एक पुरानी कहावत है कि प्यार और जंग में सब जायज़ है और भारत में चुनाव कोई जंग से कम नहीं। भारत के राजनीतिक इतिहास में जाएं, तो देश में राजनीति और चुनाव के परिदृश्य में जबरदस्त बदलाव आया है। सोशल मीडिया पर ध्यान दें तो आज राजनीतिक पार्टियों के काम में अपने-अपने सोशल मीडिया को संभालना एक महत्वपूर्ण काम की तरह जुड़ गया है। लेकिन जहां विज्ञान का इस्तेमाल लोगों तक; विशेषकर युवाओं तक पहुँचने, योजनाओं की घोषणा या तकनीक से कामों में तेजी लाने के लिए किया गया, वहीं इसका दुरुपयोग एक-दूसरे के खिलाफ भी किया जा रहा है। कोई प्रतिद्वंद्वी से पार्टी के लिए प्रचार करते हुए दिखाना हो, मतदाताओं को असली और नकली वीडियो के साथ भ्रमित करना हो, ऐसे पुराने नेता जिनकी मौत हो चुकी है, उनके माध्यम से भावनात्मक स्तर पर लोगों से जुड़ना हो या एक-दूसरे पर मीम बनाना हो, आज आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानि कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) का हर जगह भयानक रूप से इस्तेमाल किया जा रहा है।
जैसे-जैसे भारत दुनिया के सबसे बड़े चुनावों की तैयारी कर रहा है, पार्टियां नई और खतरनाक रणनीतियों के लिए एआई की ओर रुख कर रही है। बीते फरवरी आगामी लोकसभा चुनाव से ठीक पहले गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, ओपनएआई, ऐमज़ान और मेटा सहित 20 प्रौद्योगिकी दिग्गजों ने ‘2024 चुनावों में एआई के भ्रामक उपयोग से निपटने के लिए तकनीकी समझौते’ पर हस्ताक्षर किए। 7 सिद्धांतों के एक स्वैच्छिक ढांचे के रूप में, यह समझौता 60 से अधिक देशों में चुनावों से भरे एक असाधारण वर्ष में, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के चुनावी लोकतंत्र के लिए बढ़ती खतरनाक चुनौती के संदर्भ में आता है।
किस तरह इस्तेमाल हो रहा है एआई
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के इस्तेमाल के लिए प्लैनिंग के अलावा पैसे की भी जरूरत होती है। इसके कई कारकों में इसपर भी ध्यान दिया जाता है कि किस पार्टी का सोशल मीडिया के माध्यम से लोगों तक कितनी पकड़ है, या सोशल मीडिया पर चुनिंदा पार्टी के अकाउंट को कितने लोग फॉलो और उनके बनाए कंटेन्ट को शेयर कर रहे हैं। कुछ सालों पीछे चले, तो साल 2012 में ही भारतीय जनता पार्टी ने नरेंद्र मोदी के 3डी होलोग्राम प्रोजेक्शन का इस्तेमाल किया था, ताकि वह एक ही समय में दर्जनों स्थानों पर ‘एक साथ प्रचार’ कर सकें। इस रणनीति को 2014 के आम चुनावों के दौरान व्यापक रूप से लागू किया गया था, जिसने मोदी सरकार को सत्ता में आने में बहुत बड़ी भूमिका अदा की।
इतना ही नहीं फरवरी 2020 में, भाजपा के सांसद, मनोज तिवारी, प्रचार के लिए डीपफेक का उपयोग करने वाले दुनिया के पहले लोगों में से एक बने। देश की राजधानी दिल्ली के विधान सभा चुनावों से पहले तीन वीडियो में, तिवारी ने मतदाताओं को हिंदी, हरियाणवी और अंग्रेजी में संबोधित किया ताकि अलग-अलग समुदायों के लोगों तक पहुंचा जा सके। लेकिन इनमें केवल हिंदी वीडियो प्रामाणिक था। अन्य दो डीपफेक थे, जहां एआई का उपयोग उनकी आवाज़ और शब्दों को पैदा करने और उनके भावों और होंठों की गति को बदलने के लिए किया गया था, जिससे केवल देखने पर यह पता लगाना लगभग असंभव था कि वे वास्तविक नहीं थे।
