समाजराजनीति भारत में राजनीतिक विज्ञापन: प्रॉपगैंडा और गलत सूचनाओं के खेल में फंसी जनता

भारत में राजनीतिक विज्ञापन: प्रॉपगैंडा और गलत सूचनाओं के खेल में फंसी जनता

राजनीतिक दल के विज्ञापनों और सरकार के असल में किए गए कामों के विज्ञापनों के बीच बहुत बारीक अंतर है। आजकल राजनीति में राजनेता और राजनीतिक दल अपना ब्रांड बनाते हैं। राजनीतिक मार्केटिंग का एकमात्र लक्ष्य चुनाव जीतना और सत्ता पर कब्ज़ा करना है।

भारतीय जनता पार्टी के ‘वॉर रुकवा दी पापा’ विज्ञापन को याद कीजिए, जहां मोदी सरकार ने दावा किया कि उन्होंने न सिर्फ भारतीय विद्यार्थियों को बचाया, बल्कि यूक्रेन और रूस के बीच हो रहे युद्ध को रुकवा दी। एक मिनट के लिए अगर इसे प्रापगैन्डा समझकर आप नज़रअंदाज भी करते हैं, तो भी ये यकीन के साथ नहीं कहा जा सकता कि हर कोई इसकी असलियत समझेगा। वहीं, कांग्रेस का ‘एक ही गांधी काफी है’ विज्ञापन को देखिए जहां विपक्ष के नीतियों पर सवाल के बदले पूरा विज्ञापन ही एक चुटकुला बन गया है।    

किसी भी चुनाव के दौरान और उससे पहले राजनीतिक पार्टियों के लिए जो सबसे जरूरी होता है, वो है जनता के बीच प्रचार-प्रसार, लोकप्रियता और वोट सुनिश्चित करना। इसके लिए हर पार्टी अपने-अपने तरीके से चुनावी प्रचार करती है, जो विज्ञापनों के माध्यम से किया जाता है। लोकसभा चुनाव के मद्देनजर सभी पार्टियां जोर-शोर से प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। लेकिन, अक्सर इन विज्ञापनों की प्रासंगिकता और सच्चाई पर चर्चा नहीं होती। भारत जैसे विकासशील देश में जनता के असल मुद्दों के बजाय भ्रामक, स्त्री द्वेषी, इस्लामोफोबिक राजनीतिक विज्ञापन देश के लोकतंत्र और राजनीतिज्ञों के मंशा पर सवाल करती है।

कर्नाटक बीजेपी के इंस्टाग्राम अकाउंट पर जारी एक विज्ञापन में दिखाया गया कि मुस्लिम समुदाय के लोगों के रहने से अन्य हाशिये के जाति को जगह नहीं मिलेगी। साफ तौर पर इस्लामोफोबिया फैलाने और इस विज्ञापन को रिपोर्ट किए जाने के बावजूद, इंस्टाग्राम ने अबतक इसपर कोई कार्रवाई नहीं की है।

धर्म, समुदाय और जाति को निशाना बनाया जा रहा है

हमारे नेता राजनीतिक जानकारी के स्रोत को बदलने की दिशा में तेजी से काम कर रहे हैं। वे मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए कोई भी तरीका अपनाते हैं। आज ऐसे विज्ञापन भी बनाए जा रहे हैं, जिनके माध्यम से कहीं जातिवादी मिथकों को मजबूत किया जा रहा है, तो कहीं स्त्री द्वेषी और इस्लामोफोबिक कंटेन्ट परोसा जा रहा है। कांग्रेस ने जाति जनगणना पर विज्ञापन ‘गिनती करो’, पिछड़ों के हक़ की हुंकार में हाशिये के समुदायों को सीधे ‘लाचारी के मिसाल’ बताया। जाति जनगणना की अहमियत के बावजूद, राजनीतिक दल का कुछ विशेष समुदायों के लिए यह कहना समस्याजनक है।

