आज पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन के संकटों से जूझ रही है। ये बात एकदम साफ हो चुकी है कि यह कोई प्राकृतिक आपदा नहीं है बल्कि उपभोक्तावादी संस्कृति की उपज है। इस पर अभी और इसी वक्त रोक लगाना जरूरी है। लेकिन पर्यावरणविदों की चेतावनियों के बावजूद दुनिया की सरकारों समेत हमारी सरकार भी इसे लेकर खासा सचेत नहीं है। मुंबई का फेफड़ा कहा जाने वाला आरे का जंगल लोगों के भारी विरोध के बावजूद भी मेट्रो कारशेड के नाम पर रातों-रात काट डाला गया था। लोगों के जीवन के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने वाले उच्चतम न्यायालय की नींद तब खुलती है, जब पेड़ कट जाते हैं और उसके बाद वह पेड़ों के काटने पर रोक लगाने का आदेश पारित करते हैं।
इसी तरह आज दिल्ली का फेफड़ा कहे जाने वाले हसदेव के जंगल को बचाने के लिए कितने ही लोग सरकार का विरोध कर रहे हैं। समस्या ये है कि राज्य का काम मनुष्य और पर्यावरण की रक्षा करना होता है और राज्य ही मुनाफाखोरी की इस मुहिम में अगुवा बना हुआ है। पर्यावरण परिवर्तन के संकट की जड़ को देखा जाए तो हम पाते हैं कि धरती पर जब से निजी संपत्ति की मान्यता का जन्म है, तभी से धरती की बर्बादी का खेल शुरू हुआ है। जलवायु परिवर्तन का संकट सब पर आता है, लेकिन जो जिन मनुष्यों का जीवन पूर्ण रूप जमीन से जुड़ा हुआ है और संसाधनों की भी कमी है, उनके लिए जलवायु परिवर्तन का संकट झेलना बहुत कठिन हो जाता है। उत्तरप्रदेश में प्रतापगढ़ एक पिछड़े जिले में आता है। इस इलाके में काम करने वाली महिलाओं से बातचीत में फेमिनिज़म इन इंडिया ने पता लगाने की कोशिश की कि जलवायु परिवर्तन की समस्या किस तरह उन्हें प्रभावित कर रही है।
जब सूखे या अत्यधिक बारिश की मार से सब्जियों की फसलें नष्ट हो जाती हैं, तो वे मजदूरी के लिए बेबस हो जाती हैं। मजदूरी के जगह पर कम मजदूरी में काम करना पड़ता है क्योंकि भूख की लाचारी में हम इसका बहुत विरोध नहीं कर पातीं।
खेती मजदूरी और पशुपालन हो रहा प्रभावित
प्रतापगढ़ जिले के बिनैका गांव की सोना देवी खेती मजदूर हैं और पशुपालन भी करती हैं। सोना देवी ने बताया कि उनके पास आय के जो साधन हैं सब जमीन व पर्यावरण से जुड़े हैं। आज जलवायु परिवर्तन के संकट के कारण उनकी खेती-किसानी से लेकर पशुपालन और खेत-मजदूरी भी प्रभावित हो रही है। वह कहती है, “समय पर पानी न बरसने से उनकी खेती तो नष्ट हो ही जाती है और पशुओं का चारा भी नहीं मिलता।” जिन किसानों के खेतों में सोना देवी खेत मजदूरी करती हैं उनकी फसलें नष्ट हो जाती हैं तो उनको खेत-मजदूरी का काम भी नहीं मिलता। आधुनिक संसाधन उनके पास नहीं है तो इस तरह जलवायु परिवर्तन के संकट से उनका जीवन घोर आर्थिक संकट में चला जाता है।
उत्तरप्रदेश के आजमगढ़ जिले की रहने वाली जीरा देवी भी छोटी जोत की किसान हैं जो सब्जियों की खेती करती हैं। जलवायु परिवर्तन की महिलाओं पर मार को लेकर वह कहती हैं, “किसी भी राज्य-समाज के लिए यह लज्जाजनक बात है। जब सूखे या अत्यधिक बारिश की मार से सब्जियों की फसलें नष्ट हो जाती हैं, तो वे मजदूरी के लिए बेबस हो जाती हैं। मजदूरी के जगह पर कम मजदूरी में काम करना पड़ता है क्योंकि भूख की लाचारी में हम इसका बहुत विरोध नहीं कर पातीं।” वह आगे जोड़ती हैं, “ऐसे में गाँव के लगभग सारे पुरुष मजदूरी के लिए शहर चले जाते हैं। बचती हैं अकेली महिलाएं और काम की तलाश के लिए उन्हें भटकना पड़ता है और तब उन्हें काम की जगह पर यौन-हिंसा का भी सामना करना पड़ता है।”
