इंटरसेक्शनलग्रामीण भारत बदलते हुए गांवों में ओल्डेज होम या क्रेच जैसे विकल्पों की क्या उपयोगिता है?

बदलते हुए गांवों में ओल्डेज होम या क्रेच जैसे विकल्पों की क्या उपयोगिता है?

ग्रामीण क्षेत्रों में लगातार पलायन और बेरोजगारी के संकट ने ग्रामीण बुजुर्गों का जीवन कठिन बना दिया है। उनके पास बहुत अकेलापन और निःसहायता है। आज शहर ही नहीं तेजी से बदलते गांव की स्थितियों को भी समझना होगा क्योंकि आज गाँवों में पहले जैसी सामूहिकता नहीं है। बाजारवाद गांव में बहुत तेजी से पहुँच गया है। बेरोजगारी के कारण लगातार पलायन की स्थिति बनी हुई है। गांव में भी ज्यादातर एकल परिवार का चलन हो गया है और ज्यादातर एकल परिवार में भी सिर्फ बुजुर्ग ही गांव में रहते हैं। अकेले रहना एक स्थिति हो सकती है लेकिन अब सवाल उठता है कि अकेले रहना बुजुर्गों का एक हद तक ही चल सकता है। जब वो शरीर से असहाय हो जाते हैं तो अपनी दैनिक ज़रूरतों के लिए भी दूसरों पर निर्भर हो जाते हैं ऐसे में वाजिब सवाल उठता है कि इस स्थिति में उनके आसपास कौन रह सकता है। रोजगार और शिक्षा के लिए उनका परिवार शहर में होता है और उनके पास समय और सहूलियत नहीं होती कि वे गांव में रहकर बुजुर्ग की देखभाल करें। गांव में बहुत तेजी से बुजुर्गों की देखभाल की समस्या उभरी है क्योंकि नयी पीढ़ी गांव में रहना नहीं चाहती और बुजुर्गों के लिए शहर के बेहद सकरे घरों में जगह नहीं होती है।

ग्रामीण इलाकों में ओल्डेज होम की परिकल्पना अभी साकार नहीं दिखती लेकिन बदलते हालत देखकर इस व्यवस्था पर सोचना होगा। हालांकि कि अभी गांव में ओल्डेज होम या बच्चों के क्रेच जैसी सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन गांव में जिस तरह से सामूहिक जीवन रहन-सहन घटा है उसे देखा जाए तो ओल्डेज होम या क्रेच जैसी सुविधाओं की बहुत आवश्यकता हो गयी है। आसपास के शहरों में कुछ ओल्डेज होम हैं। लेकिन गांव में लोगों में इन चीजों के प्रति कोई जागरूकता नहीं है। दूसरा गांव हो या शहर दोनों जगह ओल्डेज होम को लेकर लोगों में बुजुर्गों के लिए अनदेखी और अपमान जैसी धारणा है। अपनी भावनाओं में उलझकर वे इस बात पर ध्यान नही दे पाते कि बुजुर्ग का घर में अकेले पड़े रहना ठीक नहीं है। बल्कि किसी सामूहिक जगह पर अपने जैसे लोगों के साथ रहकर उनके सुख-दुख में भागीदार बनके रहना उनके लिए एक खुशहाल माहौल हो सकता है। जिस तरह गांव-जवार की पारंपरिक कंडीशनिंग होती है उस लिहाज से तो गांव में ओल्डेज होम की परिकल्पना को ख़ारिज कर सकते है लेकिन इसी समाज से नयी सोच, नये विचार भी उगते हैं और वे प्रगतिशील समाज में धीरे-धीरे चलन में आ जाते हैं।

आज के गांवों की स्थिति का अध्ययन किया जाये तो ओल्डेज होम यहाँ की ज़रूरत बन गए हैं क्योंकि आज पलायन की वजह से गांव के बहुत सारे घरों में ताले लगे हुए हैं और जिन घरों में नहीं लगे हैं तो वहाँ ज्यादातर बस बुजुर्गों की रहनवारी है तो ऐसे में जब वो शारीरिक रूप से अक्षम हो जाते हैं तो उन्हें बेहद कठिनाई होती है।

उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों में फ़िलहाल तो अभी गांवों में ओल्डेज होम की व्यवस्था नहीं है। यहाँ आसपास के किसी गाँव में ओल्डेज होम नहीं हैं लेकिन पास के शहरों में कुछ ओल्डेज होम हैं जहाँ गांव के बुजुर्ग भी जा सकते हैं। यहाँ ओल्डेज होम में रहने और जाने को लेकर कई तरह की चुनौतियां हो सकती हैं जैसे सम्पत्ति और सुरक्षा का मसला। हालांकि ऐसा नहीं है कि गाँव में बुजुर्गों के पास कोई सम्पत्ति नही होती उनके पास अपनी जमीनें तो होती ही हैं लेकिन सामाजिक परम्परा का ऐसा दबाव होता है उनके मन-मस्तिष्क पर कि वे अकेले पड़े रहकर कठिनाइयों से अपने अंतिम समय तक जूझते रहते हैं लेकिन ओल्डेज होम में नहीं जाते क्योंकि उनको लगता है ये परिवार की बहुत बड़ी बदनामी होती है।

