लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण आज भी हमारे देश में एक महत्वपूर्ण मुद्दा बना हुआ हैं। निर्वाचित संस्थानों में महिलाओं का पुरुषों के बराबर अनुपात में प्रतिनिधित्व हासिल करना, संसद, राष्ट्रीय विधानसभाओं और स्थानीय सरकारों की विश्वसनीयता और वैधता स्थापित करने के लिए आवश्यक है। महिलाएं देश की आधी आबादी हैं, लेकिन महिला सांसदों की सदन में उपस्थित अगर प्रतिशत के रूप में देखें तो लोकसभा में मात्र 14.36% और राज्यसभा में 10% हैं। वैसे तो ये आंकड़ें बेहद कम हैं लेकिन इससे राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं की उपस्थिति का एक नया आयाम उभर कर सामने आया है, जिससे ये संकेत मिलने लगे हैं कि ज्यादा से ज्यादा महिलाएं अब राजनीति में प्रवेश कर रही हैं।
आगामी लोक सभा चुनाव को देखते हुए भारतीय राजनीति में महिलाओं की भागीदारी एक बार फिर से चर्चा का विषय बन गई है। वोटर से लेकर उम्मीदवार के तौर पर महिलाओं की भूमिका को महत्वपूर्ण माना जा रहा है। यह बात अलग है कि अबतक उस तरह से महिला उम्मीदवारी सामने नहीं आई है जितनी उम्मीद है। हालांकि इतिहास से लेकर वर्तमान तक देश की राजनीति में महिलाओं नेतृत्व की एक लंबी लिस्ट है। इन महिला नेताओं ने हर मौके पर देश के सामाजिक कल्याण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
भारत में स्वतंत्रता आंदोलन से ही राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं की सक्रिय भूमिका देखी जाती रही है। आंदोलन में सरोजिनी नायडू, अरूणा आसफ अली, विजय लक्ष्मी पंडित जैसी महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही हैं। आजादी के बाद भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री बनने का गौरव श्रीमती इंदिरा गांधी को प्राप्त हुआ जो 1966-1977 तक और फिर 1980-1984 तक देश की प्रधानमंत्री रहीं। भारत में प्रथम महिला राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवी बनीं। वहीं भारत की दो सर्वोच्च संवैधानिक पदों पर महिलाओं की पहुंच भारत में राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं की सक्रिय भूमिका का जीवंत उदाहरण है।
भारतीय संसद में महिलाएं
राज्यों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की बात करें तो कई राज्यों के मुखिया के रूप में भी महिलाओं ने अहम भूमिका निभाई है। जैसे भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री के रूप में सुचेता कृपलानी हो या विभिन्न राज्यों में नंदिनी सतपति, जयललिता, सुश्री मायावती, सुषमा स्वराज, शीला दीक्षित आदि ने सक्रिय रूप से अपनी जिम्मेदारियां निभाई हैं। मौजूदा वक़्त में संसद में महिलाओं की संख्या की बात करें तो लोकसभा में 78 और राज्यसभा में 24 महिला सांसद मौजूद है। आजादी के बाद पहली बार महिला सांसदों की संख्या 100 का आंकड़ा पार कर गई है। आंकड़ें आज भी बहुत संतोषजनक नहीं हैं क्योंकि संख्या के आधार पर यह अनुपातिक प्रतिनिधित्त्व के आस-पास भी नहीं है। भारत के पड़ोसी देश बांग्लादेश में 21% दर है जो भारत के मुकाबले अधिक है।
वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम द्वारा जारी ‘ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2023’ के मुताबिक भारत को लैंगिक समानता हासिल करने में 131 साल का समय लग जाएगा। दुनियाभर के 146 देशों में भारत की रैंकिंग इसमें 127 है। भारतीय राजनीति में महिलाओं के लिए 1992 मील का पत्थर साबित हुआ जब 73वां संविधान संशोधन हुआ। इसके मुताबिक़ देश में ग्राम पंचायत चुनाव में एक तिहाई पद महिलाओं के लिए आरक्षित किए गए और 74वें संविधान संशोधन द्वारा इसे स्थानीय या नागरिक निकायों में भी महिलाओं के राजनीतिक प्रतिनिधित्व को बढ़ाने के लिए लागू कर दिया गया। राजनीति में महिलाओं की भूमिका बढ़ाने से न केवल राजनीतिक रूप से बल्कि सामाजिक, आर्थिक रूप से भी महिला सशक्तिकरण सुनिश्चित किया जा सकता है। और लोकतंत्र के मूल्यों को सही मायने में स्थापित किया जा सकता है क्योंकि महिलाएं किसी भी समाज में लगभग आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करती है।
क्यों संसद में अधिक से अधिक महिला प्रतिनिधित्व की आवश्यता
महिलाओं की बढ़ती भूमिका के हिसाब से बात की जाए तो यह सामाजिक समस्याओं से भली-भांति परिचित रहती हैं जिसके चलते ही उन समस्याओं को प्रतिनिधि सभा में उठाकर उनका उचित समाधान कर सकती हैं और महिला संबंधित कानून में भी महिलाओं द्वारा स्वस्थ बहस के माध्यम से सुधार की संभावना बनी रहती है। इसी के साथ महिलाओं के कार्य बल में वृद्धि से संबंधित भूमिका को बढ़ाने वाले कानून में भी सुधार के सुझाव बेहतर स्तर पर उपलब्ध हो सकते हैं। महिलाओं की पंचायत स्तर पर भूमिका बढ़ने से बुनियादी ढांचे से संबंधित समस्याओं की मुक्ति के प्रयास तेज हुए हैं। पेयजल की उपलब्धता, स्वच्छता, स्वास्थ्य और शौचालय का निर्माण आदि मुद्दे प्रमुख रूप से शामिल है।
महिलाएं होती हैं कुशल राजनीतिज्ञ
भारतीय राजनीति पर पितृसत्तात्मक विचारधारा का बड़ा दबाव रहा है लेकिन जागरूक होते समाज में इस रूढ़िवादी सोच में महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिला है। प्यू रिसर्च सेंटर के एक सर्वेक्षण के अनुसार, हर दो में से एक से अधिक भारतीयों का कहना है कि “महिलाएं और पुरुष समान रूप से अच्छे राजनीतिक नेता बनते हैं” और हर दस में से एक से अधिक का मानना है कि महिलाएं आमतौर पर पुरुषों की तुलना में बेहतर राजनीतिक नेता बनती हैं। इकनॉमिक्स टाइम्स में प्रकाशित जानकारी के अनुसार एक अध्ययन के अनुसार महिला विधायकों के कारण उनकी विधानसभा क्षेत्र में आर्थिक प्रदर्शन पुरुष विधायकों की अपेक्षा लगभग 1.8% हर साल बढ़ता है। महिलाओं की बढ़ती भूमिका ने सामाजिक न्याय भी सुनिश्चित किया है। लेकिन इन सब के बावजूद महिलाओं के समक्ष राजनीति में चुनौतियां भी कम नहीं है।
बेशक राजनीति में महिलाओं की भूमिका बढ़ी है लेकिन अभी भी महिलाओं के राजनीति में प्रतिनिधित्व उनकी आबादी के बराबर नहीं है। इंटर पार्लियामेंट्री यूनियन, दुनिया भर की राष्ट्रीय संसदों का डेटा जमा करती है। उसकी रिपोर्ट बताती है कि एकल या निचले सदन के कुल सांसदों में महिलाओं का हिस्सा केवल 26.5 प्रतिशत था। इस तरह सालाना के हिसाब से महिलाओं की संख्या में सिर्फ 0.4 प्रतिशत प्वाइंट की बढ़ोतरी हुई है जो कि छह वर्षों में सबसे कम वृद्धि है। इसी रिपोर्ट के डेटा के अनुसार महिला सांसदों के मामले में