देश में चुनाव शुरू हो चुका है और हम चारों ओर से चुनाव से जुड़ी खबरों और घटनाओं को सुन रहे हैं। पिछले दिनों चुनाव से जुड़े कई अहम मुद्दों में एक विषय इलेक्टोरल बॉन्ड का रहा। 2017 में पेश किए गए, चुनावी बांड ने व्यक्तियों और कॉर्पोरेट समूहों को किसी भी राजनीतिक दल को गुमनाम रूप से असीमित मात्रा में पैसे दान करने में सक्षम बनाया था। इस साल अप्रैल से मई में होने वाले लोकसभा चुनावों से कुछ हफ्ते पहले, सात साल पुरानी चुनावी फंडिंग प्रणाली को खत्म करने के लिए फरवरी में सुप्रीम कोर्ट ने इसपर रोक लगा दी। इस ऐतिहासिक फैसले से पहले तक, दानकर्ता स्टेट बैंक (एसबीआई) से निश्चित डिनोमीनेशन (मूल्यवर्ग) में बांड खरीदते थे जो किसी भी राजनीतिक दल को सौंप दिए जाते थे।
इन बॉन्ड को राजनीतिक दल बैंक खाते का उपयोग करके कैश कर सकते थे। बांड के तहत लाभ पाने वाले राजनीतिक दलों को किसी को, यहां तक कि भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) को भी, दानकर्ता का नाम बताने की जरूरत नहीं थी। ये बांड 1 हजार, 10 हजार, 1 लाख, 10 लाख और 1 करोड़ के गुणकों में बेचे जाते हैं। किसी राजनीतिक दल को दान देने के लिए उन्हें केवाईसी-किए हुए खाते के माध्यम से खरीदा जा सकता है। राजनीतिक दलों को तय समय के अंदर इन्हें एनकैश करना होता है।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अब चुनावी फंडिंग प्रणाली को खत्म कर दिया है, जो व्यक्तियों और कंपनियों को राजनीतिक दलों को असीमित और गुमनाम दान देने की अनुमति देती थी। अदालत ने कहा कि मतदाताओं को सूचना का अधिकार है जो वोट डालने के लिए जरूरी है। बड़ा योगदान देने वाले दानकर्ताओं के नाम गुमनाम रखना उस मौलिक अधिकार के खिलाफ है। बड़े कॉर्पोरेट दाताओं को उनके गुमनाम योगदान के बदले में लाभ मिल सकता है, जिसमें विधायकों तक करीबी पहुंच और अनुकूल नीतिगत फैसले शामिल हैं। खुलासा करने के आवश्यकता को हटाने से यह योजना भारत के चुनावी लोकतंत्र पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। अदालत ने यह भी कहा कि फंडिंग का पूरी तरह से खुलासा न करने की प्रथा को ही खत्म किया जाना चाहिए।
इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़ी दलीलें और चिंताएं
तत्कालीन वित्त मंत्री अरूण जेटली ने भारत सरकार की ओर से, इस योजना की शुरुआत करते हुए कहा था कि इलेक्टोरल बॉन्ड देश में राजनीतिक फ़ंडिंग की व्यवस्था को साफ़ कर देगा। लेकिन, पिछले कुछ सालों में बार-बार ये सवाल उठा है कि इलेक्टोरल बॉन्ड के ज़रिए चंदा देने वाले की पहचान गुप्त रखी गई है। इसलिए, इससे काले धन के इन्फ्लो (अंतर्वाह) को बढ़ावा मिल सकता है।
इलेक्टोरल या चुनावी बांड के समर्थकों का तर्क है कि चूंकि राजनीतिक दलों को औपचारिक बैंकिंग चैनलों के माध्यम से दान मिलता है, जिसका सरकारी अधिकारियों द्वारा ऑडिट किया जा सकता है, यह पुरी प्रक्रिया को पारदर्शी बनाता है। इसके अलावा, दानदाताओं की पहचान गोपनीय रहती है, जिससे उनके राजनीतिक जुड़ाव के लिए प्रतिशोध या धमकी का जोखिम कम हो जाता है।
