इंटरसेक्शनलग्रामीण भारत ‘विकसित’ होते गांवों के बीच खेती-किसानी के लिए सबसे बड़े संकट बने छुट्टा जानवर

‘विकसित’ होते गांवों के बीच खेती-किसानी के लिए सबसे बड़े संकट बने छुट्टा जानवर

गांव के अधिकतर लोगों के पास कोई विकल्प नहीं खेती के सिवा। यहां छुट्टे जानवरों का यह हाल है कि कोई भी बिना कटीले तार का बाड़ और मजबूत खंभा लगाए खेती कर ही नहीं सकता यह व्यवस्था इतनी महंगी है कि गाँव में एक दो लोग ही इसका खर्चा उठा पाते हैं बाकी किसान श्रम करते जूझते अपनी किस्मत को रोते हैं।

मेरे गाँव की किसान तारा देवी ने इस बार अपने खेतों में मटर, सरसों और गेहूं की खेती की थी। वह दिनभर खेतों में रखवाली करती और देर रात तक खेतों में रहतीं, बच्चों को लेकर जानवरों को भगाती थीं। फिर एक रात ढेर सारे गाय और बछड़ों ने उनकी मटर की सारी फसल को चरकर नष्ट कर दिया। सुबह खेत में गयी एकदम से नष्ट फसल देखकर रो पड़ीं कितने दिनों की मेहनत, रखवाली और खाद बीज जुताई सिंचाई का पैसा लगा सब नष्ट हो गया।

जंगलों और पहाड़ों के अंधाधुंध दोहन से किसानों का जीवन बहुत प्रभावित हुआ है। छोटे खेतिहर या बटाई के किसानों को बेहद नुकसान पहुंचा है। राज्य व्यवस्था खेती-किसानी के लिए जितनी उदासीन है उतने ही बड़े अभिशाप है उनके लिए खुले हुए जानवर। पूरब का खेतिहर इलाका पहले ही नीलगाय से त्रस्त था एक दशक से बनैले सुअर और गाय बछड़े से खेती इतनी नष्ट हो रही है कि किसानों के मुंह का आहार छीना जा रहा है। यहां की मुख्य फसल थी गेहूं, चना, मटर सरसों अलसी और अरहर। आज छुट्टे जानवरों के कारण खेती का बड़ा हिस्सा किसानों के घर नहीं जाता। दलहन की फसलें तो एकदम नष्ट हो जाती हैं। जो हाशिये का वर्ग खेत बटाई पर लेकर खेती किसानी करते थे उनके लिए तो ये खुले जानवर अभिशाप बन गए क्योंकि बटाई पर ही सही खेती करते हुए वह मज़दूर नहीं किसान होते हैं। नीलगाय, गाय-बछड़े और बनैले सुअर और बंदरों ने उनको वापस फैक्ट्री आदि की मजदूरी करने के लिए विवश किया।

ग्रामीण महिला किसानों का जीवन एकतरह से खेती-किसानी करके चल रहा था। बेरोज़गारी की मार से जूझते उनके घर परिवार के पुरुष शहर की किसी फैक्ट्री में मजदूरी करते और स्त्रियां खेती करती थीं। यहां एक बात पर ध्यान दिलाना चाहती हूं कि गाँव में खेती का आधार महिला किसान और महिला मजदूर ही हैं। जिनके पास जितना खेत है उसमें खेती करना, खेत बटाई पर लेकर खेती करना, खेतों में जो भी काम होता है उसे यहां बहुतायत में स्त्रियां ही करती हैं। इससे यह होता था कि सामाजिक और आर्थिक रूप से वे मजबूत रहती थीं। अब यह बात अलग है गांव का समाज इस बात को स्वीकार नहीं करता। यहां ताकत, शक्ति या श्रेष्ठता, क्षमता सबका प्रतीक ही पुरुषों को कहा जाता है।

गाँव में कोई स्त्री बहुत ही मेहनती और ज़िम्मेदार है। हर तरह के शारिरिक श्रम को करती है तो लोग बखान में कहते हैं स्त्री नहीं है वह तो पुरुष है। जबकि स्त्रियां हमेशा समाज में पुरुषों से ज्यादा श्रम करती हैं लेकिन उन्हें पुरुषों की तरह मान्यता नहीं मिली। गाँव में सामंती घरों को छोड़कर लगभग सब स्त्रियां खेतों में काम करती हैं। बुवाई, सिंचाई निराई, गोड़ाई, कटाई सबकुछ करने के साथ खेतों की देखभाल भी उनके जिम्मेदारी पर है क्योंकि लगभग पुरुष सब बाहर नौकरी करने गए हैं। ऐसे में दिन में तो किसी तरह जानवरों से खेत की देखभाल करती हैं।

