लोकसभा के चुनाव की तारीखों का ऐलान हो चुका है। तीन महीने के अंदर देश में नई सरकार का गठन हो जाएगा। इन सबके बीच देश की आम जनता और उसके असंख्य मुद्दे कभी चर्चा में है या फिर गायब है। लेकिन खेती-किसानी के मुद्दें पर सरकार एक बार फिर से बैकफुट पर है। किसानों का दोबारा से आंदोलन इसका ताजा उदाहरण है। कृषि और चुनावों के बीच संबंध का क्या महत्व है, इसको देखने के लिए मौजूदा राजनीतिक गतिविधियों को थोड़ा गहराई से देखने की ज़रूरत है। सत्ता पक्ष भी इस मुद्दे को चुनाव में बड़ा मुद्दा मानती है। यही वजह है कि वह हर तरीके से किसानों के आंदोलन को कमजोर करने का प्रयास करती नज़र आई। साथ ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश की गन्ना बेल्ट में लोकदल पार्टी का एनडीए के साथ गठबंधन यह साफ दिखाता है कि केंद्र की सरकार जानती है कि खेती-किसानी का मुद्दा एक बड़ा मुद्दा है, जिसपर लोग उसके खिलाफ़ लामबंद हो सकते हैं।
भारत मुख्य रूप से कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाला देश है जहां साठ फीसद से अधिक आबादी खेती पर निर्भर है। लोकसभा की 543 में से 300 से अधिक सीटें ग्रामीण क्षेत्रों से आती है। जनगणना के अनुसार किसान हमारे कार्यबल का 54 फीसदी है। कुल भारतीय मतदाताओं में ग्रामीण क्षेत्र से आने वाले मतदाताओं की संख्या अधिक है लेकिन उनके मुद्दों पर चुनाव उस तरह से लड़े नहीं जाते हैं। राजनीतिक पार्टियां अपने घोषणा पत्रों में किसानों के बारे में बहुत कम बातें करती नज़र आती हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने साल 2022 तक किसानों की आय दुगनी करने का वादा किया था जिसे वे आसानी से भूल तक चुके हैं। आगामी चुनाव में किसानों के मुद्दें क्या है? वे चुनाव में अपने मत की ताकत को किस तरह से देखते हैं और किसानों से अलग खेतों में काम करने वाली महिलाओं की राजनीतिक चेतना क्या है? इसे जानने के लिए हमने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के खेती-किसानी से जुड़े लोगों से बात की।
आज फिर किसान सड़कों पर अपनी मर्जी से नहीं बल्कि अपने हक के लिए है लेकिन सरकारों का दमन हम पर बढ़ता जा रहा हैं। वोट की ताकत ही हमारा सबसे बड़ा अधिकार है जिसे किसान समझ गया है और समझदारी से वोट करेगा। हम हर उस राजनीतिक शख्सियत के ख़िलाफ़ है जो किसानों के साथ नहीं है।”
किसानों के मुद्दे और शिकायतें
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स्वामीनाथन रिपोर्ट की सिफारिश लागू करना, फसल की एमएसपी पर खरीद, बिजली के दामों में कमी, खुले आवारा पशु, खाद पर सब्सिडी आदि वर्तमान में किसानों की मुख्य मांगे हैं जिनको लेकर किसान वर्ग राष्ट्रीय स्तर पर बातचीत चाहता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुटबी के रहने वाले अनुराग एक किसान है। आगामी चुनाव को लेकर उनका कहना है, “इस सरकार का किसानों पर शोषण लगातार बढ़ता ही जा रहा है। सरकार ने हमें आंतकवादी बताया है, हम पर लाठियां बरसाई, सिर्फ इस वजह से कि हम अपनी फसल का सही दाम मांग रहे थे। हमें इस देश में खेती की परंपरा को बचाए रखना है। सड़कों पर किसान अपनी मर्जी से नहीं बल्कि अपने हक के लिए हैं। लेकिन सरकार का दमन हम पर बढ़ता जा रहा हैं। वोट की ताकत ही हमारा सबसे बड़ा अधिकार है जिसे किसान समझ गया है और समझदारी से वोट करेगा। हम हर उस राजनीतिक शख्सियत के ख़िलाफ़ हैं जो किसानों के साथ नहीं है।”
मिल मालिक हमारे पैसों पर रोज अमीर हो रहा है
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खेती-किसानी करने वाले अशोक का कहना है, “गन्ना पेमेंट, फसल का सही दाम ये सब हमारी प्रमुख समस्या भी है और इनका समाधान ही हमारी मांगे हैं। हम चाहते है कि गन्ना मिल हमारा सही समय पर पेमेंट करें और सरकार हमारी फसल का सही मूल्य दें। करोड़ों रूपये का पिछला भुगतान किसानों का अभी मिल पर बकाया है। आप ही बताइए ऐसा खेती के अलावा और कौन से क्षेत्र में होता है कि काम तो आज कर दो और रूपये बाद में लेना। सिवाय किसानों के इतनी हिम्मत किसी में नहीं है हम सिर्फ अपना हक मांगते हैं। मिल मालिक और सरकारों की हमेशा मिलीभगत रही है और किसान हमेशा से इनमें पिसता रहा है। इस सरकार से हमें कोई उम्मीद नहीं हैं, हम हर हाल में बदलाव चाहते हैं।”
