समाज क्यों उत्तराखंड के अल्मोड़ा के ग्रामीण आज भी लचर स्वास्थ्य व्यवस्था से जूझ रहे हैं?

क्यों उत्तराखंड के अल्मोड़ा के ग्रामीण आज भी लचर स्वास्थ्य व्यवस्था से जूझ रहे हैं?

अल्मोड़ा जिले में एक जिला अस्पताल, एक जिला अस्पताल (महिला), एक बेस अस्पताल, 4 कम्युनिटी हेल्थ सेंटर (सीएचसी), 8 प्राइमरी हेल्थ सेंटर (पीएचसी), 19 एपीएचसी और 195 एससी हैं। पुरे जिले में केवल 3-4 ही बड़े सरकारी अस्पताल हैं।  24-25 गाँव के बीच एक ही सरकारी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र है।

उतराखंड राज्य को बने 23 साल हो गये हैं। पिछले कई वर्षों से इस राज्य में भारतीय जनता पार्टी की सरकार चलती आ रही  है।  राज्य गठन के इतने साल पुरे होने के बावजूद भी यह राज्य विकास से कोसों दूर है। राज्य के गांवों में शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य मूलभूत सुविधाओं से आज भी लोग दूर हैं। ग्रामीण क्षेत्रों की स्वास्थ्य व्यवस्था आज भी विकास की योजनाओं पर सवाल उठा रही है। गांव के लोगों को अपना इलाज करवाने के लिए काफी दूर जाना पड़ रहा है। सरकारी अस्पतालों में समय से इलाज ना मिलने पर और सारी सुविधाएं ना मिलने के कारण आज भी लोगों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधा के लिए प्राइवेट अस्पतालों में जाना पड़ता है। अल्मोड़ा जिले की बात करें, तो अल्मोड़ा में कुल 11 ब्लाक हैं जिसमें  कुल जनसंख्या 6,22,506 है। इनमें ग्रामीण इलाकों की आबादी 5,49,106 और  शहरी इलाकों की आबादी 73,400 है।

अल्मोड़ा के ग्रामीण इलाकों में इतनी ज्यादा जनसंख्या होने के बावजूद भी यहां के लोगों को चिकित्सा से जुड़ी बुनियादी सुविधाएं नहीं मिल पा रही हैं। कहने को तो सरकार ने स्वास्थ्य से जुड़ी हुई काफी योजनाएं चला रखी हैं और उनकी रिपोर्ट के मुताबिक हर शहरी और ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सुविधा एक समान दी जा रही है। अल्मोड़ा जिले में एक जिला अस्पताल, एक जिला अस्पताल (महिला), एक बेस अस्पताल, 4 कम्युनिटी हेल्थ सेंटर (सीएचसी), 8 प्राइमरी हेल्थ सेंटर (पीएचसी), 19 एपीएचसी और 195 एससी हैं। पुरे जिले में केवल 3-4 ही बड़े सरकारी अस्पताल हैं।  24-25 गाँव के बीच एक ही सरकारी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र है। इसके बावजूद भी उनको इन सामुदायिक केन्द्रों से कुछ खास सुविधाएं नहीं मिलती है। ज्यादातर सामुदायिक केन्द्रों में स्टाफ की कमी होती है और कोई भी जांच, एक्सरे और अल्ट्रासाउंड जैसी सुविधाएं भी लोगों को नहीं मिल पाती है।

अल्मोड़ा जिले में एक जिला अस्पताल, एक जिला अस्पताल (महिला), एक बेस अस्पताल, 4 कम्युनिटी हेल्थ सेंटर (सीएचसी), 8 प्राइमरी हेल्थ सेंटर (पीएचसी), 19 एपीएचसी और 195 एससी हैं। पुरे जिले में केवल 3-4 ही बड़े सरकारी अस्पताल हैं।  

 गांवों में रास्तों की कमी

अस्पताल या कोई भी सुविधा सही समय पर मिले, इसके लिए जरूरी है कि अच्छे रास्ते हों। दैनिक जागरण की एक रिपोर्ट मुताबिक उत्तराखंड के कुल 15745 में से 2551 गांव अभी भी सड़क से अछूते हैं। इनमें से 1813 गांवों के लिए सड़क स्वीकृत हो चुकी है, लेकिन अभी तक कार्य शुरू नही हुए हैं और 738 गांव तक सड़क पहुंचाने के लिए अभी भी विभिन्न स्तरों पर काम चल रहा है गांव में सड़क और रोड जैसी व्यवस्था ना होने की वजह से समय पर अस्पताल ना पहुँच पाने के कारण कितने ही मरीज अपनी जान गवां बैठते हैं। इलाज ना मिल पाने के कारण रास्ते में ही उनकी  मौत हो जाती है।  

