समाजख़बर खेती-किसानी में मौजूद लैंगिक असमानता को दूर करके अर्थव्यवस्था को मिल सकता है बढ़ावाः रिपोर्ट

खेती-किसानी में मौजूद लैंगिक असमानता को दूर करके अर्थव्यवस्था को मिल सकता है बढ़ावाः रिपोर्ट

संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) द्वारा द स्टटेस ऑफ वीमेन इन एग्रीफूड सिस्टम्स के नाम से जारी रिपोर्ट के अनुसार कृषि के क्षेत्र में लैंगिक समानता आने पर विश्व अर्थव्यवस्था में एक ट्रिलियन यूएस डॉलर की बड़ी रकम जोड़ी जा सकती है।

काम की कोई भी जगह हो लैंगिक असमानता की खाई हर जगह है। ठीक इसी तरह कृषि क्षेत्र में भी महिलाओं की भागीदारी होने के बावजूद उन्हें कई तरह के भेदभाव का सामना करना पड़ता है। कृषि को पुरुषों से जोड़कर देखा जाता हैं जिस वजह से खेती करने वाली महिलाओं के श्रम को तो इस क्षेत्र में माना ही नहीं जाता है। भले ही सदियों से महिलाएं खेती से जुड़े कामों में काम करती आ रही हो। खेती की जमीन पर महिलाओं का स्वामित्व तो उससे भी कम है। खेती में महिलाओं की भूमिका उनके काम को नज़रअदाज करने की वजह से इसका अर्थव्यवस्था तक पर गहरा असर पड़ता है। 

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) द्वारा द स्टटेस ऑफ वीमेन इन एग्रीफूड सिस्टम्स के नाम से जारी रिपोर्ट के अनुसार कृषि के क्षेत्र में लैंगिक समानता आने पर विश्व अर्थव्यवस्था में एक ट्रिलियन यूएस डॉलर की बड़ी रकम जोड़ी जा सकती है। यानी अगर खेती के क्षेत्र में लैंगिक भेदभाव को जड़ से खत्म कर दिया जाए तो यह बड़ा आर्थिक लाभ देगा। रिपोर्ट के मुताबिक़ एग्रीफूड सिस्टम में पुरुष और महिलाएं दोनों मुख्य नियोक्ता है। वैश्विक स्तर पर 36 प्रतिशत महिलाएं एग्रोफूड सिस्टम में काम करती हैं।

भारत में आर्थिक रूप से सक्रिय महिलाओं में से 80 प्रतिशत को खेती रोजगार देती हैं। 33 फीसदी महिलाएं खेती मज़दूरी में शामिल हैं और 48 फीसदी स्व-नियोजित किसान हैं।

वैश्विक स्तर पर मछली पालन और जलीय कृषि के क्षेत्र में सभी श्रमिकों में से 21 फीसदी महिलाएं हैं। इतना ही नहीं पूरी जलीय मूल्य श्रृंखला में (फसल से पहले और बाद के काम) में लगभग 50 प्रतिशत महिलाएं काम करती हैं। महिला मजदूरों की संख्या पार्ट टाइम वर्क और अन्य कामों में पुरुष श्रमिकों से ज्यादा हैं। समान आकार के महिला और पुरुष के खेतों में भूमि उत्पादकता में 24 फीसद जेंडर गैप है।  

महिलाओं को मिलती हैं कम मजदूरी

बहुत से देशों में एग्रोफूड प्रणाली महिलाओं की आजीविका का मुख्य ज़रिया है। दक्षिण एशिया के देशों में एग्रोफूड सिस्टम में 47 फीसदी पुरुषों के मुकाबले 71 फीसदी महिलाएं श्रमबल में हैं। श्रमबल में ज्यादा होने के बावजूद भी महिलाओं को भेदभाव का भी सामना करना पड़ता है। नतीजन महिलाओं की आय में असमानता मौजूद है। खेती में लगी महिला कर्मचारियों को उनके साथ काम करने वाले पुरुषों की तुलना में 20 प्रतिशत कम वेतन मिलता है। मजदूर महिलाओं को पुरुषों द्वारा कमाए एक डॉलर के मुकाबले 82 सेंट मिलते हैं। पुरुषों के पास खेती की जमीन का ज्यादा स्वामित्व हैं।

रिपोर्ट के मुताबिक़ 68 देशों में खेती और ग्रामीण विकास से जुड़े 75 फीसदी नीति संबंधी दस्तावेज महिलाओं की भूमिका और चुनौतियों को पहचानते हैं। वहीं केवल 19 फीसदी देशों ने पुरुष और महिलाओं दोनों से जुड़े नीतिगत लक्ष्यों को शामिल किया है। रिपोर्ट में यह कहा गया है कि  कृषि-खाद्य प्रणालियों में महिलाओं के लिए पूर्ण एवं समान रोजगार की राह में अनेक बाधाएं है जो उनकी उत्पादकता को प्रभावित करती है। इसका प्रभाव कृषि उत्पादकता पर भी पड़ता है।