पूरब का खेतिहर इलाका पहले ही नीलगाय से त्रस्त था एक दशक से बनैले सुवर और गाय बछड़े से खेती इतनी नष्ट हो रही है कि किसानों के मुंह का आहार छीना जा रहा है। यहां की मुख्य फसल थी गेहूं, चना, मटर सरसों अलसी और अरहर। आज छुट्टे जानवरों के कारण खेती का बड़ा हिस्सा किसानों के घर नहीं जाता।

गांव के अधिकतर लोगों के पास कोई विकल्प नहीं खेती के सिवा। यहां छुट्टे जानवरों का यह हाल है कि कोई भी बिना कटीले तार का बाड़ और मजबूत खंभा लगाए खेती कर ही नहीं सकता यह व्यवस्था इतनी महंगी है कि गाँव में एक दो लोग ही इसका खर्चा उठा पाते हैं बाकी किसान श्रम करते-जूझते अपनी किस्मत को रोते हैं। ख़रीफ की कोई भी फसल अब हो ही नहीं पाती। जब तक सिर्फ नील गायों का संकट था तब तक दलहन फसल कुछ-कुछ घर आ ही जाती है लेकिन जब से गाय बछड़ों का खेतों पर इतना आक्रमण हुआ कोई भी दलहन फसल घर नहीं आती। लेकिन जो किसान हैं जिनके पास जीवन यापन का और कोई जरिया नहीं है वे खेती न करें तो क्या करें उनकी आस बंधी रहती है कि खेती तो जुआ है हो सकता है इस साल बच जाए।

राज्य को कृषि की इतनी बड़ी तबाही जाने क्यों नहीं दिखती। जब तक छुट्टे जानवर किसान की खड़ी फसल बर्बाद करते रहेंगे किसानों का जीवन त्रासद ही रहेगा। आम गरीब किसान के पास इतने संसाधन नहीं हैं कि वे अपने टुकड़ों में बंटे छोटे-छोटे खेतों में बाड़ लगा कर छुट्टे जानवरों से अपने खेत की सुरक्षा कर सके। बिना बाड़ की खेती को छुट्टा जानवर नीलगाय. सुअर, सांड़ आदि खेत में मटर, आलू, दलहन कोई भी फसल रहने नही देते। दलहन का यहां उत्पादन नहीं हो रहा तो इतनी मंहगी है किसान दाल खा ही नहीं पाता। जानवरों के उत्पात के कारण मजबूर किसान केवल गेहूं और धान ही बो सकेगा फलस्वरूप उसके दाम इतने गिर जाएंगे कि उसकी लागत भी न निकल सकेगी।

जो हाशिये का वर्ग खेत बटाई पर लेकर खेती किसानी करते थे उनके लिए तो ये खुले जानवर अभिशाप बन गए क्योंकि बटाई पर ही सही खेती करते हुए वह मज़दूर नहीं किसान होते हैं। लेकिन नीलगाय से तो वे परेशान थे ही गाय -बछड़े और बनैले सुवर और बंदरों ने उनको वापस फैक्ट्री आदि की मजदूरी करने के लिए विवश किया।

आज उत्तर प्रदेश में किसानों के खेतों में जानवरों ऐसे चरते हैं कि लगता है जैसे ये खेत न होकर कोई जंगल हो। कहर उनका इतना है कि कोई अकेला किसान उनको हांक नहीं सकता। देश का किसान पहले से ही गरीबी और सरकारी दमन से बेहाल है अब वह इन छुट्टे जानवरों की मार झेल रहा है। घर के लोग बारी-बारी खेत की रखवाली कर रहे हैं। रात भर लोग जग रहे हैं। छुट्टे जानवरों को लेकर राज्य सरकार का जो कानून है उसके कारण जानवरों कोई मार लेकिन किसान सरकार के इस कदम की मार झेल रहा है न वह अपनी पीड़ा किसी से कह पा रहा है न ही कोई उनको सुनने वाला ही है। लावारिश पशुओं के आतंक का यह हाल है कि कोई भी मौसम हो जाड़ा, गर्मी, बरसात, किसान खेतों की रखवाली करता है उसपर भी जरा सा गाफिल हुआ कि जो झुंड में खेतों में आते हैं व कुछ घंटे में किसान की महीनों की मेहनत उजाड़ देते हैं।