ये सारी समस्याएं हम महिलाओं के जीवन को और कठिन बना देती हैं। आज हमारे पानी का जितना संकट बढ़ गया है पहले इतना नहीं था। साइट पर काम करते हुए पानी देखती हूँ तो मन करता है कि यही पानी घर लेकर चली जाऊँ। लेकिन ये संभव नहीं। मजदूरी करने के बाद जब हम पति-पत्नी घर पहुँचते हैं तो मैं पानी के लिए भी भटकती हूँ।
कैसे और क्यों महिलाओं को रहा ज्यादा नुकसान
आज धरती के उजाड़ का चक्र लगातार चल रहा है। नदी, पहाड़, जंगल सबको नष्ट किया जा रहा है और उसे विकास का नाम दिया जा रहा है। नदियों के किनारे जीवन और सभ्यताएं निर्मित हुई थीं। मनुष्य इन नदियों के होने का अर्थ समझता है लेकिन नए युग के पूंजीवादी व्यवस्था में प्रकृति दोहन की ऐसी भयावह तस्वीर बन रही है कि लगता है धरती बचेगी ही नहीं। आज नदियों को और अधिक बांधा जा रहा है, जंगलों को अंधाधुन काटा जा रहा है। लेकिन अब बीसवीं शताब्दी में इसकी गति बहुत तेज हो गयी है। अब मनुष्य की जरूरत के लिहाज से नहीं, बड़ी-बड़ी कॉरपोरेट कम्पनियों के मुनाफे के लालच के लिए प्राकृतिक संसाधनों को लगातार नष्ट किया जा रहा है जिससे सबसे ज्यादा प्रभावित हाशिए के समुदाय के हो रहे है। चूंकि स्त्रियां इस समाज में दोहरे तरीके से हाशिये पर हैं, तो जाहिर सी बात है उनके ऊपर जलवायु परिवर्तन का संकट सबसे ज्यादा आता है।
पानी की किल्लत से जूझती महिलाएं
शहरों में जो महिलाएं घर के भीतर या बाहर निकल कर काम कर रही हैं, उनके लिए जलवायु परिवर्तन का संकट कई नई मुसीबतों को लेकर आता है। पानी की किल्लत से जूझती कुछ महिलाओं से हमने बात की, तो ज़मीनी स्तर पर उनकी समस्या और अधिक सामझ आया। कविता दिहाड़ी मजदूर हैं और कंट्रक्शन साइट पर काम करती हैं। कविता कहती हैं “ये सारी समस्याएं हम महिलाओं के जीवन को और कठिन बना देती हैं। आज हमारे पानी का जितना संकट बढ़ गया है पहले इतना नहीं था। साइट पर काम करते हुए पानी देखती हूँ तो मन करता है कि यही पानी घर लेकर चली जाऊँ। लेकिन ये संभव नहीं। मजदूरी करने के बाद जब हम पति-पत्नी घर पहुँचते हैं तो मैं पानी के लिए भी भटकती हूँ।”
आज दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन के संकट से लड़ने के लिए सरकारों से माँग की जा रही है। गांवों और कस्बाई इलाकों से पुरूष काम की तलाश में बाहर चले जाते हैं। पीछे छूट जाती हैं स्त्रियां जिनका जीवन खेती-मजदूरी से जुड़ा होता है और इसलिए वे जलवायु संकट से बहुत ज्यादा प्रभावित होती हैं। इसके साथ-साथ वे समाज में लैंगिक भेदभाव और यौन हिंसा भी झेलती हैं। इस विषय पर डीडब्ल्यू हिन्दी के साथ एक साक्षात्कार में कोलकाता स्थित साउथ एशिया फोरम फ़ॉर इनवायरमेंट में कम्युनिटी वर्कर के तौर पर काम कर रही अमृता चटर्जी कहती हैं कि जलवायु परिवर्तन के संकट से प्रभावित क्षेत्रों में ये हाल है कि घोर गरीबी से झेलते हुए माँ-बाप अपनी चौदह, पंद्रह और सोलह साल की बच्चियों की शादी कुछ पैसे लेकर किसी परिचित या रिश्तेदार से कर देते हैं। ये एक तरह की तस्करी होती है।
जलवायु परिवर्तन से होता नुकसान
