समाजख़बर 18वीं लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या में कमी

18वीं लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या में कमी

इस बार संसद में कुल सांसदों में से 13.6 प्रतिशत महिलाएं हैं। पिछली लोकसभा चुनाव और वर्तमान में यह मामूली अंतर है। 797 महिला उम्मीदवारों में से केवल 9 प्रतिशत ने जीत हासिल की है। 797 महिला उम्मीदवारों में 276 (35 प्रतिशत) महिला उम्मीदवारों ने निर्दलीय चुनाव लड़ा हालांकि इसमे से कोई जीत हासिल नहीं कर सकीं।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत और उसकी ससंद में महिलाओं, अल्पसंख्यक के प्रतिनिधित्व की बात करें तो वहां असमानता की एक बड़ी लकीर देखने को मिलती है। हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव के परिणाम हमारे सामने हैं और आंकड़े बताते है कि भारतीय संसद में पुरुष सांसदों की संख्या ज्यादा हैं। इसी संसद में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं, विधानपरिषदों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटों से जुड़ा महिला आरक्षण विधेयक पास हुआ लेकिन 18वीं लोकसभा के लिए चुने गए सांसदों में से केवल 13 प्रतिशत महिलाएं हैं। 543 निर्वाचित सांसदों में से 73 महिलाएं हैं। यह संख्या पिछली लोकसभा में चुनी गई 78 महिलाओं की तुलना में कम है। 

राष्ट्रीय पार्टियों की केवल 12 प्रतिशत महिला उम्मीदवार

अगर 2024 लोकसभा चुनावों को देखें तो यह संसद में महिला आरक्षण बिल के पास होने के बाद पहला लोकसभा चुनाव है। यह बिल संसद में महिला के 33 फीसदी प्रतिनिधित्व को तय करता है। शुरुआत से ही बात करें तो इस चुनाव में महिलाएं उम्मीदवारी से ही पिछड़ती दिखीं। चुनाव में खड़े कुल 8,337 उम्मीदवारों में से 797 महिलाएं थीं। 2019 में महिला उम्मीदवारों की कुल संख्या 720 थीं। इस बार संसद में कुल सांसदों में से 13.6 प्रतिशत महिलाएं हैं। पिछली लोकसभा चुनाव और वर्तमान में यह मामूली अंतर है। 797 महिला उम्मीदवारों में से केवल 9 प्रतिशत ने जीत हासिल की हैं। 797 महिला उम्मीदवारों में 276 (35 प्रतिशत) महिला उम्मीदवारों ने निर्दलीय चुनाव लड़ा हालांकि इसमे से कोई जीत हासिल नहीं कर सकीं। लगातार चुनावों में महिला का वोटिंग प्रतिशत बढ़ा है लेकिन महिलाओं की जीत का प्रतिशत बहुत कम है। राजनीति में उनका प्रतिनिधित्व उनकी आबादी के मुकाबले बहुत कम हैं। महिला सांसदों की कम संख्या के पीछे सबसे बड़ी वजह उनकी कम उम्मीदवारी भी है।

18वीं लोकसभा में 14 अलग-अलग पार्टियों की महिला सांसद चुनी गई हैं। जिसमें भाजपा की 31, कांग्रेस से 13, तृणमूल कांग्रेस से 11, समाजवादी पार्टी से पांच, डीएमके से तीन और एलजेपीआरवी, जनता दल (यूनाइटेड) से दो महिला सांसद, संसद पहुंची हैं।

राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के विषय पर फेमिनिज़म इन इंडिया से बात करते हुए प्रोफेसर विभूति पटेल का कहना है, “अधिकतर राजनीतिक पार्टियों के निर्णकर्ता चुनाव लड़ने के लिए सीट आवंटित करते समय अपनी पार्टी की वरिष्ठ महिला राजनीतिक कार्यकर्ता को बढ़ावा नहीं देते हैं। अधिकांश राजनीतिक दलों में महिला राजनीतिक कार्यकर्ताओं को केवल घर-घर जाकर प्रचार करने, अथिति सत्कार, रैलियों के प्रबंधन करने, जनसभाओं में लोगों को लाने आदि के लिए इस्तेमाल किया जाता है। चुनावी राजनीति में पैसा, माफिया और बाहुबल एक प्रमुख भूमिका निभाता है और राजनीतिक भाषणों में स्त्रीद्वेष और अति-पुरुषवाद की भरमार होती है। महिला उम्मीदवारों का चरित्र हनन करने का हथियार भी महिलाओं को चुनाव लड़ने से रोकता हैं।”