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हाल ही में कर्नाटक बीजेपी के इंस्टाग्राम अकाउंट पर जारी एक विज्ञापन में दिखाया गया कि मुस्लिम समुदाय के लोगों के रहने से अन्य हाशिये के जाति को जगह नहीं मिलेगी। साफ तौर पर इस्लामोफोबिया फैलाने और इस विज्ञापन को रिपोर्ट किए जाने के बावजूद, इंस्टाग्राम ने अबतक इसपर कोई कार्रवाई नहीं की है।

कांग्रेस ने जाति जनगणना पर विज्ञापन ‘गिनती करो’, पिछड़ों के हक़ की हुंकार में हाशिये के समुदायों को सीधे ‘लाचारी के मिसाल’ बताया। जाति जनगणना की अहमियत के बावजूद, राजनीतिक दल का विशेष समुदायों के लिए यह कहना समस्याजनक है।

मार्च की शुरुआत में, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की एक एआई-जनित तस्वीर जारी की गई, जिसे हिंदू महाकाव्य महाभारत से भीष्म पितामह के रूप में स्टाइल किया गया था। इसे इंस्टाग्राम पर एक राजनीतिक विज्ञापन के रूप में बढ़ावा दिया गया। इसी तरह बीजेपी का ‘हम चुनावी सनातनी है’ विज्ञापन में विपक्ष का चुनाव के दौरान मंदिर दर्शन को दिखावा बताया गया।

प्रापगैन्डा के रूप में विज्ञापन और उसका प्रभाव

ये समझने वाली बात है कि केंद्र में बीजेपी सरकार सिर्फ एक जाति, धर्म, समुदाय या वर्ग का नहीं, बल्कि पूरे देश का प्रतिनिधत्व करती है। ऐसे में कभी राम मंदिर तो कभी महज मंदिर जाने को चुनावी मुद्दा बनाकर विज्ञापनों के माध्यम से बढ़ावा देना असल मुद्दों पर सरकार की नियत ज़ाहिर करती है। इस लड़ाई में दूसरे क्षेत्रीय राजनीतिक दल भी पीछे नहीं है। तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टी प्रगतिशीलता और विकास के नाम पर राजनीतिक दल किस पार्टी ने धर्म से जुड़े कितने ट्वीट और बयान दिए, ये गिनवा रहे हैं।

दिल्ली स्कूल ऑफ मैनेजमेंट के एक रिसर्च के अनुसार जो लोग कम पढ़े-लिखे या अशिक्षित हैं, वे राजनीतिक विज्ञापनों से अधिक प्रभावित होते हैं और उसी के अनुसार अपने वोट का निर्णय लेते हैं।

टेक ट्रांसपेरेंसी प्रोजेक्ट के एक सर्वे में पाया गया कि फेसबुक; उपयोगकर्ताओं को उन फेसबुक अकाउंट को खरीदने और बेचने की अनुमति दे रहा है, जो भारत में राजनीतिक विज्ञापन चला सकते हैं।

फेस्बूक, ट्विटर और यूट्यूब की भूमिका

फेस्बूक कहता है कि लोकतंत्र में राजनीतिक भाषण पर निर्णय लेने की फेसबुक की भूमिका नहीं है। भारत में 2019 से फेसबुक पर राजनीतिक विज्ञापन के लिए ऑथराईशेषण प्रक्रिया से गुजरने की जरूरत है। इसमें ‘पेड फॉर बाइ’ डिसक्लेमर’ शामिल है। वाशिंगटन पोस्ट के अनुसार हालांकि फेसबुक ने एक जांच प्रक्रिया स्थापित की है, जिसमें अकाउंट को राजनीतिक विज्ञापन चलाने की अनुमति देने से पहले, फोटो पहचान और एक स्थानीय पता देना होता है। लेकिन, यह इसे पता करने में सफल नहीं होता कि ये दोनों कीबोर्ड पर मौजूद व्यक्ति के हैं। टेक ट्रांसपेरेंसी प्रोजेक्ट (टीटीपी) के एक सर्वे में पाया गया कि फेसबुक; उपयोगकर्ताओं को उन फेसबुक अकाउंट को खरीदने और बेचने की अनुमति दे रहा है, जो भारत में राजनीतिक विज्ञापन चला सकते हैं। इससे यह चिंता बढ़ जाती है कि उनका इस्तेमाल देश में चुनाव में दखल देने के लिए किया जा सकता है।

