजाना दिल्ली से गुरुग्राम तक मेट्रो से यात्रा करती हैं। दिव्या कहती हैं, “ऑफिस आने-जाने के समय में जब मेट्रो में कदम रखने की भी जगह नहीं होती है, तब भी महिलाएं आरक्षित डिब्बों में यात्रा करना चुनती हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि महिलाएं जनरल कोच में असहज महसूस करती हैं। सभी पुरुष ऐसे नहीं होते लेकिन कई बार ऐसा होता है कि कुछ लोग भीड़ का फायदा उठा कर उन्हें असहज कर देते हैं। आप देखती होंगी कि अगर कोई एक पुरुष गलती से महिलाओं के कोच में चढ़ जाता है तो उसे तुरंत बाहर जाने को कह दिया जाता है।”
अक्सर महिलाएं सार्वजनिक परिवहनों में अपने अनुभवों को बयां करते हुए कहती दिखती हैं कि बसों में पुरुष महिलाओं को धक्का देते हैं या उन पर गिरने का नाटक करते हैं। यह महिलाओं को गलत तरीके से छूने का एक बहाना है। वहीं महिलाओं के लिए आरक्षित कोच की नीति लोगों के बीच में बहस का मुद्दा बनी रहती है। किसी को ये महिलाओं का अधिकार लगता है तो किसी को विशेषाधिकार। कोई इसे ज़रूरत से अधिक सुविधा समझता है, तो कोई सुरक्षा और सुविधा का साधन।
महिलाओं को करना पड़ता हैं यौन उत्पीड़न का सामना
दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाली अंजली का कहना है कि महिलाओं के लिए इस अलग डिब्बे में यात्रा करना बहुत सुविधाजनक है क्योंकि दिल्ली में हर रोज़ माहिलाओं के साथ उत्पीड़न और हिंसा की खबरें आती हैं। यात्रा के दौरान अगर हमें इस आरक्षित कोच से सुरक्षित महसूस हो रहा है तो इसमें क्या खराबी है? हम किसी भी तरह के कपड़े पहन कर निकलें, इस कोच के कारण हमें ये डर नहीं रहता है कि हमें यात्रा के दौरान कोई घूरे के असहज करेगा।”
पितृसत्ता और लैंगिक भेदभाव के कारण महिलाओं के लिए यह सोच स्थापित की गई है कि लड़कियों को घर से बाहर भेजना सुरक्षित नहीं हैं। ऐसे में जिन परिवारों में महिलाओं के लिए अधिक बंदिश है वहां ऐसे कदम उन लड़कियों और महिलाओं के लिए किसी वरदान से कम नहीं है। दिल्ली मेट्रो में ये सुविधा होने से परिवारजनों और खुद महिलाओं में भी एक सुरक्षा की भावना है कि जितने देर वो मेट्रो में लेडीज कोच में यात्रा कर रही है वे सुरक्षित हैं।
महिलाओं के लिए सुरक्षित कोच में महिलाओं की बॉडी लैंग्वेज अलग महसूस होती है। वे बेफिक्र नज़र आती हैं। कुछ महिलाएं अपने हेडफोन पर संगीत सुनती हैं या किताब या अख़बार पढ़ती हैं, शायद ही कभी ऊपर देखती हैं। उन्हें किसी के द्वारा यौन हिंसा होने या घूरे जाने के बारे में चिंता करने की ज़रूरत नहीं होती है। समूहों में यात्रा करने वाली महिलाएं अक्सर दोस्तों या सहकर्मियों से मिलते समय ऊंची आवाज़ में बात करती हैं, गपशप करती हैं, हँसती हैं, स्कूल, काम या पारिवारिक समस्याओं पर चर्चा करती हैं, यहां तक कि सेल्फी भी लेती हैं। कुछ लड़कियां थक कर आराम से नीचे ही बैठ जाती हैं। हालांकि दिल्ली मेट्रो में ये प्रतिबंधित है लेकिन इसमें जो आजादी की जो भावना है वो झलक के आती है। मैंने एक बार ऐसे एक समूह से पूछा कि क्या आप ऐसे किसी और डिब्बे में बैठ पाएंगी? उन सब ने एक सुर में कहा, “बिल्कुल नहीं!”
