भारतीय संविधान के अनुसार देश के प्रत्येक नागरिकों को वोट देने का अधिकार है। संविधान के अनुसार पुरुष से इतर लैंगिक पहचान रखने वाले लोगों का वोट भी इतना ही कीमती है। लेकिन भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं को हमेशा कमत्तर और पुरुषों के अधीन माना जाता है। इसी क्रम में वोट के अधिकार पर भी पुरुषों की सोच और राजनीति हावी रही है। आज के दौर में महिला वोट बैंक पर हर पार्टी की नज़र है लेकिन अभी भी उनके मुद्दे राजनीति में हावी नहीं है। बीते वर्ष संसद में ‘महिला आरक्षण बिल’ के तहत सभी राज्यों की विधानसभाएं और लोकसभा में 33 प्रतिशत सीट महिलाओं के लिए आरक्षित अधिनियम पास किया गया था लेकिन लागू होने में इसे अभी समय लगेगा। गौर करने वाली बात ये है वोट के तौर पर महिलाओं के हितैषी बनने के लिए हर पार्टी इस अपनी पीट थपथपाती नज़र आई थी। वहीं लोकसभा चुनाव 2024 के राजनीतिक परिदृश्य में महिलाओं के मुद्दे गायब है और चुनाव में प्रत्याशी के तौर पर उनकी भागदारी बहुत कम है।
चुनाव को लेकर प्रिया कहती है, “कहने को तो हम बेघर है लेकिन हमारा नाम वोटर लिस्ट में भी है, हम वोट भी करते है लेकिन सरकार न हमें घर दे रही है और न कही और बसा ही रही है न हमारा राशन कार्ड तक नहीं बन पा रहा है।”
भारत की राजधानी दिल्ली की बात करें तो आंकड़े दिखाते है कि यहां सात जिलों में लोकसभा चुनाव 2024 में बहुत कम महिला उम्मीदवार चुनाव लड़ रही हैं। इसमें भी प्रमुख पार्टी भाजपा, आप और कांग्रेस का प्रदर्शन निराशाजनक है। दिल्ली की सात सीटों पर महिला उम्मीदावारों से जुड़े आंकड़े में देखते है कि चाँदनी चौक से 88 प्रतिशत पुरुष तो 12 प्रतिशत महिला उम्मीदवार मैदान में है। वहीं पूर्वी दिल्ली में 95 प्रतिशत पुरुष तो 5 प्रतिशत महिला, नई दिल्ली में 76 प्रतिशत पुरुष तो 24 प्रतिशत महिला, उतर पूर्वी दिल्ली में 85 प्रतिशत पुरुष तो 15 प्रतिशत महिला, उतर पश्चिमी दिल्ली में 80 प्रतिशत पुरुष और 20 प्रतिशत महिला, दक्षिणी दिल्ली में 90 प्रतिशत पुरुष तो 10 प्रतिशत महिला, पश्चिमी दिल्ली में 79 प्रतिशत पुरुष तो 21 प्रतिशत महिला है। यह देश की राजधानी दिल्ली के आंकड़ें है इससे इतर देश के अन्य हिस्सों में स्थिति और चिंताजनक है। क्या बिल पास कर देना या उसका क्रेडिट लेना ही राजनीतिक पार्टियों की नज़र में महिला सशक्तिकरण है।
महिला वोटर्स की आबादी और मतदान प्रतिशत लगातार चुनावों में बढ़ रहा है लेकिन राजनीति में उनके मुद्दे गायब है। आगामी 25 मई को दिल्ली की सात सीट पर लोकसभा चुनाव की वोटिंग है। सरकार बनने से लेकर सरकार चुनने तक में उनकी कम भागदीरी और उनकी परेशानियों को लेकर हमने दिल्ली की उन महिला वोटर्स से बातचीत की जो समाज के हाशिये के स्तर पर रहकर अपना जीवन गुजार रही हैं। महिलाओं की राजनीतिक चेतना और वोटर्स के तौर पर वह चाहती है जानने की कोशिश की। पेश है उनसे बातचीत के कुछ अशः
