आज के दौर में सौंदर्य उद्योग ने हर किसी के जीवन को प्रभावित किया है; चाहे वह कोई भी लैंगिक पहचान रखता हों। यह जीवन के हर चरण में मौजूद है। यह उद्योग पूरी तरह से आकर्षण पर आधारित है और लोग खुद को बेहतर तरीके से प्रस्तुत करने के लिए सौंदर्य उत्पादों का सहारा लेते हैं। लोगों तक उनकी आवश्यकताओं और नये-नये सौंदर्य उत्पादों को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका प्रचार-प्रसार, विज्ञापन निभाते हैं। लोगों में यह विश्वास दिलाया जाता है कि सुंदरता किसी के बाहरी रूप से प्रदर्शित होती है और सौंदर्य प्रसाधन के द्वारा इसे बेहतर किया जा सकता है। सौंदर्य उद्योग इसी आधार पर अपनी रणनीति बनाता है।
हाल के समय के अनेक सौंदर्य उत्पाद बनाने वाली कंपनियों के विज्ञापन इस तरह के अभियान चलाती नज़र आती हैं जिसमें सुंदरता लोगों को शक्तिशाली बनाती हैं। कई कंपनियां ख़ासतौर पर अपने विज्ञापनों में दर्शाती है कि सुंदरता महिलाओं को आत्मविश्वास से भरती है। सुंदर और आत्मविश्वासी बनने के लिए मेकअप करना ज़रूरी होता है। इन विज्ञापनों में आत्मविश्वास से भरे व्यक्ति की छवि में लंबे घने बाल, सुंदर चेहरे और कम वजन ये सब शामिल होता है। आत्मविश्वास और सशक्तिकरण के नाम पर सौंदर्य उत्पादकों के विज्ञापन पूरी तरह से यूरो सैंट्रिक ब्यूटी स्टैडर्ड को स्थापित करने का काम करते हैं। इस तरह से विज्ञापन सुंदरता के अवास्तविक मानकों पर विश्वास करने के लिए लोगों को मजबूर करते है।
विज्ञापनों में दिखाया जाने वाला सशक्तिकरण सच्चाई से उतना ही अलग है जिनता हो सकता है। ब्यूटी कंपनियां दावा करती है कि ‘फ्रीडम ऑफ च्वाइंस’ सशक्तिकरण के सक्षम बनाती है। खुद की एक आदर्श छवि विकसित करना जो खामियों और कमजोरियों से रहित हो, महिला सशक्तिकरण को कमजोर करती है। इसमें यह दिखाया जाता है कि किसी का भी अपने लुक पर नियंत्रण नहीं है। लोगों को रूढ़िवादी और बाजार के पैमानों पर खरा उतरने का दबाव बनाती है और उनके अंदर अस्वीकृति का डर भरती है।
महिला सशक्तिकरण का विज्ञापन अभियान और मुनाफा
शैंपू, क्रीम, तेल, साबुन बेचने वाली कंपनियां महिला सशक्तिकरण के नाम पर भ्रामक और सुंदरता के रूढ़िवादी पैमानों को बढ़ावा देती नज़र आती हैं। ग्लोबलडेटा के अनुसार दो भारतीय सौंदर्य प्रशाधन ब्रांड लैक्मे और शुगर ने साल 2023 में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस को चिह्नित करने के लिए महिला सशक्तिकरण के मुद्दे को उठाते हुए मार्केटिंग अभियान शुरू किए। इस तरह के लैंगिक समानता के मुद्दों से जुड़ने से भारतीय सौंदर्य प्रसाधन ब्रांडों को उपभोक्ता वफादारी हासिल करने में मदद मिल सकती है।
डेटा और एनालिटिक्स कंपनी के अनुसार महिलाओं के अधिकारों जैसे प्रासंगिक सामाजिक कारणों से जुड़े अभियान से कंपनियां युवा मिलेनियल समूहों के साथ जुड़ रही हैं। यह 16 बिलियन अमेरिकी डॉलर के भारतीय सौंदर्य प्रसाधन और प्रसाधन बाजार के भविष्य के विकास को शक्तिशाली प्रदान करेंगे। लैक्मे ने महिलाओं को समाज के सामने खुद को महत्वपूर्ण ठहराने और साहसपूर्वक फैशन और सौंदर्य शैलियों को पहनने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए अपना #UnapologeticallyMe अभियान शुरू किया। ठीक इसी तरह शुगर कॉस्मेटिक ने महिलाओं को असुरक्षा से उबरने और आत्मविश्वासी बनने के लिए प्रेरित करने के लिए #BeYourOwnMuse अभियान की शुरू किया था।