जब से बूढे पशुओं को बेचने को लेकर उग्र राजनीति हो रही है। किसान अपने बेकार बूढ़े हो चुके पशुओं को ले जाकर कहीं दूर या नदियों के आस-पास आंख में पट्टी बांधकर छोड़ आता है। ऐसे सैकड़ों मवेशी जब बड़े झुंड में आ जाते हैं तो तबाही मचा देते हैं। कुछ सालों से तो गांवों में ये हो रहा है कि अपने गाँव के आवारा पशुओं को लोग ट्राली में भरकर दूसरे गाँव में रात को छोड़ आते हैं। कभी-कभी गर्मियों की दोपहर में भी अक्सर यह होता है कि जिस गाँव में छोड़ने जाते हैं उस गाँव के लोग देख लेते हैं फिर मार-पिटाई, फौजदारी भी होती है।

जानवरों की समस्या जंगलों की कटाई कारण इतनी ज्यादा बढ़ गई है एक तो देश में खेती का मशीनीकरण हो रहा है जिससे बैल की भूमिका नगण्य हो गई। गाय पालने पर होनेवाले खर्च की तुलना में उसके दूध से इतनी कमाई नहीं होती कि उसका पालन-पोषण हो सके। अब गौवंश के बंध्याकरण का काम कागजों पर ही है, सो हर साल हजारों-हजार मवेशी जन्म लेते हैं और यूं ही खेतों और सड़कों पर छुट्टा घूमते हैं। यहां के अखबार उठाकर देख लीजिए आए दिन इन पशुओं के कारण भयंकर दुर्घटनाएं हो रही हैं, लोगों की जान जा रही है लेकिन इन जानवरों के लिए कुछ नहीं किया जा रहा है।

आज उत्तर प्रदेश में किसानों के खेतों में जानवरों ऐसे चरते हैं कि लगता है जैसे ये खेत न होकर कोई जंगल हो। कहर उनका इतना है कि कोई अकेला किसान उनको हांक नहीं सकता। देश का किसान पहले से ही गरीबी और सरकारी दमन से बेहाल है अब वह इन छुट्टे जानवरों की मार झेल रहा है।

खाना-पानी की तलाश में जानवर इधर-उधर बेहाल घूमने लगे। जो कुछ जंगल बचे भी हैं वहां मवेशी के चरने पर रोक है। कहीं, कहीं जो अभी गौशाला आदि खुले भी हैं उनके भी जानवर छुट्टा घूम रहे हैं। गौशाला महज कागज पर चल रही है। पहले गांवों में खूब चारागाह और तालाब, बाग, गड़हे आदि होते थे। ये गाय भैंस और अन्य जानवरों के चरने और रहने की जगहें थीं। सबको विकास की आंधी ने नष्ट कर दिया। आज गाँव में जगह नहीं बची है कि कहीं जानवर रह सकें। सारे बाग कट गए, पोखर और गड़हे पाट दिए गए। तालाबों की ज़मीन समतल कर दी गई है।

यहां मूल समस्या है जानवरों के प्रबंधन की जिस पर राज्य कोई ठोस काम नहीं कर रहा है। ऊपर से जल, जंगल जमीन को लगतार नष्ट किया जा रहा है। राज्य को चाहिए कि इन छुट्टे जानवरों पर कोई पाबंदी लगाए या किसानों को बाड़ लगाने में मदद करे या कुछ ऐसा इंतजाम करे जिससे किसानों को इन जानवरों को छोड़ना ही न पड़े। जैसे फसल की कटाई, मड़ाई सस्ते दर पर उपलब्ध करवाए जिससे किसान पराली और भूसा को कम लागत में अपने घर पर इकट्ठा कर सकें और उन्हें अपने जानवर छोड़ने को मजबूर न होना पड़े। किसानों के खेत पर बाड़े लगाने में मदद करें, गाँव में बची हुई ज़मीनों पर दोबारा चारागाह बनाए। किसी देश राज्य के लिए कृषि और किसान रीढ़ होते हैं उनकी पीड़ा समझकर उनको सहूलियत देनी चाहिए।


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