सरकार को घर और शिक्षा के वादे पर ध्यान देना चाहिए
सराय काले खां में रहने वाली 37 वर्षीय दीपा झुग्गी में रहती हैं जो यमुना के समीप है। इस बस्ती में अलग-अलग राज्य से आए प्रवासी लोग भी रहते हैं। जो काम के तलाश में दिल्ली आए और आर्थिक तंगी होने के कारण बेघर हो गए फिर इन बस्तियों का रुख करते हैं और अपना जीवन यापन करते है। ऐसे लोगों को बेघर लोगों के श्रेणी में रखा जाता है। 2011 की जनगणना के अनुसार दिल्ली की जनसंख्या 1.68 करोड़ है। हाउसिंग एंड लेंड राइट्स नेटवर्क के अनुसार, बेघरों की संख्या लगभग 150,000 -200,000 हैं। ये लोग झुग्गी बना कर, टेंट डाल कर या सड़क किनारे रह कर अपना जीवन बिताने पर मजबूर हैं।
दीपा झुग्गी में रहती है जिसे कब तोड़ दिया जाए इसका डर उन्हें हमेशा सताता रहता है। उनके दो बच्चें हैं और दोनों पढ़ाई कर रहे हैं। दीपा जब कक्षा नौ में थी उस दौरान उनकी उम्र 18 साल थी तब ही उनके परिवार वालो ने उनकी शादी कर दी थी।शादी के बाद भी उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी इस वर्ष उन्होंने कक्षा 12 की परीक्षा दी है और रिजल्ट का इंतजार कर रही है। वह आगे वकालत की पढ़ाई करना चाहती है और समाज सेवा करना चाहती है। उनके पति मजदूरी करते है। लेकिन अभी वह अपनी पढ़ाई को आगे बढ़ाने के लिए और खुद के लिए कुछ काम करना चाहती है जिससे आय आती रहे और आगे की पढ़ाई में बाधा न हो।
वह कहती है कि पति से पैसा मांगना मुझे ठीक नहीं लगता है। उनके पास भी बहुत पैसा नहीं है जो मेरी और बच्चों दोनों की पढ़ाई जारी रख सके इसलिए हम लोग कमरा किराया पर लेकर नहीं रहते हैं। अगर हम कमरा लेकर रहने लगे तो बच्चों की पढ़ाई बंद हो जाएगी इसलिए हम यहां झुग्गी में बसर करते हैं। चुनाव को लेकर दीपा कहती है, “दिल्ली की सरकार हो या देश के प्रधानमंत्री मोदी दोनों ही अपने चुनाव में जहां झुग्गी वहां पक्के मकान की बात कर चुके हैं और इस वादे के साथ हम लोगों ने वोट भी दिया था लेकिन हालात आपके सामने है। ऐसे में उन्हें यह योजना पूरी करनी चाहिए। दूसरी बात ये कि सरकार को हर वर्ग के लोगों और कम शिक्षित लोगों के लिए भी सम्मानित काम में विस्तार करना चाहिए ताकि हम उनके कहे अनुसार आत्मनिर्भर हो पाए।”
28 वर्षीय शबनम पेशे से एक वकील है। उनका कहना है, “मैं सात साल से काम कर रही हूं आज भी फील्ड पर महिलाओं को जल्दी कोई सीरियस नहीं लेता है। चुनाव को लेकर वे कहती है, ”मैं बस सरकार से यही कहूंगी आप विकास के नाम पर वोट मांगे और विकास करें न कि धर्म को मुद्दा बनाकर वोट मांगे।”
“हम बेघर है लेकिन वोटर लिस्ट में नाम है”