दुनिया के कुल 186 देशों में भारत 143वें पायदान पर है। रिपोर्ट के अनुसार जुलाई 2023 तक लोकसभा में महिलाओं की नुमाइंदगी 15.1 प्रतिशत थी जबकि राज्यसभा में 13.8 प्रतिशत है। भारत के 28 राज्यों के मुख्यमंत्री पर नजर डालें तो फिलहाल पश्चिम बंगाल ही एकमात्र सूबा है जहां एक महिला मुख्यमंत्री है। यह सही है कि महिला सांसदों की हिस्सेदारी पिछले कुछ वर्षों में बढ़ी है, लेकिन अन्य देशों की तुलना में यह अभी भी बहुत कम है भारतीय संसद के दोनों सदनों के कुल सदस्यों में सिर्फ 103 महिला सदस्य ही है यानी महज़ 13 प्रतिशत जबकि दक्षिण अफ्रीका में 43 फीसदी, ब्रिटेन में 32 फीसदी ,अमेरिका में 24 फीसदी है।
महिलाओं की राजनीति में कम भूमिका होने की बात करें तो इसके प्रमुख कारणों में सामाजिक कारण सर्वाधिक जिम्मेदार हैं। आज पुरुष वर्चस्व वाले समाज में आज भी महिलाओं की भूमिका को घरेलू कामों तक सीमित माना जाता है और राजनीति को पुरुषों का क्षेत्र मानकर महिलाओं को राजनीति में जाने से रोकता है। हालांकि लगातार महिलाओं ने इस अवधारणा को तोड़ा है। लोकतंत्र में महिला जन प्रतिनिधितित्व के तौर पर बेहतर काम कर रही हैं।
एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स और नैशनल इलेक्शन वॉच के एक रिपोर्ट बताती है कि चुनाव के साथ धनबल और बाहुबल भारतीय चुनाव में बड़े स्तर पर जुड़ा हुआ है। जिसमें महिलाओं को हम लगभग कहीं नहीं पाते हैं। इसके चलते राजनीतिक दल महिलाओं को प्रत्याशी बनाने से परहेज करते हैं। महिलाओं की संसद में कम संख्या के कारण महिलाओं से संबंधी मुद्दों पर चर्चा में शामिल करने के प्रयास गंभीर स्तर पर नहीं किए जाते हैं। न ही उनके नज़रिये से चीजों को समझा और देखा जाता है। इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि संसद में महिलाओं की शादी की उम्र पर चर्चा करने के लिए गठित की गई 31 सदस्य समिति में सिर्फ एक महिला सांसद थी।
भारतीय राजनीति में आनुपातिक रूप से महिलाओं की सहभागिता कम है। संविधान संशोधन से मिले आरक्षण के बाद पंचायती राज और स्थानीय निकायों में महिलाओं की भागीदारी निश्चित रूप से बढ़ी है लेकिन इसमें सुधार के लिए प्रयासों की दरकार है।क्योंकि पंचायती स्तर पर महिला उम्मीदवारों के होने के बाद से ही प्रधान पति, पुत्र का पद पुरुषों के वर्चस्व वाली राजनीति में बना दिया गया है। बीते साल सिंतबंर में महिला आरक्षण कानून बना। इस बिल में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए कुल सीटों में से एक-तिहाई सीटें आरक्षित करने का प्रावधान है। लेकिन इस कानून को ज़मीन पर आने में अभी लंबा इंतज़ार करना पड़ेगा। महिला आरक्षण बिल को मौजूदा सत्ताधारी पार्टी ने एक चुनावी स्टंट बना दिया है और इससे साफ पता चलता है कि सरकारों में वास्तव में नीयत की कितनी कमी हैं। महिलाओं की राजीतिक भागीदारी बढ़ाने के लिए समाज को पितृसत्तात्मक दुर्भावना से निकलने की आवश्यकता है। साथ ही साथ ज़्यादा से ज़्यादा महिलाओं को शिक्षित करके जागरूक करने की ज़रूरत है। ताकि महिलाएं बढ़ चढ़ कर राजनीति में हिस्सा लें। इसमें कोई दो राय नहीं कि महिलाओं के राजनीति में प्रवेश से उनकी सामाजिक स्थिति बदलेंगी और एक समावेशी समाज का निर्माण होगा।