तस्वीर साभार: Outlook

एक अन्य हालिया अध्ययन के अनुसार देश में सोशल नेटवर्क पर 20 प्रतिशत से ज्यादा राजनीतिक विज्ञापन सरोगेट्स अकाउंट चला रहे हैं, जिससे उम्मीदवारों और पार्टियों को जिम्मेदारी से इनकार करने का मौका मिल जाता है, जब विज्ञापन अल्पसंख्यक धर्मों, कथित निचली जातियों पर हमला करते हैं। राजनीतिक विज्ञापनों के समस्याओं में, एक बहुत बड़ा मुद्दा गलत सूचना का बड़े पैमाने पर प्रसार का भी है। हाल ही में यूट्यूब ने भारतीय चुनावों से जुड़े ग़लत सूचना वाले 48 विज्ञापनों को मंजूरी दे दी थी।

दिल्ली स्कूल ऑफ मैनेजमेंट के एक रिसर्च के अनुसार जो लोग कम पढ़े-लिखे या अशिक्षित हैं, वे राजनीतिक विज्ञापनों से अधिक प्रभावित होते हैं और उसी के अनुसार अपने वोट का निर्णय लेते हैं।

2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव के मद्देनजर राजनीतिक दलों को मिले वोट शेयर के साथ एक्स (ट्विटर) पर राजनेताओं के फॉलोअर्स पर एक अध्ययन किया गया। इसमें यह पता लगाया गया कि जिस नेता के ज्यादा संख्या में ट्वीट फॉलोअर थे, उन्हें अधिक वोट शेयर मिला। देखा गया कि उस वक्त आप के फॉलोवर्स ज्यादा थे और दिल्ली विधानसभा में आप सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी जबकि बीजेपी ने केवल 3 सीटें जीतीं और कांग्रेस एक भी सीट नहीं बचा पाई थी। यानि यूट्यूब, इंस्टाग्राम ही नहीं आज ट्विटर भी जनता को प्रभावित करने का एक जरिया है। एक्स ने 2019 में घोषणा की थी कि वह सभी राजनीतिक विज्ञापनों को बंद कर देगा क्योंकि राजनीतिक संदेश की पहुंच कमाया जाना चाहिए, खरीदी नहीं जानी चाहिए। पर ट्विटर अब राजनेताओं को ट्वीट के माध्यम से विज्ञापन देने की इजाज़त देता है।

राजनीतिक पार्टियों के विज्ञापनों की जांच क्यों जरूरी है

राजनीतिक प्रचार किसी भी चुनाव प्रणाली का एक पहलू है और इसमें राजनीतिक विज्ञापन सहित कई प्रकार के प्रचार के माध्यम का इस्तेमाल शामिल है। विभिन्न राजनीतिक दल अन्य प्रचार के माध्यमों की तुलना में, चुनावी अभियान के खर्च का एक बड़ा हिस्सा राजनीतिक विज्ञापनों के लिए तय रखती है। राजनीतिक संचार के मद्देनजर देश में एक मौलिक बदलाव आया है, जहां राजनीतिक पार्टियों का आज सिर्फ समाचार या समाचार पत्रों से नहीं, बल्कि लोगों तक हाइपरलोकल और व्यक्तिगत तरीके जैसे इंस्टाग्राम और व्हाट्सऐप के माध्यम से पहुंच है। भारत में जहां चुनाव जाति, समुदाय, धर्म और क्षेत्रीय मुद्दों के आधार पर अधिक लड़े जाते हैं, लोगों को सूचित और जानकार बनाने के प्रयास में विज्ञापन के व्यापक इस्तेमाल में, उनकी प्रवृत्ति एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। यह चिंता का कारण तब और बन जाता है जब विज्ञापन पर होने वाला खर्च बहुत ज्यादा हो।