तस्वीर साभारः United Nation

आपदाओं के दौरान महिलाओं के पास सीमित संसाधन और संपत्ति उनकी आपदा का सामना करने की क्षमता को प्रभावित करती हैं।  रिपोर्ट के मुताबिक वैश्विक स्तर पर कोविड-19 महामारी के पहले साल में एग्रीफूड प्रणाली के ऑफ-फार्म से दो प्रतिशत पुरुषो की तुलना में 22 प्रतिशत महिलाओं की नौकरी छूटी थी। इतना ही नहीं साल 2021 में दुनिया में 31.9 फीसदी महिलाओं ने खाद्य असुरक्षा का सामना किया था। कोविड-19 के दौरान महिलाओं और लड़कियों को अपने जेंडर भूमिका की वजह से उन बाधाओं का सामना करना पड़ा जो पुरुष नहीं करते हैं।

रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि अगर खाद्य एवं कृषि संगठन ने समानता को स्थापित करने पर ध्यान दिया तो इससे केवल महिलाओं को फायदा नहीं होगा बल्कि सारे समाज को इसका लाभ पहुंचेगा। खाद्य एवं कृषि संगठन के महानिदेशक क्यू डोंग्यू का कहना है कि अगर हम खेती-खाद्य प्रणालियों में व्याप्त विषमताओं को दूर करके, महिलाओं को सशक्त बनाएं तो इससे गरीबी को खत्म किया जा सकता है और दुनिया से भुखमरी को खत्म करने में भी मदद मिलेगी।

भारतीय महिलाओं का कृषि में योगदान

ऑक्सफैम की रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में आर्थिक रूप से सक्रिय महिलाओं में से 80 प्रतिशत को खेती रोजगार देती हैं। 33 फीसदी महिलाएं खेती मज़दूरी में शामिल हैं और 48 फीसदी स्व-नियोजित किसान हैं। ग्रामीण भारत में 85 फीसदी महिलाएं खेती से जुड़ी हुई हैं लेकिन केवल 13 फीसदी के पास जमीन का स्वामित्व है। यह स्तिथि बिहार में और भी खराब है। वहां केवल 7 फीसदी महिलाओं के पास खुद की जमीन है। खेती से जुड़ी कई गतिविधियों में महिलाएं महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। 

तस्वीर साभारः IDH

हिंदुस्तान टाइम्स में छपी ख़बर के मुताबिक़ भारत का पशुधन सिस्टम दुनिया का सबसे बड़ा क्षेत्र है जिसमें 70 प्रतिशत काम महिलाओं के द्वारा किया जाता है। खेती के क्षेत्र में महिलाओं के योगदान में चाय उत्पादन में 47 फीसदी महिलाएं काम करती हैं। कपास की खेती में 47 फीसदी, तिलहन उगाने में 45 फीसदी और सब्जियों के उत्पादन में 39 फीसदी महिलाएं काम करती हैं। 

खेती में लगी महिला कर्मचारियों को उनके साथ काम करने वाले पुरुषों की तुलना में 20 प्रतिशत कम वेतन मिलता है। मजदूर महिलाओं को पुरुषों द्वारा कमाए एक डॉलर के मुकाबले 82 सेंट मिलते हैं। पुरुषों के पास खेती की जमीन का ज्यादा स्वामित्व हैं।

खेती में महिलाओं के योगदान को किया जाता है नज़रअंदाज

खेती के क्षेत्र में महिलाओं के योगदान के बावजूद खेती से जुड़ी नीतियों में उनका पक्ष नज़रअंदाज किया जाता है। कई अध्ययनों के मुताबिक़ महिलाओं की बीज, उर्वरक, मजूदर, वित्त, महत्वपूर्ण सेवाओं ( ट्रेनिंग और बीमा) और संगठित बाजार तक पुरुषों के मुकाबले पहुंच कम है। खेती के क्षेत्र से जुड़ी महिलाओं के बीच इस तरह के अंतर की वजह सामाजिक व्यवस्था और भेदभावपूर्ण मानदंड है। इसकी पहली वजह तो यही है कि महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले कमतर माना जाता है। खेती और जमीन को पुरुषों का समझा जाता है। 

लैंगिक पूर्वाग्रह की वजह से छोटी जोत वाली महिला किसान सुविधाओं और नीतियों का लाभ भी नहीं ले पाती हैं। इसलिए लैंगिक अनुकूल नीति को बनाने में सबसे ज्यादा ध्यान देने की आवश्यकता है। पितृसत्तात्मक समाज के बनाए नियमों को खत्म कर महिलाओं का जमीन पर मालिकाना हक को बढ़ाना होगा। हालांकि इस स्थिति को बदलने के लिए लगातार प्रयास किये जा रहे हैं। विश्व बैंक ने कृषि क्षेत्र में लैंगिक समानता को एक विशिष्ट लक्ष्य बनाया है। महिलाओं की भूमि और वित्त तक पहुंच बनाने पर जोर दिया है।  

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