किस पार्टी के कितनी महिला सांसद

तमाम आंकड़ें और संख्या के आधार पर कहा जा सकता है कि भारतीय राजनीति का चेहरा पुरुषवादी है। राजनीतिक पार्टियां महिला सशक्तिकरण और समानता पर केवल बड़ी-बड़ी बातें करती दिखती हैं। 18वीं लोकसभा में 14 अलग-अलग पार्टियों की महिला सांसद चुनी गई हैं। जिसमें भाजपा की 31, कांग्रेस से 13, तृणमूल कांग्रेस से 11, समाजवादी पार्टी से पांच, डीएमके से तीन और एलजेपीआरवी, जनता दल (यूनाइटेड) से दो महिला सांसद, संसद पहुंची हैं। इसके अलावा अन्य पार्टियों की एक-एक सांसद है।

74 नई महिला सांसद में से 43 पहली बार संसद में पहुंची हैं। इस बार बहुत सी महिला सांसद की उम्र 25 से 30 साल के बीच है। जिसमें कांग्रेस की ओर से संजना जाटव (26) भरतपुर सीट राजस्थान से, प्रियंका जारकीहोली (25) चिक्कोड़ी, कर्नाटक से चुनी गई हैं। लोकजन शक्ति पार्टी से शांभवी चौधरी (25) समस्तीपुर, बिहार से चुनी गई हैं। समाजवादी पार्टी की ओर से इकरा चौधरी (29) कैराना और प्रिया सरोज (25) मछलीशहर से चुनाव जीती हैं। ये सब युवा महिलाएं हैं लेकिन इनमें से अधिकतर महिलाएं राजनीतिक परिवारों से संबंध रखती हैं। भारतीय राजनीति में धनबल और बाहुबल के कारण उन्हीं महिला नेताओं की उम्मीदवारी सामने ज्यादा आती दिखती है जिनका किसी मजबूत राजनीतिक परिवार से संबंध है। भारतीय राजनीति में महिलाओं और हाशिये के समुदाय के पहचान रखने वाले लोगों की उम्मीदावारों को राजनीतिक दलों द्वारा कम महत्व दिया जाता है।  

इस पर प्रोफेसर पटेल कहती हैं, “एक बार एक इंस्टीट्यूट में अलग-अलग राजनीतिक दलों की महिला उम्मीदवारों के लिए सेशन में राष्ट्रीय राजनीतिक दल की एक वरिष्ठ सदस्य ने यह भी बताया कि यदि किसी महिला को उम्मीदवार बनाया भी जाता है तो वह ऐसे निर्वाचन क्षेत्र में जहां हार 100 फीसदी निश्चित है क्योंकि प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार बहुत शक्तिशाली है और उसके पास कई वर्षों से निर्वाचन क्षेत्र की सेवा करने का रिकॉर्ड है। महिलाओं के साथ होते ऐतिहासिक अन्याय के लिए संसद, विधानसभाओं और राज्य विधानपरिषदों में महिलाओं के लिए आरक्षण एक सकारात्मक कार्रवाई है, जो चुनावी राजनीति में महिलाओं के लिए समान अवसर तय करने का एकमात्र तरीका है। हमने देखा है कि पंचायती राज में 50 प्रतिशत महिला आरक्षण गेम चेंजर रहा है। इसी तरह, राजनीतिक दलों के लिए चुनाव लड़ने के लिए महिला उम्मीदवारों के लिए 33 प्रतिशत सीटें आवंटित करना चाहिए। जैसे ही महिला आरक्षण बिल 2023 लागू होगा यह विधानपरिषद/ विधानसभाओं और संसद में फैलने लेने की प्रक्रियाओं में महिलाओं को मुख्यधारा में लाने में तेजी लाएगा।”

