भारत में वंशवाद राजनीति नया नहीं है। न ही इससे जुड़े आरोप-प्रत्यारोप नए हैं। भारत में वंशागत राजनेताओं की एक लंबी सूची ऐसी भी है, जिन्होंने अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए अपने परिवार के खिलाफ विद्रोह किया है। लेकिन जब बात राजनीति में बेटियों को अधिकार देने की और हिस्सेदारी निभानी की बात आती है, तो इसमें पुरुषों और महिलाओं में अंतर पाया जाता है। हालांकि विभिन्न रिपोर्ट में यह साबित हो चुका है कि महिलाएं बेहतर शासक और सार्वजनिक भूमिका में बेहतर जिम्मेदारी निभाती हैं।
प्यू रिसर्च सेंटर के एक सर्वेक्षण के अनुसार में दस में से आठ लोगों का कहना है कि महिलाओं के लिए पुरुषों के समान अधिकार होना बहुत जरूरी है। इनमें 81 फीसद हिंदू और 76 फीसद मुस्लिम शामिल हैं। देश के आम लोग मोटे तौर पर महिलाओं को राजनीतिक नेता के रूप में स्वीकार करते हैं। इस सर्वे में शामिल अधिकतर लोगों का कहना है कि महिलाएं और पुरुष समान रूप से अच्छे राजनीतिक नेता बनते हैं। वहीं 14 फीसद का मानना है कि महिलाएं आमतौर पर पुरुषों की तुलना में बेहतर नेता बनती हैं।
हाल के वर्षों में वंशवाद का आरोप विशेष रूप से उभरा है। हालांकि विपक्ष इसका दोष कांग्रेस पर लगाती नजर आती है। लेकिन देश में अनेकों पार्टियों में एक पीढ़ी से दूसरी, तीसरी और चौथी पीढ़ी ने भी राजनीतिक हिस्सेदारी निभाई है। आगामी लोकसभा चुनाव में मंगलवार शाम तक घोषित 250 नामों में से कांग्रेस के हर चार उम्मीदवारों में से एक राजनीतिक परिवार से है, जबकि 424 घोषित उम्मीदवारों में से भारतीय जनता पार्टी के हर पांच में से एक राजनीतिक परिवार से है।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में राजनीति में आना सिर्फ मौका नहीं पैसा, समय और लोगों का समर्थन और उनके साथ कामकाज की मांग करता है। दशकों से, महिलाओं की तुलना में भारतीय पुरुषों के मतदान करने की काफी अधिक संभावना रही है। गौरतलब है कि 2019 के आम चुनाव में पुरुष और महिला मतदान के बीच का ऐतिहासिक अंतर मिट गया था। भारत के आगामी लोकसभा चुनावों की भविष्यवाणियों से पता चलता है कि यह प्रवृत्ति जारी रहने की उम्मीद है। ऐसे में जरूरी है कि महिला नेताओं या ऐसी महिला जो राजनीति में कदम रखना चाहती हैं, उन्हें मौका मिले।
कितने हैं महिला उम्मीदवार
संसद ने पिछले साल महिलाओं के लिए लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में 33 फीसद सीटें आरक्षित करने का विधेयक पारित किया था। लेकिन हाल ही में जारी किए गए उम्मीदवारों के नामों पर ध्यान दें तो महिला उम्मीदवारों की संख्या केवल 8 फीसद है। ये नाम लोकसभा चुनाव के पहले चरण के लिए हैं। एक ऐसे देश में जहां सांस्कृतिक, सामाजिक और ऐतिहासिक रूप से महिलाओं के गतिविधियों को नियंत्रित किया गया हो, उन्हें वित्तीय संपत्ति से दूर रखा जाता हो और शिक्षा जैसे बुनियादी अधिकार के लिए पितृसत्ता से लड़ना पड़ता हो, वहां महिलाओं का राजनीति में आना बेहद चुनौतीपूर्ण और मुश्किल होता है। लेकिन वंशगत राजनीति में भी महिलाओं के मुकाबले पुरुषों का चुनाव दिखाता है कि राजनीति में किस हद तक पुरुषों का वर्चस्व है और किस तरह समाज आज भी पितृसत्ता में जकड़ा है।