40 वर्षीय प्रिया काले दिल्ली में स्थित मोतियाखान रैन बसेरा में चौदह साल से रह रही हैं। प्रिया सड़कों पर गुब्बारा और बोतल लाइट बेचने का काम करती हैं। रोजगार के बारे में बोलते हुए उनका कहना है कि बहुत कम बिक्री हो पाती है। मेरे पति इसी रैन बसेरा में साफ-सफाई का काम करते हैं और उस काम का उन्हें पूरे एक दिन का सौ रुपये मिलता है जिससे हम अपनी गुजर बसर कर पाते हैं। चुनाव को लेकर प्रिया कहती है, “कहने को तो हम बेघर है लेकिन हमारा नाम वोटर लिस्ट में भी है, हम वोट भी करते है लेकिन सरकार न हमें घर दे रही है और न कही और बसा ही रही है न हमारा राशन कार्ड तक नहीं बन पा रहा है।” खाद्य, नागरिक आपूर्ति एवं उपभोक्ता मामले विभाग के अनुसार, रैन बसेरे में रह रहे लोग भी राशन कार्ड बनवा सकते है और अपने मन मुताबिक खाना बना के खा भी सकते है। रैन बसेरा सरकारी आश्रय गृह होता है जो शहर के आर्थिक कमजोर या यात्री लोगों के लिए बनाया जाता है। दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड के अनुसार, दिल्ली में 209 रैन बसेरे हैं। जहां खाना, पानी और दवा की सुविधा होता है लेकिन मोतियाखान रैन बसेरा में यह सुविधा नहीं हैं जिसका कारण वहां मौजूद लोगों को भी नहीं पता है।
घरेलू कामगारों के अधिकारों की बात कोई नहीं करता
60 वर्षीय रेणु पासवान मूलरूप से बिहार के सहरसा जिले की रहने वाली हैं। वह एक रेणु घरेलू कामगार है। चुनाव के बारे में उनका कहना है, “वैसे तो मैं बिहार की रहने वाली हूं लेकिन वोट मेरी दिल्ली की बनी हुई है। सरकार जो भी आए उनसे मेरी यही उम्मीद है कि वह घरेलू कामगार के लिए कोई ठोस कानून बनाए क्योंकि हमारे काम को लोग बहुत हल्के में लेते हैं और जब मन होता है बिना बताए काम से निकाल देते है।” एक घटना का जिक्र करते हुए वह कहती है, “बीते महीने एक एक परिवार ने बिना बताए किसी और को मेरी जगह काम पर रख लिया, कारण यह था कि मेरा फ़ोन खराब हो गया था और मैं दो दिन उनके घर आई लेकिन तब तक वो लोग नौकरी से नहीं आये थे तीसरे दिन जब मेरी मुलाकात हुई तो उन लोगों का कहना था आप दो दिन कहां थी बताया नहीं हमने तो किसी और को रख लिया। जिसके बाद मुझे बुरा भी लगा और अपमान भी महसूस हुआ। अभी तक मेरा पैसा भी नहीं मिला जो उनके यहां बाकी था। इस तरह सरकार जिसकी भी आए कोई ठोस कानून बनाए जिससे तनख्वाह में भी बढ़ोत्तरी हो और हम भी सम्मानित तरीके से जीवन की गुजर बसर कर सके।”
मजबूरी ही मजदूरी करवा रही है
दिल्ली के सराय कटवारिया इलाके में रहने वाली 75 वर्षीय खातून एक मजदूर है। वह बीते 58 साल से दिल्ली में फुटपाथ किनारे मछली बेचती है। वह कहती है कि आए दिन दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) के लोग परेशान करते हैं। चुनाव और काम के दौरान चुनौतियों के बारे में बोलते हुए वह कहती हैं, “उम्र ढलने के साथ-साथ अब मुझ से काम नहीं होता है। लेकिन क्या करूं रोटी और कमरे के किराये के लिए काम करती हूं। कोई भी सरकार आए तो हमें कहां ही मदद मिलती है लेकिन वोट कभी भी खराब नहीं करते है, तीस साल पहले मेरे पति की मृत्यु हो गई थी। पहले विधवा पेंशन मिलती थी अब पांच साल से वह नहीं मिल रही है। रोज यहां-वहां भेज रहे है लेकिन कोई यह नहीं बता रहा है क्यों बंद कर दी गई है।”