महिला के आरक्षित कोच पर सबकी अलग-अलग राय
इस विषय पर जब पुरुषों से सवाल किया गया तो उन्होंने भी महिलाओं के लिए अलग डिब्बा रखने के पक्ष में अपनी राय रखी। उन्हें न सिर्फ महिलाओं की सुरक्षा बल्कि उनकी सुविधा की भी चिंता थी। कुछ का कहना था कि मैं व्यक्तिगत रूप से चाहता हूं कि महिलाएं हमारे साथ यात्रा करें। इस तरह उन्हें डर नहीं सताता रहेगा। एकमात्र नकारात्मक कारण यह है कि जनरल डिब्बे में बहुत भीड़ होती है और पुरुषों की संख्या अधिक होती है, इसलिए दोनों लिंगों के लिए अलग-अलग यात्रा करना उपयुक्त है।कुछ महिलाओं ने इस बारे में भी बात की है। अमृता, जो कि एक कॉलेज स्टूडेंट हैं, उन्हें महिलाओं के लिए आरक्षित डिब्बे होने से ऐतराज़ है। अमृता का कहना है कि, “अगर हम लड़कियां जनरल डिब्बे में यात्रा करना बंद कर दें तो इससे लड़के और भी अधिक ताकतवर बनेंगे और वे खुद को हमसे बेहतर और श्रेष्ठ महसूस करेंगे।”
23 वर्षीय अनुष्का एक पत्रकार हैं, जिनका कहना है, “मेट्रो का पहला डिब्बा आरक्षित करना महिलाओं को मेट्रो में सुरक्षित महसूस करवाने और मेट्रो में सफ़र करने के लिए बढ़ावा देने के लिए एक अच्छा कदम है, लेकिन समय रहते इसे बदलना चाहिए। इससे यह संदेश जाता है कि महिलाओं को एक ही डिब्बे तक सिमट कर रह जाना चाहिए क्योंकि बाकी डिब्बों में वो सुरक्षित नहीं हैं। वहां उनके साथ बुरी घटना या दुर्रव्यवहार होने की संभावना है।” अगर किसी महिला के साथ मेट्रो में कोई दुर्व्यवहार होता है तो कोई न कोई तुरंत कह देता है कि “तुम्हें आरक्षित कोच में यात्रा करनी चाहिए थी।” अमृत इसी सोच की बात कर रही हैं कि महिलाओं को अधिकार होना चाहिए कि वो आरक्षित डिब्बे ही नहीं बल्कि किसी भी डिब्बे में यात्रा करते हुए सुरक्षित महसूस करें।
दुनिया के अन्य देशों में भी अलग कोच का प्रावधान
दिल्ली एकमात्र ऐसा शहर नहीं है जिसने लैंगिक आधार पर होने वाले दुर्रव्यवहार के ख़िलाफ़ एक सुरक्षित उपाय के रूप में महिलाओं के लिए अलग से ट्रेन, कोच को लागू किया है। बिजनेस इनसाइड में प्रकाशित जानकारी के अनुसार जापान, जर्मनी, मिस्र में काहिरा मेट्रो, रियो डी जनेरियो मेट्रो, फिलीपींस और इंडोनेशिया जैसे देशों में भी ऐसी परिवहन सुविधाएं उपलब्ध हैं। विदेश ही नहीं बल्कि मुंबई और कोलकाता में भी कम्यूटर ट्रेनों में दशकों से महिलाओं की कारें होती हैं। आज दिल्ली मेट्रो को महिलाओं के लिए राजधानी के बाकी सभी यात्रा साधनों से अधिक सुरक्षित माना जाता है। इसके कई कारण हैं, जैसे टाइट सिक्योरिटी और सीसीटीवी सर्विलांस लेकिन इसके साथ एक कारण ये आरक्षित डिब्बा भी है।
इस पर बात होनी जरूरी है कि आरक्षित सुविधाओं के कारण लोगों में महिलाओं के प्रति भेदभाव की भावना और बढ़ रही है। अब ये स्टीरिओटाइप बन गया है कि “मेट्रो में लड़कियों को तो सीट मिल ही जाती है, और पूरा एक डिब्बा भी इन्ही के लिए है।” हालांकि ऐसा कहने वाले लोग अक्सर ये भूल जाते हैं कि मेट्रो में 6 या 8 डिब्बे होते हैं, जिसमें केवल एक महिलाओं के लिए आरक्षित होता है, बाकी 5 या 7 डिब्बों में 95% संख्या पुरुषों की ही होती है।
हालांकि इस सुविधा का एक अनपेक्षित परिणाम है कि कुछ पुरुष सोचते हैं कि महिलाओं को सामान्य डिब्बे में यात्रा ही नहीं करनी चाहिए। जबकि ये आरक्षित कोच महिलाओं को सार्वजनिक रूप से अपना स्थान रखने के अधिकार का दावा करती है। यह अद्भुत होगा यदि पुरुष सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं को परेशान करने की आवश्यकता महसूस किए बिना उनकी उपस्थिति को स्वीकार करना सीख लें। तब हमें महिलाओं के लिए आरक्षित डिब्बे की आवश्यकता नहीं होगी। लेकिन जब तक वे ऐसा नहीं करते, तब तक ये मेट्रो कोच महिलाओं के लिए सार्वजनिक स्थानों पर अपना अधिकार जताने का और सुरक्षित महसूस करने का उनको मौका देता रहेगा। कहने वाले सही कहते हैं कि महिलाओं को अक्सर मेट्रो में सीट मिल जाती है। इसका कारण है कि अगर कोई महिला थकी हुई दिखती है, तो उस कोच में बने निर्धारित सीटों पर ही महिलाएं जगह बना कर उन्हें बैठने के लिए कह देती हैं। ‘वुमन फॉर वुमन’ अगर साक्षात देखना है तो आप इस डिब्बे में देख सकते हैं।