बीते दिनों कोलकाता में राजभवन में एक महिला संविदा कर्मचारी द्वारा पश्चिम बंगाल के राज्यपाल सीवी आनंद बोस पर यौन हिंसा का आरोप लगाने के कुछ दिनों बाद, राजभवन ने 9 मई को कथित घटना के दिन 2 मई से परिसर के सीसीटीवी फुटेज लगभग 100 लोगों को दिखाए। हालांकि राजभवन ने राजभवन परिसर के अंदर 100 नागरिकों को यह फुटेज दिखाया लेकिन इसमें पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी या पुलिस प्रसाशन शामिल नहीं थी। इंडियन एक्स्प्रेस की एक रिपोर्ट मुताबिक महिला ने इस घटना के जवाब में कहा है कि फुटेज उनकी अनुमति के बिना जारी किया गया था। देश का कानून कहता है कि शिकायतकर्ता की पहचान गोपनीय रखी जानी चाहिए। उन्होंने आगे कहा कि इसके लिए गवर्नर पर भी आरोप लगाया जाना चाहिए। अगर वे निर्दोष हैं, तो पुलिस को जांच क्यों नहीं करने दे रहे हैं? महिला ने बताया कि वे इस बारे में पुलिस से बात करेंगी।
मीडिया में आए खबरों के मुताबिक दिखाए गए फुटेज में राजभवन के उत्तरी गेट के सामने दो कैमरों की रिकॉर्डिंग शामिल थे। सर्वाइवर महिला की शिकायत के बाद राज्यपाल ने राजभवन परिसर में पुलिस के प्रवेश पर प्रतिबंध भी लगा दिया था। बता दें कि इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने यौन हिंसा के मामलों में किसी भी कार्यवाही में सर्वाइवर के नाम का उल्लेख नहीं किया जाए, इसका ख्याल अधीनस्थ न्यायालयों को रखने के लिए कहा था। वहीं मीडिया पर उन नामों या किसी भी सामग्री को प्रकाशित या प्रसारित करने पर भी पूर्ण प्रतिबंध है, जो यौन हिंसा के सर्वाइवर की पहचान को किसी भी तरह से उजागर करता हो।
यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि सर्वाइवर महिला के कथित आरोप और यौन हिंसा के लिए नियमों में दिशा निर्देशों के बावजूद, ये फुटेज न सिर्फ राजभवन में दिखाए गए, बल्कि इसे देखने के लिए आम जनता को एक्स (ट्विटर) पर राजभवन की ओर से आमंत्रण भी दिया गया। यौन हिंसा के मामले में, खासकर हमारे देश में, ये जरूरी है कि हम न सिर्फ मामले की गंभीरता को समझें, बल्कि सर्वाइवर और आरोपी के बीच पावर डाइनैमिक्स, सामाजिक अंतर, सर्वाइवर की जाति, वर्ग, धर्म या जेंडर की भी बात करें। लिंग, जाति और वर्ग आधारित भेदभाव मिलकर हाशिए पर रहने वाली महिलाओं को इस मुद्दे से सबसे ज्यादा प्रभावित करते हैं। वहीं लैंगिक असमानता, गरीबी और संसाधनों तक पहुँच क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम यानी आपराधिक न्याय प्रणाली को प्रभावित करते हैं और न्याय पाने की समय को लंबा और प्रक्रिया को कठिन या जटिल बनाते हैं।
महिलाओं के खिलाफ हिंसा की गंभीरता
महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा कितनी गंभीर है, इसका अंदाज़ा हम आंकड़ों से कर सकते हैं। वैश्विक स्तर पर लगभग 35 प्रतिशत महिलाओं के साथ उनके जीवनकाल में हिंसा होती है। भारत में लगभग 10,000 महिलाओं पर किए गए एक अध्ययन में, 26 प्रतिशत ने बताया कि उन्हें अपने जीवनकाल के दौरान अपने साथी द्वारा शारीरिक हिंसा का सामना करना पड़ा। किसी-किसी राज्य में जैसे उत्तर प्रदेश में यह 45 प्रतिशत तक पाया गया। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि हर तीन मिनट में महिलाओं के खिलाफ़ एक अपराध दर्ज किया गया। हर घंटे, कम से कम दो महिलाओं को यौन हिंसा का सामना करना पड़ता है और हर छह घंटे में, एक युवा विवाहित महिला की शारीरिक हिंसा की वजह से हत्या होती है, जला दिया जाता है या आत्महत्या के लिए मजबूर किया जाता है। वहीं 28.4 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं।