हालांकि, इलेक्टोरल बॉन्ड के शुरुआत के बाद से ही ये विवाद का विषय रहा है। कई लोगों ने सवाल उठाया है कि क्या सत्ता में बैठे वे लोग अपने बताए गए लक्ष्यों को पूरा करने में कामयाब रहे हैं या इसके बजाय राजनीतिक फाइनैन्सिंग में अस्पष्टता को बढ़ावा मिली है। चुनावी बांड की एक मुख्य आलोचना इन पैसों के स्रोत के संबंध में पारदर्शिता की कमी है। देने वाले की पहचान जनता या चुनाव आयोग के सामने उजागर नहीं की जाती है, जिससे राजनीतिक योगदान के स्रोत का पता लगाना मुश्किल हो जाता है।
पारदर्शिता की इस कमी ने यह चिंता भी पैदा कर दी है कि इलेक्टोरल बॉन्ड का इस्तेमाल राजनीतिक व्यवस्था में अवैध धन को सफेद करने के लिए किया जा सकता है। राजनीतिक पार्टियों का जनता के बीच में टिके रहने, लोकप्रिय बने रहने के लिए प्रचार-प्रसार की ज़रूरत होती है जिसके लिए भारी मात्रा में पैसे की आवश्यकता होती है। जिस पार्टी के पास जितना ज्यादा पैसा होगा, वह अपने प्रचार-प्रसार में उतने ज्यादा नए तकनीक, अधिक कार्यकर्ता और चुनाव की व्यापक तैयारियों पर खर्च कर सकते हैं।
अज्ञात स्त्रोतों से कितना मिला पैसा
गैर-सरकारी संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की एक रिपोर्ट के अनुसार, राजनीतिक दलों द्वारा प्राप्त लगभग 60 फीसद धन का पता नहीं लगाया जा सकता है और यह चुनावी बॉन्ड सहित ‘अज्ञात’ स्रोतों से आता है। रिपोर्ट के अनुसार वत्तीय वर्ष 2004-05 से 2022-23 के बीच, सभी राष्ट्रीय दलों ने अज्ञात स्त्रोतों से कुल मिलाकर 19,083 करोड़ से भी ज्यादा आय एकत्र की है। एडीआर की रिपोर्ट बताती है कि बीजेपी ने वित्त वर्ष 2022-23 में चुनाव और सामान्य प्रचार पर 1092 करोड़ रुपये खर्च किए, जो कांग्रेस से लगभग पांच गुना अधिक है।
वत्तीय वर्ष 2022-23 के दौरान, बीजेपी ने अज्ञात स्त्रोतों से 1400 करोड़ से भी ज्यादा की आय की घोषणा की, जो सभी राष्ट्रीय दलों के घोषित अज्ञात राशि का 76 फीसद है। कांग्रेस ने अज्ञात स्त्रोतों से 315 से ज्यादा करोड़ पाया जो सभी राष्ट्रीय दलों के कुल अज्ञात स्त्रोतों के आय का 17 फीसद है। अलजज़ीरा के रिपोर्ट अनुसार टॉप 10 कॉरपोरेट दानकर्ताओं- फार्मा से लेकर निर्माण कंपनियों तक, जिनकी पिछले पांच वर्षों में केंद्रीय कानून प्रवर्तन एजेंसियों द्वारा जांच की जा रही थी, ने 13 अरब रुपये से अधिक जमा किया है जिसमें कुछ न कुछ भाजपा को भुगतान किया गया।
चुनावी बॉन्ड के माध्यम से राजनीतिक विज्ञापन के लिए खर्च
राजनीतक दलों को अपनी नीतियों और लक्ष्यों को जनता तक पहुंचाने के लिए पैसों की जरूरत होती है। यह काम राजनीतिक विज्ञापनों के माध्यम से सबसे अधिक किया जाता है। गूगल के ऐड्स ट्रांसपेरेंसी सेंटर के अनुसार, भाजपा ने 1 जनवरी से 11 अप्रैल, 2024 के बीच लगभग 80,667 राजनीतिक विज्ञापनों पर कम से कम 39,41,78,750 रुपये खर्च किए। यह इस साल भारत में गूगल पर राजनीतिक विज्ञापनों पर खर्च किए गए कुल फंड का 32.8 फीसद है।