आवारा पशु, फसल बर्बादी और किसानों की मौत
वर्तमान में किसानों के सामने खेती में एक बड़ी समस्या आवारा छुट्टे पशु है। आवारा पशुओं से फसल को बचाने के लिए किसान रातों-रात अपने खेतों में निगरानी तक करते हैं। नैशनल ज्योग्राफी में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में इनकी संख्या 50 लाख से अधिक है। आवारा मवेशियों से फसल को बचाने के लिए खेतों की तारबंदी से किसानों पर आर्थिक भार भी बढ़ता है। इतना ही नहीं देश के अलग-अलग कोने में कई किसान इस वजह से अपनी जान तक गवां चुके हैं। मुजफ़्फ़रनगर जिले के जानसठ पुलिस थाना के गाँव भंडूर की रहने वाली माया के पति सतीश सैनी की मौत खेत में काम करने के दौरान आवारा पशुओं के हमले से हुई। खेत में उस दिन वह हमेशा की तरह अपने पति के साथ काम कर रही थी।
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घटना के बारे में जानकारी देते हुए वह कहती है, “चार बिगह जमीन है बस हम दोनों मिलकर उसी में काम करते रहते थे। उस दिन खेत में काम करने के दौरान अचानक से एक बिजार आया और उसने मुझ पर हमला करना शुरू कर दिया। मैंने बहुत तेजी से उन्हें आवाज़ लगाई। जब वह मुझे बचाने चले तो वह मुझे छोड़कर उनके पीछे पड़ गया और पूरे खेत में उन्हें पटक-पटक कर मारते हुए गन्ने के दूसरे खेत में ले गया। उसके बाद मुझे ज्यादा याद नहीं है। बस जब भी मैं अस्पताल में बच्चों से पूछती कि तुम्हारे पापा कैसे हैं तो ये कह देते कि ठीक है। बाद में 16 दिन बाद जब मैं घर आई तो मुझे तब पता चला कि वे उसी दिन उसी समय मेरे सामने ही खत्म हो गए थे। मेरी सारी पसलियां टूटी हुई है, पूरे शरीर में गुम चोट लगी थी। अब शरीर पूरी तरह से खराब हो गया है और परिवार का सबसे जिम्मेदार आदमी चला गया है। मुआवजा मिल भी गया तो क्या वह मेरे पति की जगह ले पाएगा। हम हमेशा से खेत में साथ में काम करते थे। छोटी सी खेती में जो भी होता था उसमें खुश हो जाते थे लेकिन अब वो खुशी कहां से आएगी।”
सरकार को इसका समाधान निकालना होगा
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भंडूर गाँव की कुंता के नाम पर जमीन तो नहीं है लेकिन वह हमेशा से खेतों में काम करती आई हैं। बीते साल दिसंबर में वह अपने बेटे के साथ अपने खेत में काम कर रही थी तभी अचानक से एक आवारा पशु ने उन पर हमला कर दिया था जिसमें वह बुरी तरह घायल हो गई थी। आज भी उनका इलाज चल रहा है और वह दवाई खा रही है। आवारा पशुओं की समस्या पर बोलते हुए वह कहती हैं, “मैं उस दिन गन्ना छील रही थी मुझे कुछ नहीं पता अचानक से बिजार आया और उसने टक्कर मार दी। उसके बाद उसने मुझे दो-तीन बार पटका मेरे चिल्लाने पर मेरा लड़का वहां आया और उसने उसे भगाया। लगभग 15 दिन तक मैं एक प्राइवेट अस्पताल में एडमिट रही। मेरी रीढ़ की हड्डी में बाल आ गया, कई पसलियां टूट गई, पेट का मांस फट गया और शरीर में कई जगह गुम चोट लगी हुई है। अभी भी बहुत चलना-फिरना कुछ नहीं होता है। बेल्ट लगाकर रखनी पड़ती है।”
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कुंता आगे कहती है, “उस घटना के बाद जेहन में डर बैठ गया है। तब से मैं खेत में नहीं गई हूं लेकिन हमेशा के लिए तो ऐसा नहीं होगा। हम खेती के भरोसे ही अपना पेट पालते आए हैं उससे दूर होकर कुछ होगा भी नहीं। गाँव में इतने बड़े हादसे होने के बाद कार्रवाई के नाम पर आवारा पशुओं को ले जाने के लिए एक गाड़ी आई थी लेकिन वह केवल छोटे-छोटे बछड़ों और गायों को लेकर गई, बड़े जानवर अभी भी खुले घूम रहे हैं। ये पशु खड़ी की खड़ी फसल बर्बाद कर देते हैं, तमाम गौशाला बनवाई जा रही है लेकिन हमारे गाँव में तो आपको आज भी खुले पशु देखने को मिल जाएंगे। हम तो बस सबसे पहले सरकार से यही चाहते है कि इसका समाधान निकाले। यह किसान की फसल और जान दोनों के लिए बहुत बड़ा खतरा है।”