लैंगिक समानता के लिए तय करना होगा लंबा रास्ता

तस्वीर साभारः Business Today

राजनीति में लैंगिक समानता को स्थापित करने के लिए भारत को अभी लंबा रास्ता तय करना होगा। दुनिया के अन्य देशों के मुकाबले भारत की स्थिति बहुत बेहतर नहीं हैं। इंटर पार्लियामेंट यूनियन (आईपीयू) ने मई 2024 में राष्ट्रीय संसदों से जुड़ी एक रैंकिंग जारी की, जो संसदों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को दिखाती है। 2019 में 14.7 फीसदी सांसद महिलाएं थीं जिससे ग्लोबल इंडेक्स में भारत की रैंक 145 हो गई। 2019 में महिला सांसदों की संख्या भारत में अब तक की सबसे ज्यादा थी। मई 2024 तक महिला सांसदों की संख्या में गिरावट आई है जिससे भारत की रैंकिंग गिरकर 150 हो गई है। द हिंदुस्तान टाइम्स में छपी ख़बर के मुताबिक़ भारत में महिला सांसदों का वैश्विक औसत 26.5 प्रतिशत और दक्षिणी और मध्य एशिया का औसत 19 प्रतिशत से भी कम है। भारत की रैंक यूएई, दक्षिण अफ्रीका, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका और इंग्लैंड जैसे देशों से पीछे हैं। अफ्रीकी मुल्क रवांडा की संसद में महिला सांसदों की संख्या 61.3 प्रतिशत है जो इंडेक्स में सबसे ऊपर है। एशिया में भारत के पड़ोसी मुल्कों की स्थिति भी बेहतर हैं जहां पाकिस्तान 116वें, चीन 89वें, और नेपान 55वें स्थान पर हैं। 

संसद में अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व की कमी

संसद में सबका प्रतिनिधित्व होना ज़रूरी है ताकि हर वर्ग की आवाज़ को सुना जा सकें। भारतीय संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व से अलग अगर अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व की बात करें तो उनकी संख्या भी बहुत कम है। केंद्र में भाजपा के नेतृत्व में नैशनल डेमोक्रेटिक अलाइंस की सरकार तीसरी बार सत्ता में आई है। लेकिन एनडीए के 293 लोकसभा सांसदों में ईसाई, मुस्लिम और सिख समुदाय से एक भी सांसद नहीं है। पूर्व केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू एक बौद्ध सांसद हैं जिन्होंने कांग्रेस के नबाम तुकी को हराकर अरूणाचल पश्चिम की सीट बरकरार रखी है। इंडिया ब्लॉक के 235 सांसदों में से मुस्लिम 7.9 प्रतिशत, 5 प्रतिशत सिख और 3.5 प्रतिशत ईसाई हैं।

इंडिया ब्लॉक से 21 मुस्लिम लोकसभा पहुंचे हैं और एनडीए गठबंधन से एक भी प्रतिनिधि मुस्लिम नहीं है। कांग्रेस के 99 सांसदों में से 7 मुस्लिम हैं। टीएमसी से पांच, समाजवादी पार्टी से चार सांसद लोकसभा में पहुंच हैं। लोकसभा चुनाव में अगर मुस्लिम समुदाय से उम्मीदवारों की ही बात करें तो 2019 के लोकसभा चुनावों में राजनीतिक दलों ने 115 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया था और 26 ने जीत हासिल की थी। जबकि 2014 में 23 मुस्लिम उम्मीदवार लोकसभा पहुंच पाए थे। फिलहाल सरकार के मंत्रिमंडल में कोई मुस्लिम नहीं है। जुलाई 2022 में मुख्तार अब्बास नकवी का कार्यकल खत्म होने के बाद नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार में मुस्लिम समुदाय से कोई व्यक्ति नहीं है।  

74 नई महिला सांसद में से 43 पहली बार संसद में पहुंची है। इस बार बहुत सी महिला सांसद की उम्र 25 से 30 साल के बीच है। जिसमें कांग्रेस की ओर से संजना जाटव (26) भरतपुर सीट राजस्थान से, प्रियंका जारकीहोली (25) चिक्कोड़ी, कर्नाटक से चुनी गई हैं।

अमूमन अल्पसंख्यक मंत्रालय किसी अल्पसंख्यक समुदाय से आने वाले व्यक्ति को दिया जाता था लेकिन मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल से इसमें भी बदलाव ला दिया गया है। राजनीति में महिलाओं और अल्पसंख्यकों की भागीदारी का निचले स्तर पर होना एक स्वस्थ लोकतंत्र को नहीं दर्शाता है। समाज में राजनीति के ज़रिये विभिन्नता और समानता को बढ़ावा दिया जाता है और चुनावी राजनीति में जबतक महिला, अल्पसंख्यक और हाशिये के समुदाय के लोगों को आगे नहीं लाया जाएगा तकबतक दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र स्वस्थ नहीं कहलाएगा।


स्रोतः

  1. The Indian Express
  2. India Today

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