इंटरसेक्शनलजेंडर महिलाओं के लिए टीबी निदान और चिकित्सा में सामाजिक-आर्थिक बाधाएं

महिलाओं के लिए टीबी निदान और चिकित्सा में सामाजिक-आर्थिक बाधाएं

महिलाओं में टीबी के सामाजिक प्रभाव उनकी आर्थिक स्थिति पर भी गहरा असर डालते हैं, जिसके चलते उन्हें शिक्षा और रोजगार के अवसरों में भी कमी का सामना करना पड़ता है, जो सीधे तौर पर उनकी कामकाजी क्षमता को प्रभावित करता है और उनकी आय में कमी आती है। टीबी के उपचार में आने वाला खर्च भी एक बड़ी चुनौती है, खासकर गरीब परिवारों के लिए।

ट्यूबरक्लोसिस जिसे टीबी भी कहते हैं एक संक्रामक बीमारी है जो मुख्य रूप से माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्लोसिस नामक बैक्टीरिया के कारण होती है। यह बैक्टीरिया एक धीमी गति से बढ़ने वाला बैक्टीरिया है जो शरीर के उन भागों में बढ़ता है जहां खून और ऑक्सीजन की मात्रा अधिक हो। इसलिए, यह ज्यादातर फेफड़ों में पाया जाता है, जो खून और ऑक्सीजन का मुख्य स्रोत होते हैं। जब टीबी का बैक्टीरिया शरीर में प्रवेश करता है तो यह फेफड़ों के अल्विओली (छोटे हवा के थैली) में बस जाता है और वहां से बढ़ना शुरू करता है।

फेफड़ों में बैक्टीरिया खून और ऑक्सीजन से समृद्ध वातावरण में बढ़ता है और फिर रक्त प्रवाह के माध्यम से शरीर के अन्य भागों में फैल सकता है। यह लिम्फ नोड्स, गुर्दे, रीढ़ की हड्डी, मस्तिष्क और यहां तक कि हड्डियों जैसे अन्य अंगों में भी फैल सकता है, जहां यह अतिरिक्त पल्मोनरी टीबी का कारण बन सकता है। पल्मोनरी टीबी माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस (एमटीबी) के कारण होने वाला एक गंभीर संक्रमण है जिसमें फेफड़े शामिल होते हैं लेकिन यह शरीर के अन्य भागों में भी फैल सकते हैं जैसे आपकी रीढ़, मस्तिष्क या गुर्दे जैसे अन्य अंग।

केंद्र सरकार की 2017 टीबी उन्मूलन योजना के अनुसार, टीबी रोग भारत की सबसे बड़ी स्वास्थ्य चिंता बनी हुई है, तथा इस संक्रामक रोग से प्रतिदिन लगभग 1,400 भारतीयों की मृत्यु हो रही है। पर टीबी से होने वाली मौतों में अक्सर महिलाओं की मौजूदगी को नज़रअंदाज कर दिया जाता है


इसके अलावा टीबी का बैक्टीरिया शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली के खिलाफ लड़ता है और कभी-कभी इम्यून सिस्टम को चकमा देकर छिप जाता है, जिससे यह लेटेंट टीबी का रूप ले लेता है। लेटेंट टीबी में बैक्टीरिया शरीर में मौजूद रहता है। लेकिन सक्रिय नहीं होता, और रोगी कोई लक्षण नहीं दिखाता और ना ही वह दूसरों को संक्रमित करता है। हालांकि, अगर इम्यून सिस्टम कमजोर हो जाता है, तो लेटेंट टीबी सक्रिय टीबी में बदल सकता है और रोगी लक्षण दिखाने लगता है और संक्रामक हो जाता है। अगर इसका सही तरीके से इलाज ना किया जाए तो यह जानलेवा भी साबित हो सकता है।