अलजज़ीरा की एक रिपोर्ट अनुसार 23 जनवरी को, एम करुणानिधि अपने 82 वर्षीय मित्र और साथी राजनेता टीआर बालू को उनकी आत्मकथात्मक पुस्तक के लॉन्च पर बधाई देने के लिए, एक बड़ी स्क्रीन पर लाइव दर्शकों के सामने आए। उन्होंने वही काले धूप का चश्मा, सफेद शर्ट और कंधों पर पीले रंग का शॉल पहना हुआ था, जो उनका ट्रेडमार्क हुआ करता था। अपने इस आठ मिनट के भाषण में, उन्होंने अपने बेटे और राज्य के वर्तमान नेता एमके स्टालिन के सक्षम नेतृत्व की प्रशंसा भी की। बता दें कि करुणानिधि का निधन साल 2018 में हो चुका है। इसी तरह आउट्लुक में छपी एक खबर अनुसार तेलंगाना के नवंबर में हुए चुनाव से पहले में, हजारों मतदाताओं को उनके स्मार्टफोन पर एक फोरवार्डेड यानि अग्रेषित वीडियो मिलता है, जिसमें एक मौजूदा मंत्री को वर्तमान राज्य सरकार के खिलाफ वोट करने की अपील करते हुए दिखाया गया है।
भारत में आज चुनाव का परिदृश्य इतना बदल चुका है कि अब यह सिर्फ पंचायत स्तर को छोड़कर घर-घर प्रचार लगभग बंद हो चुका है। शहरों में हर जगह पोस्टर से आगे बढ़कर एआई ने अपनी जगह बना ली है। आज तकनीक के माध्यम से पार्टी के सेंट्रल दिशनिर्देश का पालन करते हुए, दिल्ली में बैठा व्यक्ति कहीं और भाषण दे सकता है या मौत हो चुके नेता का भी वीडियो बन सकता है, जो किसी भी चुनाव वाले निर्वाचन क्षेत्र में हजारों मतदाताओं की भावनाओं को प्रभावित कर सकते हैं।
एआई के खतरे से क्या गूगल कर पाएगा मदद
फेक औडियो, वीडियो, यहां तक कि फेक न्यूज भी आज कोई नई या बड़ी बात नहीं है। लेकिन जेनेरिक एआई टूल्स की बदौलत यह धोखाधड़ी करना आसान, तेज और सस्ता हो गया है, जो उन चीजों को दर्शाने वाली बिल्कुल असल लगने वाली छवियां, वीडियो और ऑडियो बना सकता है, जो पहले कभी इस्तेमाल नहीं होती थीं। गूगल ने आगामी आम चुनावों के दौरान झूठी सूचनाओं के प्रसार को रोकने, अधिकृत सामग्री को बढ़ावा देने और एआई जनित डेटा को लेबल करने के लिए भारत के चुनाव आयोग के हाथ मिलाया है।
गूगल ने बताया है कि आने वाले महीनों में भारत में लाखों लोग मतदाता आम चुनाव के लिए मतदान करने जा रहे हैं। गूगल मतदाताओं को उच्च गुणवत्ता वाली जानकारी प्रदान करके, गूगल के प्लेटफार्मों को दुरुपयोग से सुरक्षित रखने और लोगों को एआई-जनित नेविगेट करने में मदद करके चुनाव प्रक्रिया का समर्थन करने के लिए प्रतिबद्ध है।
क्या युवा एआई के झूठ को समझते हैं
असल में हम चाहे एआई के झूठ को पकड़ने के कितने भी टूल्स बना लें, युवाओं या ऐसे लोग जो सोशल मीडिया का ज्यादा इस्तेमाल करते हैं, उनके लिए यह समझना बेहद मुश्किल है कि कोई खबर, वीडियो या तस्वीर असल है या फेक। लगभग हर प्रमुख पार्टी ने एआई और डीपफेक जैसे टूल के इस्तेमाल से प्रचार और प्रॉपगंडा फैलाया है। इसलिए, कोई भी राजनीतिक पार्टी इसके खिलाफ आवाज़ नहीं उठा रहा। राजनीतिक पार्टियों के सोशल मीडिया के इस्तेमाल पर टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (टीआईएसएस) में पढ़ाई कर रही उत्तर प्रदेश के कानपुर की भव्या बताती हैं, “यह सच है कि चुनावों के दौरान सोशल मीडिया राजनेताओं के लिए संवाद करने का एक शक्तिशाली उपकरण बन गया है। वास्तव में, यह केवल संचार से कहीं अधिक हासिल करता है। यह जनता को संगठित और प्रभावित भी करता है। हालांकि इसका हानिकारक प्रभाव भी हो सकता है।”