मैं इस देश की नागरिक हूं और वोट ज़रूर दूंगी
29 वर्षीय शाहीन शेख दिल्ली महिला आयोग में काम करती हैं। उनका कहना है कि मेरा ज्यादातर काम फील्ड का ही होता है। कभी देर रात को कुछ घटना हुई तो हमें उसी समय फील्ड पर मौजूद रहना होता है। वहां पर काम करते हुए भी कई सारी चुनौतियां आती है। चुनाव को लेकर उनका कहना है, “मैं इस देश की नागरिक हूं और वोट देना हम अपना फर्ज मानते हैं वरना मैं कभी वोट न करती है उसका कारण है देश में कोई विकास की बात ही नहीं कर रहा है। कितने लोग बेरोजगार है, कितने तो महंगी फीस के कारण सुलभ शिक्षा हासिल नहीं कर पा रहे हैं, लड़कियों को हर क्षेत्र में आज भी कमतर आंका जा रहा है। और अभी भी लड़कियां सुरक्षित नहीं है चाहे वो लड़की किसी बड़े पोस्ट पर हो या आम लड़की हो, लेकिन सरकार के चुनावी मुद्दों में यह सब मुद्दें गायब दिखते है जिसके कारण वोट करने का मन नहीं होता है।”
मुद्दों पर बात और काम दोनों हो
28 वर्षीय शबनम पेशे से एक वकील है। उनका कहना है, “मैं सात साल से काम कर रही हूं आज भी फील्ड पर महिलाओं को जल्दी कोई सीरियस नहीं लेता है। चुनाव के बारे में उनका कहना है, ”मैं बस सरकार से यही कहूंगी कि विकास के नाम पर वोट मांगे और धर्म को मुद्दा बनाकर वोट न मांगे। मंदिर-मस्जिद पर वोट मांगने से बेहतर है ज़रूरी मुद्दों को चुने क्योंकि धार्मिक मुद्दों का लोगों पर बहुत गलत प्रभाव पड़ रहा है। मैं तो सरकार और नेताओं से यहीं उम्मीद करती हूं कि वो शिक्षा पर काम करें, बेरोजगार लोगों को नौकरी दें और फिर इस मुद्दे पर वोट मांगे।”
रेणु घरेलू कामगार है। चुनाव के बारे में उनका कहना है, “वैसे तो मैं बिहार की रहने वाली हूं लेकिन वोट मेरी दिल्ली की बनी हुई है। सरकार जो भी आए उनसे मेरी यही उम्मीद है कि वह घरेलू कामगार के लिए कोई ठोस कानून बनाए क्योंकि हमारे काम को लोग बहुत हल्के में लेते हैं और जब मन होता है बिना बताए काम से निकाल देते है।”
इस तरह से दिल्ली की महिलाएं जो अलग-अलग पेशों में कार्यरत या काम की तलाश में है सबके अलग-अलग मुद्दे और परेशानियां है। वे चाहती है कि महंगाई, बेरोजगारी, महिला असुरक्षा, शिक्षा आदि पर बात हो। जिन पर वे सरकारों द्वारा कुछ पहल चाहती है और अपनी परेशानियों के हल चाहती हैं। लेकिन दूसरी ओर हम यह भी देख रहे है कि चुनावों में जमीनी मुद्दों को बड़े-बड़े मंचों से दिए जाने वाले भाषण से गायब कर दिया जा रहा है। आम लोगों के जीवन को प्रभावित करने वाले मुद्दों को जगह नहीं दी जा रही है।