गांव में ओल्डेज होम खुलने के लिए और सुचारू रूप से उन्हें चलाना मुश्किल काम होगा। पहले तो अच्छे सेंटर खोलने में काफी खर्च आता है। और उसके बाद सवाल आता है गवईं संस्कृति का, जिसमें ओल्डेज होम जैसी चीज एक एकदम नयी परम्परा होगी उसे स्वीकार करना उनके लिए कठिन है। लेकिन आज के गांवों की स्थिति का अध्ययन किया जाये तो ओल्डेज होम यहाँ की ज़रूरत बन गए हैं क्योंकि आज पलायन की वजह से गाँव के बहुत सारे घरों में ताले लगे हुए हैं और जिन घरों में नहीं लगे हैं तो वहाँ ज्यादातर बस बुजुर्गों की रहनवारी है तो ऐसे में जब वो शारीरिक रूप से अक्षम हो जाते हैं तो उन्हें बेहद कठिनाई होती है। दूसरा अकेलेपन की पीड़ा तो हर जगह के बुजुर्ग झेल रहे हैं।

तस्वीर साभारः Scroll.in

पलायन के चलते ताले लगे घरों में

उत्तरप्रदेश के जौनपुर जिले के खानपुर गांव में अगर आप जाएं तो एकबारगी आपको लगेगा कि गांव के घरों के लोग कहीं पर्यटन के लिए चले गये हैं क्योंकि बहुत से घरों में ताले लगे हैं और जिन घरों में नही लगे हैं वहाँ बस कुछ बुजुर्ग रहते हैं। उनसे हमने कुछ बातचीत की तो उनकी पीड़ा छलक पड़ी। कितने घरों में सिर्फ एक बुजुर्ग रहते हैं और वे बीमार हैं। देखभाल करने वाला कोई नहीं है। इसमें घरवालों को बहुत दोष नही दिया जा सकता एक तो निम्नवर्गीय या निम्नमध्यवर्गीय परिवारों की स्थिति, दूसरा शिक्षा और रोजगार का सवाल। ज्यादातर लोग शहर में नौकरी करके बच्चों को पढ़ा रहे हैं उनका पालन-पोषण कर रहे हैं उनके पास गाँव में आकर रहने की स्थिति है ही नहीं। कुछ लोग बुजुर्गों को साथ ले भी जाना चाहते हैं लेकिन शहरों के एक या दो कमरों के घरों में गाँव के खुले वातावरण में रहे बुजुर्गों की रहनवारी कठिन होती है उनका दम घुटता है।

खानपुर गांव के ही बुजुर्ग रामनिवास से हमने गांव में ओल्डेज होम खुलने की परिकल्पना पर बात करने लगे तो उन्होंने कहा,”क्यों नहीं खुलना चाहिए गांव में ओल्डेज होम, यहाँ तो ज्यादा ही ज़रूरत है क्योंकि कि बुढ़ापे में जांगर (शारीरिक श्रम करने की ताकत) नहीं रहता और शहर में नौकरी करते बच्चे सब कुछ छोड़कर लौट नहीं सकते।” आगे हमने जब उनसे ओल्डेज होम के खर्च पर बात की तो उन्होंने उसके जबाब में बहुत व्यवहारिक बात कही कि अगर जमीन ही आपके पास है तो वो संस्था को दीजिए और वे खर्च उठाएं और जब घरवालों को जमीन चाहिए तो वो संस्था को उनका खर्च देकर जमीन वापस ले सकते हैं। हालांकि इसमें कुछ पेंच हो सकते हैं लेकिन बुजुर्ग मनुष्य भी परिवार का हिस्सा होता है और उसकी देखभाल की ज़रूरत एक मनुष्य की प्राथमिक ज़रूरत है।

गांव में अगर इस तरह की सुविधाएं उपलब्ध करायी जाएंगी तो उनकी संस्कृति सुरक्षा और सहूलियत को समझना होगा हालांकि सुरक्षा की व्यवस्था में तो अगर कोई संस्थान काम करता है तो वैसे ही करेगा जैसे शहरों में होता है। हाँ इसमें बुजुर्ग मनुष्य की आर्थिक स्थिति काफी हद तक तय कर सकती हैं लेकिन गांव में अचल सम्पत्तियों को लोग एकदम से बचाये रखना चाहते हैं। जहाँ तक एक संस्कृति की बात है तो बाजार और इंटरनेट ने उसमें तेजी से बदलाव किया है तो इस तरह के सकारात्मक बदलाव की कोशिश हो सकती है।