यह सच है कि चुनावों के दौरान सोशल मीडिया राजनेताओं के लिए संवाद करने का एक शक्तिशाली उपकरण बन गया है। वास्तव में, यह केवल संचार से कहीं अधिक हासिल करता है। यह जनता को संगठित और प्रभावित भी करता है। हालांकि इसका हानिकारक प्रभाव भी हो सकता है।
वहीं टीआईएसएस में ही पढ़ रही शैली धवन कहती हैं, “मुझे लगता है कि इस चुनाव में सोशल मीडिया एक महत्वपूर्ण कारक होगा, लेकिन निर्णायक नहीं। सोशल मीडिया दिन-प्रतिदिन होने वाले विभिन्न मुद्दों और घटनाओं के बारे में जागरूकता और जानकारी फैलाने में मदद करता है। यह लोगों को अपनी राय और शिकायतें व्यक्त करने के लिए मंच भी प्रदान करता है। पर मुझे यह भी लगता है कि लोगों में अपनी पसंद की राजनीतिक पार्टियों के प्रति पूर्वाग्रह होता है, और वे वास्तव में सोशल मीडिया पर वायरल होने वाली एक या दो चीज़ों के आधार पर अपने निर्णय नहीं लेते हैं। वे अन्य कारकों पर भी विचार करते हैं।” चूंकि अब व्हाट्सएप एक चर्चित और सहज पल्टफॉर्म बन चुका है, डीपफेक वीडियो को व्हाट्सएप ग्रुप के माध्यम से चुनावी क्षेत्रों में फॉरवर्ड करना आसान और कम खर्चीला माध्यम है।
आउट्लुक में छपी रिपोर्ट के अनुसार हाइपरलोकल स्तर पर गलत सूचना फैलाने के लिए, या तो समूहों को उनके जनसांख्यिकीय विवरण के अनुसार सूक्ष्म लक्षित दर्शकों के लिए बनाया जाता है, या कभी-कभी समूहों को स्थानीय सोशल मीडिया प्रभावकों से खरीदा जाता है। अब तक चार राज्यों के चुनावों में काम कर चुके एक सलाहकार का कहना है कि एक निर्वाचन क्षेत्र के 250 सदस्यों वाले समूह पर व्यवस्थापक नियंत्रण आमतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 5,000 रुपये में खरीदा जाता है। यह ध्यान देने वाली बात है कि इसके लिए भी बारीक योजनाएं बनाई जाती हैं। हर प्लेटफॉर्म के लिए अलग भाषा और कंटेन्ट का ध्यान रखा जाता है।
मार्च और मई के बीच, भारत के लगभग एक अरब मतदाता दुनिया के सबसे लोकतंत्र में चुनावों में अगली सरकार चुनेंगे। ऐसे में डीप फेक और एआई विशेष रूप से खतरा का कारण बन सकते हैं। दुनिया भर में, यह माना गया है कि एआई का चुनावों में बढ़ता इस्तेमाल आम जनता के मौलिक अधिकारों के लिए हानिकारक हो सकते हैं। एआई हाशिए के लोगों की अदृश्यता को बढ़ा सकते हैं और मानवाधिकारों का उल्लंघन कर सकता है। इन प्रक्रिया में व्यक्तिगत डेटा का भी बिना इजाजत इस्तेमाल किया जाता है जो बेहद चिंताजनक है। राजनीतिक दलों और कैम्पैन करने वालों का एआई के ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल से वोट देने और चुनाव की लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का मकसद विफल हो सकता है।