राजनीतिक विज्ञापन के लिए कहां से आ रहा है पैसा

गूगल के ऐड्स ट्रांसपेरेंसी सेंटर के अनुसार, भाजपा ने 1 जनवरी से 11 अप्रैल, 2024 के बीच लगभग 80,667 राजनीतिक विज्ञापनों पर कम से कम 39,41,78,750 रुपये खर्च किए। यह इस साल भारत में गूगल पर राजनीतिक विज्ञापनों पर खर्च किए गए कुल फंड का 32.8 फीसद है। कांग्रेस ने इसी समय सीमा में गूगल पर 736 विज्ञापनों पर 9 करोड़ रुपये खर्च किए।

तस्वीर साभार: The Wire

द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के लिए काम करने वाली रणनीति कंपनी पॉपुलस एम्पावरमेंट प्राइवेट लिमिटेड ने 10.2 करोड़ रुपये खर्च किए। राजनीतिक रणनीति फर्म इंडियन पॉलिटिकल एक्शन कमेटी की होल्डिंग कंपनी इंडियन पीएसी कंसल्टिंग प्राइवेट लिमिटेड ने 7.25 करोड़ रुपये खर्च किए हैं। यह कंपनी पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस पार्टी के लिए काम करती है। लेकिन इन विज्ञापनों पर होने वाला खर्च भी असल में जनता का पैसा है। सभी सरकारी विभागों में प्रचार-प्रसार पर होने वाले खर्च के लिए अलग प्रावधान है।

गूगल के ऐड्स ट्रांसपेरेंसी सेंटर के अनुसार, भाजपा ने 1 जनवरी से 11 अप्रैल, 2024 के बीच लगभग 80,667 राजनीतिक विज्ञापनों पर कम से कम 39,41,78,750 रुपये खर्च किए। यह इस साल भारत में गूगल पर राजनीतिक विज्ञापनों पर खर्च किए गए कुल फंड का 32.8 फीसद है।

राजनीतिक दल के विज्ञापनों और सरकार के असल में किए गए कामों के विज्ञापनों के बीच बहुत बारीक अंतर है। आजकल राजनीति में राजनेता और राजनीतिक दल अपना ब्रांड बनाते हैं। राजनीतिक मार्केटिंग का एकमात्र लक्ष्य चुनाव जीतना और सत्ता पर कब्ज़ा करना है। आज चूंकि लोगों का सामाजिक जीवन सोशल मीडिया के इर्द-गिर्द घूमता है, यह राजनीतिक व्यवहार को प्रभावित करने में अहम भूमिका निभाता है। चुनाव आयोग ने एक आदेश जारी कर राजनीतिक दलों से कहा कि वे फर्जी कंटेन्ट दिखने के तीन घंटे के भीतर अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से हटा दें। ये कहा जा सकता है कि राजनीतिक विज्ञापनों पर बैन इस समस्या का हल है। लेकिन, राजनीतिक विज्ञापन अक्सर लक्षित समूहों तक गलत सूचना पहुंचाने का काम करते हैं, जिससे ये सार्वजनिक जांच से बच सकते हैं। इसलिए, ये और भी जरूरी है कि हम सोशल मीडिया पर मौजूद सभी उपायों, जैसे किसी आपत्तिजनक विज्ञापन को रिपोर्ट करने जैसी जिम्मेदारी निभाएं। किसी भी जानकारी को जाँचे, सरकार के किए गए काम को जाने और बतौर जिम्मेदार नागरिक सवाल करें ताकि जीवन जीने के बुनियादी सुविधाएं के लिए इंतज़ार न करना पड़े।  

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