तस्वीर साभारः Newsdrums

महिलाओं के लिए अधिक मुश्किल

गांव में लोग ओल्डेज होम की परिकल्पना को लेकर कैसे सोचते हैं इस विषय पर गाँव में अलग-अलग उम्र और अनुभव के लोगों से हमने बात की। इलाहाबाद के पास के गांव में रह रही छात्रा नेहा कहती है, “मुझे लगता है कि ग्रामीण क्षेत्र में भी ओल्डेज होम की ज़रूरत है। वह आगे कहती है, “यहां केवल अर्थ और सुरक्षा की बात नहीं है। बात अकेलेपन और अनदेखी की भी है और ख़ासकर महिलाओं के लिए ये ज्यादा ही ज़रूरी है। मैं जहाँ जिस गांव मे हूँ ऐसी बहुत सी औरतें हैं जो अपने महल जैसे घर में अकेले रहती हैं उनसे बोलने या उनकी बात तक सुनने वाला कोई नहीं है, ऐसा नहीं है की उनका परिवार नहीं है, उनके पास बेटा है, वह पेंशन पाती हैं पर साथ उनके कोई नहीं रहता वो घर मे अकेली रहती हैं। ऐसे वृद्ध पुरूष भी है जो अकेले हैं पर उनका ये है कि वो थोड़ा सा आस-पास आ जा लेते हैं, लोगों से मिल लेते हैं पर औरतें कहीं बाहर भी नहीं निकल पाती है। आज भी गाँव में ऐसा है कि पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं कम मिल-जुल पाती हैं लोगों से, मुझे ये लगता है अगर ओल्डेज होम होगा तो हमारे यहाँ की तमाम महिलाएँ, पुरुष जो अकेले हैं उनके साथ रहने वाला कोई नहीं है तो ऐसे में वहाँ लोगो का साथ होगा एक-दूसरे से बात करेंगे तो उनके लिए अच्छा होगा।”

सुविधाएं शहरों तक न हो सीमित

इसी क्रम में गांव में पेशे से टीचर सुधा से हमने ओल्डेज होम या क्रेच जैसी सुविधा पर बात की तो उन्होंने का, “मैं शहर में पली-बढ़ी हूँ। नौकरी गांव में लग गयी है और अब सब नयी तरह की दिक्कतें आ रही हैं। छोटा बच्चा है मेरे पास अब या तो सब-छोड़कर घर बैठ जाएं या तो परिवार के किसी सदस्य के ऊपर बच्चे को छोड़ दें। वह भी मुश्किल है हर किसी के पास इतना टाइम नहीं है। दूसरा अपने परिजन जिससे मदद ले रहे हो वहाँ बच्चे को लेकर अगर कोई लापरवाही बरती भी जा रही हो तो शिकायत नहीं कर सकते।” 

सुधा आगे कहती है, “ऐसे में अगर अपनी और अपने बच्चे की बेहतरी के लिये कोई अच्छा सा डे-केयर चाहती हूँ लेकिन यहाँ उपलब्ध ही नहीं।” हमने जब ओल्डेज होम को लेकर सुधा से सवाल किये तो उन्होंने कहा, “घर के एक कोने में उपेक्षित पड़े बीमार माँ-बाप से बेहतर ओल्ड एज होम में सब सुविधाएं हो सकती हैं। जिस घर-परिवार के साथ का समाज में महिमांडन किया जाता है, वहाँ सब अपने में व्यस्त रहते हैं तो ऐसे में ओल्डेज होम जैसी सुविधाएं बुजुर्गों के लिए हर तरह से बेहतर हैं क्योंकि वो अपने जैसे लोगों के साथ हँसते-बोलते रहते हैं। अपना सुख-दुख कह सुन सकते हैं।

नेहा कहती है, “आज भी गांव में ऐसा है कि पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं कम मिल-जुल पाती हैं लोगों से, मुझे ये लगता है अगर ओल्डेज होम होगा तो हमारे यहाँ की तमाम महिलाएँ, पुरुष जो अकेले हैं उनके साथ रहने वाला कोई नहीं है तो ऐसे में वहाँ लोगो का साथ होगा एक-दूसरे से बात करेंगे तो उनके लिए अच्छा होगा।”

ऐसा नहीं है कि गांव में या कस्बाई इलाकों में ओल्डेज होम जैसी सुविधाओं पर अभी तक कोई भी काम नहीं हुआ है। बिहार के कुछ गांवों में ओल्डेज होम की व्यवस्था है जिसे कुछ संस्थान अपने तरीके से चला रहे हैं। बुजुर्गों के हितों के लिए ओल्डेज होम एक सकारात्मक पहल हो सकती है। ज़रूरत है कि उसे सुरक्षित और सुविधाजनक मानकों में बनाये जाएं और हर वर्ग के बुजुर्ग मनुष्य के लिए वो किसी बेहतर विकल्प के रूप में उपलब्ध हो सके क्योंकि इस पूंजीवादी व्यवस्था में समाज के हाशिये के जनों का जीवन रोज कठिन होता जा रहा है।


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