तस्वीर साभार: Dainik Jagran

अमर उजाला की एक रिपोर्ट मुताबिक बीते मार्च अल्मोड़ा जिले के गांव मौलेखाल में  सड़क न होने और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी से एक महिला को अपनी जान गवानी पड़ी। गांव में सड़क ना होने पर उन्हें 8 किलोमीटर पैदल चारपाई में अस्पताल ले जाना पड़ा। इसके बाद उन्हें वाहन के  जरिये 5 किलोमीटर दूर सामुदिक स्वास्थ्य  केंद्र देवायल में भर्ती कराया गया। वहां सुविधा ना मिलने पर डॉक्टर ने उन्हें उच्च सुविधा वाली हायर सेंटर ले जाने की सलाह दी। लेकिन वहाँ समय से इलाज़ ना मिल पाने के कारण उनकी मौत हो गई । ऐसी घटनाएं गांवों में आम है।

स्वास्थ्य  सुविधाओं के नाम पर केवल इमारतें

तस्वीर साभार:Uttarakhand Directory

सरकार ने स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर इमारतें तो बना दी है। लेकिन अक्सर इन चिकित्सा केंद्रों में सुविधाएं नहीं होती। अल्मोड़ा जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में महंगी मशीनें तो हैं, लेकिन विशेषज्ञ चिकित्सक और सर्जन उपलब्ध नहीं होते हैं। इन अस्पतालों में इतनी बड़ी संख्या में मरीजों की भीड़ होती है कि डॉक्टर के पास आम तौर पर एक मरीज को देखने के लिए 5 मिनट से भी कम समय होता है। ऐसे में  ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों को उपचार के लिए प्राइवेट अस्पतालों में शरण लेनी पडती है। न्यूज़ 18 की एक खबर मुताबिक जिले में 9 सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में सर्जन और एनेस्थेटिस्ट नहीं हैं। विशेषज्ञ चिकित्सकों की जिले में भारी कमी है। इनकी नियुक्ति सरकारी स्तर पर ही संभव है।

न्यूज़ 18 की एक खबर मुताबिक जिले में 9 सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में सर्जन और एनेस्थेटिस्ट नहीं हैं। विशेषज्ञ चिकित्सकों की जिले में भारी कमी है। इनकी नियुक्ति सरकारी स्तर पर ही संभव है।

अल्मोड़ा मेडिकल कॉलेज की हालत

बात अल्मोड़ा मेडिकल कॉलेज की करें, तो इसकी नींव 2013 में रखी गई थी। कई सालों के इंतज़ार के बाद मेडिकल कॉलेज बनकर तैयार हो गया और 2022 में इस मेडिकल कॉलेज को मान्यता मिल गई। अल्मोड़ा में मेडिकल कॉलेज बनने से लोगों में एक उम्मीद जगी थी कि यहां पर तमाम स्वास्थ्य सुविधाएं मरीजों को मिलेगी। कॉलेज को बने हुए 3 साल से ज्यादा वक़्त हो गया है। लेकिन अभी तक यहाँ पर ऑपरेशन थियेटर शुरू नहीं हो पाया है, जिसकी वजह से यहां आने वाले मरीजों को काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। मेडिकल कॉलेज होने के बावजूद भी उनको बेहतर इलाज़ के लिए शहर से बाहर जाना पड़ता हैं। 

तस्वीर साभार: Population First

न्यूज 18 की रिपोर्ट के मुताबिक स्थानीय निवासी बताते हैं कि उत्तराखंड बने हुए 23 साल चुके हैं। पर उसके बावजूद अभी तक स्वास्थ्य सुविधाओं का हाल काफी बेहाल है। उन्होंने बताया  कि मेडिकल कॉलेज की ऑपरेशन थिएटर शुरू नहीं होने की वजह से मरीजों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। यहाँ पर आने वाले मरीजों को हायर सेंटर या फिर अन्य जगह अपना इलाज करवाने के लिए जाना पड़ रहा है। हालांकि ऐसे गांव होते हुए भी अगर आय की बात करें, तो पिछले कई वर्षों से उत्तराखंड में प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत को पीछे छोड़ चुकी है। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू ये भी है कि समृद्धि के मामले में देश का यह पर्वतीय क्षेत्र मैदानी इलाकों से पिछड़ गया है। आंकड़ों के मुताबिक उत्तराखंड की प्रति व्यक्ति की आय भले ही देश के औसत से ज्यादा हो, लेकिन ये पहाड़ी गांव आज भी विकास के लिए तरस रहे हैं।