क्या महिलाओं को मौका मिल रहा है
जब वंशवादी राजनीति में महिलाओं की बात होती है, तो कुछ नाम सबसे पहले सामने आते हैं। उदाहरण के लिए, नेहरू-गांधी परिवार से इंदिरा गांधी और सोनिया गांधी, पांच से अधिक बार तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और राज्य की राजनीति में प्रमुख व्यक्ति रह चुके एम करुणानिधि की बेटी कनिमोझी करुणानिधि और महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के संस्थापक शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले। लेकिन इससे राजनीतिक विरासत वाले परिवारों की महिलाओं का यह रास्ता आसान नहीं हो जाता, जो राजनीति में आना चाहती हैं। उन्हें सबसे पहले घर में पितृसत्ता से लड़ने की जरूरत होती है। हमारे देश में खासकर किसी मृत विधायक की पत्नी का उप-चुनाव में उसकी सीट जीतना बहुत आम बात है।
यह देखा गया है कि राजनीतिक परिवारों की कई महिलाएं बिना किसी राजनीतिक पृष्ठभूमि या अनुभव के ‘प्रॉक्सी’ के रूप में राजनीति में प्रवेश करती हैं। आम तौर ये तब होता है जब परिवार के किसी पुरुष सदस्य- पिता या पति की मौत हो जाती है और चुनाव लड़ने के लिए कोई पुरुष उत्तराधिकारी मौजूद नहीं होता है। हालांकि अपने मृत पति की सीट से चुनाव लड़ने वाली पत्नी को सहानुभूति वोट का लाभ सिर्फ पहली बार ही हो सकता है। लेकिन अगर वे राजनीति में बने रहना चाहती हैं, तो उन्हें अपना करियर खुद बनाने की जरूरत होगी। उन्हें घर में, पार्टी में और लोगों के बीच अपनी जगह बनानी होगी।
महिलाओं की राजनीति में भागीदारी के रास्ते कैसे होंगे तैयार
भारतीय राजनीति में महिलाओं से सफल नेतृत्व के बावजूद कैसे पुरुषों को महत्व दिया जाता है, इसका एक उदाहरण है इंद्रा रेड्डी की पत्नी और तत्कालीन आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में सबसे लंबे समय तक मंत्री रह चुकीं सबिता इंद्रा रेड्डी। हालांकि सबिता पहली बार सहानुभूति वोट से जीतीं, लेकिन निर्वाचन क्षेत्र बदलने के बाद भी वह जीत गईं और हर चुनाव में जीतती रहीं। 2014 में कांग्रेस पार्टी के एक परिवार एक टिकट नियम के फैसले के कारण, उन्होंने अपने बेटे कार्तिक रेड्डी के लिए चुनाव लड़ने का रास्ता तैयार किया था। लेकिन जब वह हार गए, तो सबिता राजनीति में वापस आ गईं और साल 2023 तक मंत्री के रूप में कार्यरत थीं।
कई बार महिला उम्मीदवार आखिरकार परिवार के अन्य पुरुष सदस्यों के लिए पद संभालने का रास्ता बनाती हैं। जैसेकि राष्ट्रवादी काँग्रेस पार्टी के सुभाषराव कुल की पत्नी रंजना कुल, जिन्होंने 1990 से 1999 तक महाराष्ट्र में दौंड निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया था। रंजना कुल ने साल 2004 में दौंड से चुनाव लड़ा और जीता भी था। लेकिन इसके बाद 2014 के आम चुनाव में उनके बेटे राहुल कुल ने उनकी जगह ले ली।
पुरुष के गैर मौजूदगी में महिला की भागीदारी