तस्वीर सभार: Mint

टीबी का इलाज संभव है और इसे रोका जा सकता है। इसके कुछ सामान्य लक्षण हैं जैसे खांसी, अगर खांसी तीन हफ्ते या उससे ज्यादा समय तक बनी रहे तो यह टीबी का संकेत हो सकता है। खांसी के साथ अगर बलगम या खून आए तो यह भी टीबी का लक्षण हो सकता है। फेफड़ों में संक्रमण के कारण सीने में दर्द और सांस लेने में तकलीफ़ हो सकती है, बिना किसी कारण के वजन कम होना, खाने की इच्छा ना होना और लगातार थकान और कमजोरी महसूस होना, बार-बार बुखार आना और ठंड लगना भी टीबी का एक लक्षण हो सकता है।


महिलाओं के टीबी को अक्सर नज़रअंदाज़ किया जाता है

केंद्र सरकार की 2017 टीबी उन्मूलन योजना के अनुसार, टीबी रोग भारत की सबसे बड़ी स्वास्थ्य चिंता बनी हुई है, और इस संक्रामक रोग से प्रतिदिन लगभग 1,400 भारतीयों की मृत्यु हो रही है। पर टीबी से होने वाली मौतों में अक्सर महिलाओं की मौजूदगी को नज़रअंदाज कर दिया जाता है और इस बात पर चर्चा ही नहीं होती कि कैसे टीबी महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की वैश्विक टीबी रिपोर्ट, 2015 के अनुसार, टीबी के कारण विश्व भर में अन्य सभी मातृ मृत्यु दर के मुकाबले अधिक महिलाओं की मृत्यु होती है। टीबी के लिए भारत के लैंगिक रूप से असमान ढांचे में कहा गया है कि भारत में हर साल दस लाख से ज़्यादा महिलाओं और लड़कियों में टीबी का निदान किया जाता है।  

कैसे सामाजिक कारण महिलाओं को टीबी के दौरान प्रभावित करते हैं

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महिलाओं में टीबी के प्रभाव को समझने के लिए, हमें न केवल शारीरिक पहलुओं पर ध्यान देने की ज़रूरत है, बल्कि सामाजिक और आर्थिक पहलुओं को भी समझने की ज़रूरत है। अगर शरीरिक प्रभाव की बात करें तो टीबी महिलाओं के प्रजनन स्वास्थ्य पर असर डाल सकती है, जिससे बच्चा न होने की समस्या और गर्भावस्था संबंधी जटिलताएं हो सकती हैं। गर्भवती महिलाओं में टीबी का होना गर्भपात, समयपूर्व प्रसव और नवजात शिशु के कम वजन का कारण बन सकता है। पर अगर सामाजिक और आर्थिक प्रभावों की बात की जाए, तो कई बार महिलाओं को टीबी होने पर समाज में कलंक और भेदभाव का सामना करना पड़ता है। महिलाओं को डर रहता है कि एक पुरुष प्रधान समाज टीबी से जूझ रही महिलाओं को कभी स्वीकार नहीं करेगा।

महिलाओं में टीबी के सामाजिक प्रभाव उनकी आर्थिक स्थिति पर भी गहरा असर डालते हैं, जिसके चलते उन्हें शिक्षा और रोजगार के अवसरों में भी कमी का सामना करना पड़ता है, जो सीधे तौर पर उनकी कामकाजी क्षमता को प्रभावित करता है और उनकी आय में कमी आती है।

नैशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन द्वारा भोपाल में किए गए एक अध्ययन के अनुसार यह पता लगाने की कोशिश की गई कि महिलाओं के लिए टीबी निदान को प्रभावित करने वाली सामाजिक-सांस्कृतिक और ज्ञान-आधारित बाधाएं क्या हो सकती हैं। इसमें युवा महिलाओं में टीबी जैसी बीमारी को छुपाने का मुख्य कारण उनके अंदर बैठा उनके समुदाय द्वारा लगाए जाने वाले कलंक का डर था। भारत जैसे पुरुष प्रधान समाज में जहां अरेंज मैरिज का प्रचलन है, टीबी से जूझने वाली महिलाओं को यह अस्वीकृति की ओर ले जाती है, जिसके चलते कई महिलाओं का विवाह नहीं हो पाता। इसी सामाजिक डर की वजह से कई बार महिलाएं अपनी बीमारी को छुपा लेती हैं जो जागरूकता की कमी को दर्शाता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की वैश्विक टीबी रिपोर्ट, 2015 के अनुसार, टीबी के कारण विश्व भर में अन्य सभी मातृ मृत्यु दर के मुकाबले अधिक महिलाओं की मृत्यु होती है। टीबी के लिए भारत के लैंगिक रूप से असमान ढांचे में कहा गया है कि भारत में हर साल दस लाख से ज़्यादा महिलाओं और लड़कियों में टीबी का निदान किया जाता है।  

नैशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन द्वारा ही भारत में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि टीबी से पीड़ित पुरुष मरीज़ अपनी पत्नियों से अपनी देखभाल की उम्मीद करते हैं, लेकिन संक्रमित पत्नियों को शायद ही कभी देखभाल मिलती है। इस प्रकार विवाहित महिलाएं मदद मांगने के बजाय अपने लक्षणों को छिपाने की कोशिश कर सकती हैं। हालांकि वृद्ध महिलाओं में टीबी निदान में ज्ञान आधारित बाधाएं देखने को मिली है, जो अक्सर टीबी के लक्षण को एक गंभीर बीमारी ना समझकर अपनी बढ़ती हुई उम्र का एक कारण समझ लेती हैं और इसे नज़रअंदाज़ कर देती हैं।

महिलाओं में टीबी का आर्थिक असर

तसवीर साभार: The Guardian

महिलाओं में टीबी के सामाजिक प्रभाव उनकी आर्थिक स्थिति पर भी गहरा असर डालते हैं, जिसके चलते उन्हें शिक्षा और रोजगार के अवसरों में भी कमी का सामना करना पड़ता है। यह सीधे तौर पर उनकी कामकाजी क्षमता को प्रभावित करता है और उनकी आय में कमी आती है। टीबी के उपचार में आने वाला खर्च भी एक बड़ी चुनौती है, खासकर गरीब परिवारों के लिए। वैसे ही समाज में महिलाओं से जुड़े मुद्दों और समस्याओं को कम महत्व दिया जाता है ऊपर से बात अगर उन पर पैसे खर्च करने की आ जाए तो परिवार और पीछे हट जाता है, जिसके चलते उनकी स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं बढ़ती जाती हैं।

नैशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन द्वारा ही भारत में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि टीबी से पीड़ित पुरुष मरीज़ अपनी पत्नियों से अपनी देखभाल की उम्मीद करते हैं, लेकिन संक्रमित पत्नियों को शायद ही कभी देखभाल मिलती है। इस प्रकार विवाहित महिलाएं मदद मांगने के बजाय अपने लक्षणों को छिपाने की कोशिश कर सकती हैं।

इन सभी पहलुओं को देखते हुए टीबी के खिलाफ लड़ाई में महिलाओं के लिए विशेष ध्यान और सहायता की आवश्यकता है। इसमें बेहतर परामर्श, पोषण सहायता, और घर-घर जाकर जांच करने जैसे उपाय शामिल हैं। इसके अलावा, सामाजिक धारणा को बदलने और टीबी के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए जन आंदोलन और शिक्षा अभियानों की भी जरूरत है। महिलाओं में टीबी के बोझ को कम करने में इच्छाशक्ति की कमी और अपर्याप्त धन बाधाएं बनी हुई हैं। इसके खिलाफ लड़ाई में लैंगिक रूप से संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाने की भी आवश्यकता है ताकि महिलाओं को इस बीमारी से बचाया जा सके और उनकी स्थिति में सुधार हो सके।

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भारत ने हाल ही में 2025 तक टीबी को खत्म करने के लिए एक योजना की घोषणा की है और केंद्रीय मंत्रिमंडल ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 को भी मंजूरी दे दी है, जिसमें सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय को जीडीपी के 2.5 प्रतिशत तक बढ़ाने का प्रस्ताव है और व्यापक प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा के एक बड़े पैकेज की योजना है। उम्मीद की जा सकती है कि इन नई योजनाओं और प्रस्तावों में टीबी के लिए पर्याप्त रूप से अधिक धन, लिंग- और रोगी-संवेदनशील गुणवत्ता देखभाल का प्रावधान और कलंक का मुकाबला करने और टीबी के रोगियों, विशेष रूप से महिलाओं और लड़कियों के सामने आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए बनाई गई योजनाएं हों।

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