कांग्रेस ने इसी समय सीमा में गूगल पर 736 विज्ञापनों पर 9 करोड़ रुपये खर्च किए। द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के लिए काम करने वाली रणनीति कंपनी पॉपुलस एम्पावरमेंट प्राइवेट लिमिटेड ने 10.2 करोड़ रुपये खर्च किए। राजनीतिक रणनीति फर्म इंडियन पॉलिटिकल एक्शन कमेटी की होल्डिंग कंपनी इंडियन पीएसी कंसल्टिंग प्राइवेट लिमिटेड ने 7.25 करोड़ रुपये खर्च किए हैं। यह कंपनी पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस पार्टी के लिए काम करती है। लेकिन इन विज्ञापनों पर होने वाला खर्च भी असल में जनता का पैसा भी है। सभी सरकारी विभागों में प्रचार-प्रसार पर होने वाले खर्च के लिए अलग प्रावधान है।
2019 लोकसभा चुनाव के मद्देनजर में गूगल पर राजनीतिक विज्ञापनों में भाजपा का हिस्सा 41.4 प्रतिशत रहा, तमिलनाडु के डीएमके 13.6 फीसद के साथ दूसरे और कांग्रेस 10 फीसद के साथ तीसरे स्थान पर थी। 14.7 फीसद राजनीतिक विज्ञापन के साथ भाजपा फेसबुक पर भी सबसे आगे थी। उसके बाद 6 प्रतिशत के साथ कांग्रेस थी। फरवरी और मार्च 2019 के बीच, राजनीतिक दलों के बीच भाजपा सबसे अधिक खर्च करने वाली पार्टी थी।
राजनीतिक विज्ञापनों के मामले में आम आदमी पार्टी को दिल्ली में उनकी ही सरकार ने अपने राजनीतिक विज्ञापनों को कथित तौर पर सरकारी संदेश के रूप में प्रसारित करने के लिए 10 दिनों के भीतर 163.62 करोड़ रुपये का भुगतान करने के लिए कहा था। 2021 में फेसबुक पर राजनीतिक विज्ञापनों पर खर्च करने में पश्चिम बंगाल ने लगभग 3.74 करोड़ रुपये खर्च किए थे, जो बीजेपी के खर्च किए गए रुपए से भी अधिक था।
क्या बीजेपी को हो सकता है नुकसान
रॉयटर्स के एक रिपोर्ट मुताबिक दानकर्ता अभी भी ‘इलेक्टोरल ट्रस्ट’ नामक संस्थाओं के माध्यम से पार्टियों में योगदान कर सकते हैं। वे संस्थाएं धन एकत्र करती हैं और उन्हें वितरित करती हैं। ट्रस्टों को दानकर्ताओं के नाम बताने होंगे और पार्टियों को यह बताना होगा कि उन्हें इन ट्रस्टों से कुल कितना प्राप्त हुआ। हालांकि इस खुलासे से हर एक दानकर्ता और पार्टी के बीच सीधा संबंध नहीं बनता है। इलेक्टोरल बॉन्ड पर सुप्रीम कोर्ट के रोक और भाजपा के इसमें सबसे ज्यादा हिस्सेदारी से भाजपा पर भ्रष्ट होने ने सबसे ज्यादा आरोप लग रहे हैं। लेकिन क्या आम जनता भ्रष्टाचार की वजह से आओने वोटिंग के निर्णय लेती है?
स्क्रॉल में छपी एक खबर बताती है कि कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि स्थानीय भ्रष्टाचार का आर्थिक मूल्य उतना ही है, जितना कि बड़े घोटाले का, भले ही यह स्थानीय भ्रष्टाचार खबर न बने। यानि कि बड़े पैमाने पर राजनीतिक दल चाहे इलेक्टोरल बॉन्ड के फैसले के कारण दबाव महसूस कर रही हो, ज़मीनी स्तर पर ये आम जनता को शायद उतना प्रभावित न करे, जितना कि लोकल मुद्दे। वहीं लोकनीति-सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के प्री पोल सर्वे के अनुसार, लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा ने विपक्ष के इंडिया अलाएअन्स पर 12 प्रतिशत अंकों की बढ़त बना रखी है। इसलिए, इलेक्टोरल बॉन्ड चुनाव को प्रभावित करने का अहम कारक हो सकता है पर निर्णायक कारक शायद नहीं।