“खेती को लेकर मौजूदा सरकार के पास कोई नीति नहीं है”
पढ़ाई के साथ-साथ खेती भी करने वाले उज्जवल का कहना है, “खेती घाटे का सौदा नहीं है लेकिन सरकारों की नीतियों ने इसे ऐसा बना दिया है। आज खेती में इस्तेमाल होने वाली हर चीज़ मंहगी होती जा रही है, बीज, बिजली, पानी के दाम बढ़ रहे हैं और फसल की कीमत उसकी लागत भी मुश्किल से निकाल पा रही है। ऐसे में मैं चाहकर भी अपनी पढ़ाई के बाद पूरी तरह से खेती की तरफ नहीं लौटना चाहता हूं। अगर हमें जीवन में आगे बढ़ना है तो खेती से अलग विकल्पों पर काम करना होगा क्योंकि खेती को प्रमोट करने का कल्चर हमारे देश में नहीं है। खेती को लेकर लोगों में उदासीनता सरकारों की वजह से हुई है। आज सरकार के पास खेती को खत्म करने का विजन तो है लेकिन उसे बढ़ाने के बारे में कोई बात नहीं करती है। किसानों की आय को दोगुनी करने का वादा इसी सरकार ने किया था लेकिन हुआ कुछ नहीं बल्कि यह सरकार तो हमारी जमीन तक छीनना चाहती है। किसानों के मुद्दों पर कोई बात नहीं हो रही है बल्कि सरकार उन्हें इस देश का दुश्मन मान रही है उन पर गोलियां चलवा रही है।”
आवारा पशुओं की समस्या आज देश के किसानों के लिए उनकी फसल और जान-माल दोनों के लिए खतरा बन चुकी है। बावजूद इस पर इस तरह से कदम नहीं उठाए जा रहे हैं जितनी आवश्यकता है। हर साल आवारा मेवेशियों की संख्या बढ़ रही है। सरकार गौशाला में इन पशुओं की भर्ती की बात कर रही है लेकिन वास्तविकता अलग है। इस पर उज्जवल का कहना है, “गौशाला में इन पशुओं की क्या स्थिति है इसे देखने के लिए आप किसी भी एक गौशाला में जाएंगे तो देखेंगे कि हम पशुओं के साथ कैसा बर्ताव कर रहे हैं, वहां हालात बहुत खराब है। दूसरा जब हम छुट्टे पशुओं के बारे में सीएम हेल्पलाइन पर बात करते है तो सचिव और प्रधान उसके बाद नैतिक दबाव हम पर डालते है कि शिकायत एक से ज्यादा बार क्यों कर रहे हैं। प्रधान का कहना होता है कि हम तो यहां के पशु भरवा चुके हैं। ये दूसरे गाँव से आ जाते हैं, तो उनके नाम से शिकायत होनी चाहिए। कुल मिलाकर कहीं कोई समाधान नज़र नहीं आता है। हम जानते हैं अधिकतर सरकार ऐसी होती है लेकिन वर्तमान की सरकार के पास तो वास्तव में खेती को लेकर कोई भी बेहतन नीति और समझ नहीं है।”
उज्जवल का कहना है, “खेती को लेकर लोगों में उदासीनता सरकारों की कमी की वजह से हुई है। आज सरकार के पास खेती को खत्म करने का विजन तो है लेकिन उसे बढ़ाने के बारे में कोई बात नहीं है। किसानों की आय को दोगुनी करने का खोखला वादा इसी सरकार ने किया था लेकिन हुआ कुछ बल्कि यह सरकार तो हमारी जमीन तक छीनना चाहती है।”
खेती-किसानी से जुड़े मुद्दों पर अपनी सरकार के काम के बारे में प्रधानमंत्री मोदी ने बीते महीने कहा था कि उनकी सरकार किसानों से किए गए सभी वादों के लिए प्रतिबद्ध है। उनकी यह टिप्पणी केंद्र द्वारा गन्ने के मूल्य पर एफआरफी 25 रूपये बढ़ाकर प्रति क्विटंल 340 होने पर सामने आई। हालांकि साल 2014 में सत्ता के आने के बाद से मोदी सरकार का यह गन्ने का उच्चतम घोषित मूल्य है। चुनाव से ठीक पहले यह कदम सरकार की नीयत साफ दिखाता है। स्क्रॉल में प्रकाशित जानकारी के अनुसार एक दशक पूरा होने के बावजूद यह सरकार किसानों की आय को दोगुनी नहीं कर पाई है। इतना ही नहीं एमएसपी वृद्धि भी इसी काल में धीमी नज़र आई है। तमाम आंकड़े और घटनाएं दिखाती है कि केंद्र की सरकार की किसानों को लेकर नीतियां और व्यवहार कैसा है ऐसे में चुनावों में किसानों की वोट की चोट बहुत महत्वपूर्ण है और इस समय देश का किसान और खेतों हमेशा से काम करने वाली महिलाएं इस स्थिति से परिचित भी है।