इसी तरह महाराष्ट्र के पार्वती निर्वाचन क्षेत्र से मौजूदा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) विधायक माधुरी मिसाल ने राजनीति में तब प्रवेश किया जब उनके पति, भाजपा पार्षद सतीश मिसाल की 2003 में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। साल 2007 से 2012 तक पार्षद के रूप में कार्य करने के बाद, मिसाल 2009 से विधान सभा में पार्वती की प्रतिनिधि रही हैं। 2019 में, उन्हें भाजपा की पुणे इकाई के प्रमुख के रूप में नियुक्त किया गया। वह इस पद को संभालने वाली पहली महिला भी बनीं। इसी तरह भारतीय जन संघ के नेता और छत्तीसगढ़ के मुख्य मंत्री रह चुके रमन सिंह के बेटे अभिषेक सिंह पहले ही राजनीति में उतर चुके हैं। लेकिन उनकी बेटी अस्मिता सिंह के राजनीति में आने के अबतक सिर्फ चर्चे सुनाई दे रहे हैं। वहीं वित्त मंत्री रह चुके यशवंत सिन्हा के दो बेटों में जयंत सिन्हा राजनीति में अपनी जगह बना चुके हैं। पर उनकी बेटी राजनीति से दूर हैं।
जरूरी नहीं है कि हर महिला राजनीति में रुचि रखती हो। अक्सर अगर पत्नी की राजनीति में रुचि नहीं है, या उसका एक बेटा है जो पहले से ही राजनीति में रुचि रखता है, तो बेटी नहीं, बल्कि बेटा पार्टी और परिवार दोनों की स्वाभाविक पसंद होती है। बेटी का नाम भी तभी सामने आता है, जब पत्नी और बेटे दोनों राजनीति में रुचि न रखते हों। आम तौर पर अगर बेटा और बेटी दोनों राजनीति में रुचि रखते हैं, तो बेटी कभी भी परिवार की पहली पसंद नहीं होती है। यह पूरा चक्र ठीक उसी तरह चलता रहता है जैसे देश में संपत्ति और कारोबार में उत्तराधिकार चलता है।
परिवारवाद में महिलाओं के बदले पुरुषों का चुनाव समझने के लिए एक और उदाहरण है कवि, गायक और कम्युनिस्ट क्रांतिकारी गुम्माडी विट्ठल राव या ‘गद्दार’ की बेटी का नाम है। बता दें कि गद्दार का एक बेटा- जीवी सूर्य किरण और बेटी गुम्मडी वी. वेन्नेला हैं। हालांकि खुद गद्दार का चुनावी राजनीति में उतार-चढ़ाव वाला इतिहास रहा है। अगस्त 2023 में उनकी अचानक मौत के बाद वेन्नेला ने मुख्यधारा की राजनीति में रुचि दिखाई पर उन्हें उनके भाई के स्थान पर चुना गया। इसके बाद वेन्नेला भारत राष्ट्र समिति की जी लस्या नंदिता के खिलाफ सिकंदराबाद छावनी सीट से चुनाव लड़ी थीं। सत्ता में रहे तत्कालीन पार्टी से नंदिता को भी उनके पिता सयाना के मौत के बाद ही मौका मिला था।
हालांकि राजनीतिक अनुभव के बिना महिला उम्मीदवारों को पति के मौत के बाद मौका देना महिला उम्मीदवारों के लिए स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति में अपना करियर बनाने का मौका देता है। लेकिन यह लोकतांत्रिक सिद्धांतों और सरकार की क्षमता को प्रभावित करता है। साथ ही, पुरुषों के मुकाबले या सिर्फ उनके मौत या रुचि न दिखाने पर ही महिलाओं को चुनना, पितृसत्तात्मक मानसिकता दिखाता है। ये महिलाएं उम्मीदवारी जीतती हैं या नहीं, इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या राजनीति में रुझान रखने पर इन्हें वह मौका मिल रहा है जिनकी ये हकदार हैं? ये वे महिलाएं हैं जो भले राजनीति में हर बार न जीती हों, पर घर के बाहर आने की लड़ाई को वे अपने दम पर जीत रही हैं।