सामाजिक मुद्दों, सशक्तिकरण, लैंगिक समानता के अभियान चलाने वाली ब्यूटी कंपनियों के लिए ये कदम मुनाफा देते हैं। ग्लोबल डेटा के 2022 उपभोक्ता सर्वेक्षण में हिस्सा लेने वाले 34 फीसदी भारतीय ने कहा है कि वे खरीदारी करते समय सक्रिय रूप से नैतिक ब्रांडों की तलाश करते हैं जो सामाजिक समानता का समर्थन करते हैं। 2022 के ग्लोबल डेटा के ही सर्वेक्षण में यह बात भी सामने आई है कि 45 फीसदी महिलाएं उन प्रोडक्ट्स या सेवाओं के लिए अधिक भुगतान करने के लिए तैयार है जो लैंगिक समानता के कारणों का समर्थन करते हैं।
सुंदरता ही आत्मविश्वास है, सशक्तिकरण है इस तरह के अभियान चलाने वाले ब्रांड के लिए यह एक लाभ कमाने की सोची हई रणनीति होती है जिससे उनको महत्वपूर्ण लाभ होता है। अपने ब्रांड की छवि को परोपकारी बनाते हुए पूरा मकसद केवल मुनाफे से जुड़ा होता है। हमारे पितृसत्ता समाज में महिलाएं के साथ महज उनकी लैंगिक पहचान के कारण दोयम दर्जे का व्यवहार होता है। रूढ़िवादी सोच के तहत उनपर पितृसत्ता के मापदंड़ो को थोपा जाता है। बाजार और पूंजी के व्यवसाय में भी महिलाओं की इसी स्थिति को बरकरार रखा है। सौंदर्य उद्योग द्वारा चलाले जा रहे अभियान भी ऐसे ही है। एक तरफ़ ये अभियान महिला सशक्तिकरण की बात करते है दूसरी तरफ़ महिलाओं के भीतर खुद के शरीर के प्रति हीन भावना को जगाते हैं। सौंदर्य उद्योग अपने प्रोडक्ट को बेचने, सही ठहराने के लिए ऐसी रणनीति अपनाते हैं। सौंदर्य उत्पादों के विज्ञापनों में बड़ी संख्या में महिलाओं को लिया जाता है क्योंकि आज भी सौंदर्य उद्योग की पहली उपभोक्ता महिला मानी जाती है।
महिलाएं अपनी उपस्थिति को ठीक करने, अपनी विशेषताओं को बढ़ाने, अपने शरीर को व्यक्त करने और उसका जश्न माने के लिए सौंदर्य उद्योग द्वारा बनाए गए उत्पादों का इस्तेमाल करती है। इस तरह के विज्ञापन उनमें इस तरह की सोच को विकसित करते है कि उनका शरीर परफैक्ट नहीं है। सौंदर्य उद्योग के द्वारा तय किये गए सुंदरता के पैमानों पर खरा न उतरने के कारण ख़ासतौर पर महिलाएं खुद के ऊपर मानसिक तनाव लेती है। ये कंपनियां या विज्ञापन ही हैं जो उन्हें सबसे पहले खुद में दोषपूर्ण मानने पर मजबूर करते है और जब माहौल बदल रहा होता है तो सशक्तीकरण का रूप अपनाकर इस दिशा में प्रचार-प्रसार करने लग जाती है।
आत्मविश्वास और सेल्फ लव की परिभाषा को सौंदर्य उत्पादों के इर्द-गिर्द रखकर बुनना शुरू कर देती हैं। यह मुनाफ़े को बढ़ाने के साथ-साथ बहुत कुछ है। इस तरह के अभियान सशक्तीकरण की अवधारणा का अराजनीतिकरण करने की एक प्रक्रिया है। धरातल पर बिना किसी तरह के बदलाव किए बिना और रूढ़िवाद की सरंचनाओं को बदले बिना खोखला सामाजिक बदलाव का अभियान चलाते है। सच्चा सशक्तिकरण किसी के व्यक्तित्व का सम्मान करना है। प्रत्येक व्यक्ति के रूप, चरित्र की दृष्टि की सोच को मानना है। ब्यूटी प्रोडक्ट बनाने वाली कंपनियों को यह निर्देशित करने का किसी तरह का अधिकार नही देना चाहिए कि क्या सुंदर और सशक्त माना जाना चाहिए। कंपनियों द्वारा बनाई धारणा जिसमें आत्मविश्वास को सुंदरता से जोड़ा गया है उसको नकारना चाहिए। वास्तव में आत्मविश्वास लगातार संदेह और तुलना के बजाय खुद में विश्वास रखने से आता है।
स्रोतः