अल्मोड़ा में मेडिकल कॉलेज बनने से लोगों में एक उम्मीद जगी थी कि यहां पर तमाम स्वास्थ्य सुविधाएं मरीजों को मिलेगी। कॉलेज को बने हुए 3 साल से ज्यादा वक़्त हो गया है। लेकिन अभी तक यहाँ पर ऑपरेशन थियेटर शुरू नहीं हो पाया है, जिसकी वजह से यहां आने वाले मरीजों को काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

ग्रामीणों के पास इलाज का विकल्प

राजनीतिक परिदृश्य की बात करें, तो इन पहाड़ी जगहों में कम राजनीति नहीं होती। लेकिन आज भी ये विकास के लिए तरस रहे हैं। ग्रामीण इलाकों के ज्यादातर लोगों की कमाई का साधन खेती और मजदूरी है। खेती और मजदूरी से वो जितना भी पैसा कमाते हैं, उसे वो बड़ी मुश्किल से अपना घर का और बच्चों की पढ़ाई का खर्चा चला पाते हैं। ऐसे में उनके लिए बहुत मुश्किल हो जाता है कि वह अपने गाँव से बाहर शहर के किसी अच्छे अस्पताल में अपना इलाज करवा सके।  गाँव के आस-पास जितने भी सामुदायिक केंद्र हैं, वहां पर लोगों को सारी सुविधाएं नहीं मिल पाती हैं। अल्मोड़ा, बागेश्वर, चंपावत, आदि दूर-दराज से आने वाले मरीजों को ऑपरेशन करने के लिए  हल्द्वानी में रेफर कर दिया जाता है। यहाँ के लोगों को ज्यादातर  जांच करवाने के लिए अपने गांव से 100 किलोमीटर हल्द्वानी जाना पड़ता है।

शिक्षा की कमी से पहाड़ों के लोग इतने जागरूक नहीं हैं। गाँव में स्वास्थ्य सुविधाएं ना मिल पाने के कारण लोग अन्धविश्वास पर भरोसा करने लगते हैं। वह अपनी बीमारियों को दूर करने के लिए पूजा- पाठ जैसी, अंधभक्ति जैसे चीजों का सहारा लेते हैं।

शिक्षा की कमी से भी लोग हो रहे चिकित्सा से दूर  

शिक्षा की कमी से पहाड़ों के लोग इतने जागरूक नहीं हैं। गाँव में स्वास्थ्य सुविधाएं ना मिल पाने के कारण लोग अन्धविश्वास पर भरोसा करने लगते हैं। वह अपनी बीमारियों को दूर करने के लिए पूजा- पाठ जैसी, अंधभक्ति जैसे चीजों का सहारा लेते हैं। ये उन्हें उनके गाँव में आसानी से मिल जाती है। कई बार ऐसे में उन्हें जान का भी जोखिम होता है। आज भारत के विकास देश में ही नहीं विदेशों में भी दिखाया जा रहा है। लेकिन अलमोरा जैसे जगहों पर जाएं, तो जमीनी स्तर पर असलियत समझ आती है। आज भी हमारे देश के नागरिक को स्वास्थ्य सुविधा नहीं मिल पा रही, जोकि उनका बुनियादी अधिकार है। चुनावों से पहले सरकार नागरिकों की लिए  सुविधाएं देने के वादे करती है। 

सरकार आने के बाद अक्सर जनता को ये वादे पूरे होते हुए नजर नहीं आते। ये एक बहुत ही शर्मनाक बात है कि आज के युग में भी देश की जनता  स्वास्थ्य, शिक्षा, पानी, रोड जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रही हैं। सरकार की ये जिम्मेदारी बनती हैं कि वो जनता को मूलभूत सुविधाएं दें। सुविधाएं देने के साथ-साथ उनका ये भी फर्ज है कि वो लोगों में स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता फैलाए। सरकार ने अपने इस साल के चुनावी घोषणा पत्र में शिक्षा और स्वास्थ्य से जुड़ी सुविधाओं को महत्व देने की कोशिश की है। लेकिन अब देखना ये है कि क्या वो असल में भी अपनी घोषणाओं में खरे उतर पाते हैं।

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