यौन हिंसा में महिलाओं की एजेंसी
किसी भी व्यक्ति के खुद पर एजेंसी के साथ उसके जीवन में शिक्षा का स्तर, आय, संपत्ति और संसाधनों तक पहुँच का गहरा रिश्ता है। ये बात महिलाओं पर और भी ज्यादा लागू होती है क्योंकि हमारे पितृसत्तात्मक समाज में वे सबसे आखिरी पायदान पर हैं। यौन हिंसा के मामले में घटना की सूचना से, मामले पर कार्रवाई तक, महिलाओं की एजेंसी जरूरी है। घरेलू हिंसा या कार्यस्थल पर हिंसा में महिलाएं कितना और कितनी जल्दी उसका विरोध कर पाती हैं, या किसी अन्य व्यक्ति या कानून की मदद ले पाती हैं, इसका सीधा संबंध उनके अपने एजेंसी से है।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के अनुसार स्कूली शिक्षा पूरी करने वाली 18 फीसद महिलाओं की तुलना में, बिना स्कूली शिक्षा वाली 40 फीसद महिलाएं शारीरिक हिंसा का शिकार होती हैं। शारीरिक हिंसा का अनुभव सबसे कम संपत्ति वाली महिलाओं में 39 फीसद और सबसे ज्यादा संपत्ति वाली महिलाओं में 17 फीसद होता है। है। यौन हिंसा के मामले में महिलाओं की एजेंसी इसलिए भी जरूरी है ताकि उन्हें न्यायायिक प्रक्रिया के अंतर्गत कार्रवाई की न सिर्फ जानकारी हो, बल्कि जांच या कानूनी प्रक्रिया में उनकी भूमिका और अनुभव को नजरन्दाज़ न किया जाए।
कैसे यौन हिंसा की घटना को राजनीतिक रुख दे दिया गया
राज्यपाल बोस ने इस पूरी घटना को मनगढ़ंत बताते हुए ‘सच के सामने’ कार्यक्रम रखा था, जिसमें घटना के सीसीटीवी फुटेज को राजभवन में दिखाया गया। हालांकि मीडिया रिपोर्ट के अनुसार पुलिस ने बाद में कहा कि उन्हें राजभवन में सीसीटीवी के प्रभारी कर्मियों से फुटेज प्राप्त हुआ। हैरानी की बात ये है कि राजभवन में हुई इस घटना के बाद, पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी ने एक चुनावी रैली में कहा कि बंगाल के राज्यपाल को बताना चाहिए कि उन्हें इस्तीफा क्यों नहीं देना चाहिए। पीटीआई के साथ बातचीत में वीडियो पर प्रतिक्रिया देते हुए, बनर्जी ने कहा कि बंगाल के राज्यपाल ने राजभवन के संपादित सीसीटीवी फुटेज जारी किए।
उन्होंने आगे कहा कि उन्होंने पूरा वीडियो देखा है और वह चौंकाने वाला है। बनर्जी ने हुगली में एक चुनावी रैली में ये भी कहा कि जब तक बोस बंगाल के राज्यपाल बने रहेंगे, तबतक वे राजभवन नहीं जाएंगी। ये जरूरी है कि हम ये सवाल खड़े करें कि एक्स पर सार्वजनिक तौर पर फुटेज को दिखाए जाने की जानकारी दिए जाने के बावजूद, कोलकाता उच्च न्यायालय या खुद मुख्यमंत्री बनर्जी की ओर से कोई हस्तक्षेप क्यों नहीं की गई। जहां बात राज्यपाल पर कथित तौर पर यौन हिंसा जैसे गंभीर मामले की थी, तब इसे चुनावी मुद्दा बनाकर, रैली में इसपर मुख्यमंत्री का प्रतिक्रिया देना कितना उचित है।
कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न
घटना के और सीसीटीवी फुटेज दिखाए जाने के बाद, सर्वाइवर ने कहा है कि वे मानसिक रूप से टूट चुकी हैं और उन्होंने अब अपनी नौकरी भी खो दी है। हाल के दिनों में भारत में महिलाओं को आगे बढ़ने में दो गंभीर कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। इनमें महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा की बढ़ती प्रवृत्ति और महिलाओं की कार्यबल भागीदारी में लगातार गिरावट नजर आती है। ये भी जरूरी है कि हम समझें ये एक-दूसरे से जुड़ी है। समाज, परिवारों और समुदायों में पुरुषों के पास असंगत मात्रा में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक शक्ति होती है। लेकिन समाज के पितृसत्तात्मक संरचना के करण, अधिकतर महिलाएं इस पावर डाइनैमिक्स की उम्मीद करती हैं और इसे मानती हैं और इसके अनुसार चलती हैं। यौन उत्पीड़न के करण महिलाओं के मूल मौलिक अधिकारों, विशेष रूप से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 के तहत समानता का अधिकार और संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उनके जीवन और सम्मान के साथ जीने के अधिकार का उल्लंघन होता है।
ज्ञान, इंजीनियरिंग और प्रौद्योगिकी में नवीन अनुसंधान के अंतर्राष्ट्रीय जर्नल के एक शोध में बताया गया है कि पुरुष प्रधान संगठनात्मक व्यवस्था में यानी कार्यस्थल पर, महिलाओं को जो हिंसा का सामना करना पड़ता है, वह कंटेन्ट के तौर पर ‘सेक्शुअल’ नहीं भी हो सकता है, लेकिन इसके पीछे का उद्देश्य पुरुषों का वर्चस्व दिखाना है। जहां महिलाओं के पास आमतौर पर किसी संगठन में हायरार्की के अनुसार कम शक्ति होती है, और पुरुषों के पास अधिक, वहां यौन हिंसा शक्तिहीन स्थिति में काम कर रही महिला पर, नियंत्रण करने के लिए शक्तिशाली तरीके के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।
महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा में वृद्धि से, काम पर जाने की गैर-आर्थिक लागत और मेहनत में बढ़ोतरी होती है। खास कर तब जब यौन हिंसा के सर्वाइवर के खिलाफ समाज में रूढ़िवादी विचारधारा मौजूद हो। नारीवादी विमर्श यौन हिंसा को महिलाओं को नियंत्रित करने के एक साधन के रूप में देखता है, और यह पितृसत्ता को बढ़ावा देने में सहायक है। जहां एक ओर, यौन हिंसा के सर्वाइवर को अक्सर जल्दी न बोलने के लिए, जिम्मेदार ठहराया जाता है, वहीं अध्ययनों से पता चला है कि जब हिंसा का खुलासा होता है, तो सर्वाइवर को नकारात्मक सामाजिक और सामुदायिक प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ता है। भारतीय दंड संहिता की धारा 228ए यौन हिंसा के सर्वाइवर की पहचान उजागर करने पर रोक लगाती है। हालांकि यह कानून किसी यौन हिंसा सर्वाइवर के लिए नुकसानदायक हो सकता है, जो अपनी पहचान गोपनीय नहीं रखना चाहती। लेकिन यौन हिंसा के किसी भी मामले को राजनीतिक बनाने की कोशिश करना, सर्वाइवर के अनुभव, उसके निजता का हनन करना किसी भी कानून या नैतिकता के अंतर्गत भी मान्य नहीं। यौन हिंसा के मामले में महिला अपनी एजेंसी तभी बनाए रख सकती है, जब हमारी कानून व्यवस्था, परिवार और समाज भी इसे बनाए रखे।