जलवायु परिवर्तन में धरती के जलस्तर घटने की समस्या बुंदेलखंड में पानी की समस्या भयावह होती जा रही है। वहां मई-जून के महीने में स्त्रियां मीलों पानी के लिए चलती हैं और कभी-कभी उसके बाद भी पानी नहीं मिलता। मध्यप्रदेश की रीवां जिले की रहने वाली गुड़िया इलाहाबाद में अब सब्जी का ठेला लगाती हैं। हमने गुड़िया से जलवायु परिवर्तन के संकट पर बात की तो वह कहती हैं, “पहले गांव में मेरा जीवन खेती पर निर्भर था। गन्ना, गेहूँ, धान और दलहन की फसल की इतनी पैदावार हो जाती थी कि परिवार का गुजारा हो जाता था। लेकिन अब ऐसी हालत है कि अब किसी फसल की पैदावार इतनी नहीं हो पा रही है कि परिवार का गुजारा हो जाए। ऊपर से लगातार जंगल उजड़ने से जंगली पशुओं के कारण फसलों का नुकसान होता है।” गुड़िया कहती हैं कि किसी तरह से अगर संसाधनों के उपयोग से फसल तैयार भी हो जाती है तो पशुओं के कारण नष्ट हो जाती थी। आज जब लगातार जंगल पहाड़ नदी नष्ट हो रहे हैं, तो इसका सीधा असर सबसे पहले हाशिये के मनुष्यों पर पड़ता है।
पहले गांव में मेरा जीवन खेती पर निर्भर था। गन्ना, गेहूँ, धान और दलहन की फसल की इतनी पैदावार हो जाती थी कि परिवार का गुजारा हो जाता था। लेकिन अब ऐसी हालत है कि अब किसी फसल की पैदावार इतनी नहीं हो पा रही है कि परिवार का गुजारा हो जाए।
महिलाओं का जीवन जलवायु परिवर्तन के संकट से लगातार इस अर्थ में भी प्रभावित होता है कि हर हाशिये का मनुष्य और पर्यावरण पर निर्भर मनुष्य सबसे पहले इस संकट से प्रभावित होता है। संसाधनों तक पहुंच और सामाजिक सुरक्षा के मामले में चूंकि महिलाओं का जीवन पुरुषों की तुलना में ज्यादा कमजोर होता है, इसलिए वे ज्यादा चपेट में आती हैं।
उत्तरप्रदेश की प्रतापगढ़ की रहने वाली चंद्रावती एक किसान महिला हैं। जलवायु परिवर्तन के संकट को लेकर हमारी बातचीत में वो कहती हैं, “अब तो जैसे ही खेती मुँह को आती है वैसे पाथर-पानी आ जाता है।”
“पहले ऐसा नहीं होता था। मौसम के अनुसार बारिश होती थी। अभी कुछ दिन पहले सरसों की फसल जैसे ही पक कर तैयार हुई, वैसे ही बारिश हो गई और सरसों की फसल नष्ट हो गई और अब जब गेहूँ की फसल पककर तैयार हुई तो फिर से बारिश हो गई। गेहूँ की फसल को भारी नुकसान हुआ।”
वह आगे बताती हैं, “पहले ऐसा नहीं होता था। मौसम के अनुसार बारिश होती थी। अभी कुछ दिन पहले सरसों की फसल जैसे ही पक कर तैयार हुई, वैसे ही बारिश हो गई और सरसों की फसल नष्ट हो गई और अब जब गेहूँ की फसल पककर तैयार हुई तो फिर से बारिश हो गई। गेहूँ की फसल को भारी नुकसान हुआ।” वह कहती हैं, “मैं हमेशा खेती-बाड़ी करती आ रही हूं। पहले पति रोजगार के लिए शहर चले जाते थे। अब बेटे नौकरी के लिए शहर चले गए। खेती और पशुपालन की जिम्मेदारी हमेशा मेरी ही रही है। इसलिए जलवायु परिवर्तन के संकट से हमेशा मुझे जूझना पड़ता है।”
ये रिपोर्ट मैदानी भागों की कुछ स्त्रियों की बातचीत पर आधारित है जहां जीवन ज्यादातर खेतीबाड़ी पर निर्भर है। इसलिए इन इलाकों में खाद्य-सुरक्षा का खतरा बढ़ जाता है। लेकिन पहाड़ी इलाके में जलवायु परिवर्तन का संकट इतना गहरा असर लेकर आता है कि वहां का जीवन ही असुरक्षित हो जाता है। आज जोशीमठ में जमीन धंसने की प्रक्रिया जलवायु परिवर्तन के संकट के कारण ही पैदा हुई है। इसी तरह उन प्रदेशों में जहां बाढ़ की समस्या है, वहां भी महिलाएं पीछे छूट जाने के कारण ज्यादा प्रभावित होती हैं। पहाड़ हो या मैदान जलवायु परिवर्तन के संकट की मार सबसे ज्यादा संसाधन-विहीन मनुष्यों पर पड़ती है।