इंटरसेक्शनलजेंडर जेंडर के आधार पर बंटे हमारे घर और मौजूदगी के संघर्ष 

जेंडर के आधार पर बंटे हमारे घर और मौजूदगी के संघर्ष 

अक्सर ऐसा कहा जाता है कि घरों के अंदर महिलाओं का एकाधिकार होता है। लेकिन लैंगिक भूमिका की वजह से ऐसी कोई भी एक जगह नहीं होती है जिससे महिलाओं की जगह कहा जा सके। पूरे घर में अपनी जगह कहने के लिए उसके पास कोई जगह नहीं होती हैं।

शाम का वक्त है, घर के आंगन में सारी महिलाएं बैठकर हँसी-ठिठोली कर रही है अचानक से घर के एक पुरुष के आ जाने के बाद वे जल्दी से अपना पल्लू संवारते हुए तेजी से अपने आप को छिपाने की कोशिश में कमरों की तरफ़ भागती नज़र आती हैं। यह दृश्य अमूमन हमारे पितृसत्तात्मक घरों का आम दृश्य है। इसमें शहरी या ग्रामीण परिवेश को केंद्र रख कुछ नहीं कहा जा सकता है क्योंकि स्त्रियों के लिए घरों में ही कुछ जगह प्रवेश निषेध वाली है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था के हमारे पारिवारिक ढांचों की स्थिति में स्त्रियों के अस्तित्व हाशिये पर है। घर में रसोई तक ही उसकी मौजूदगी को सही माना जाता है। यही दिखाता है कि हमारे घरों का माहौल जेंडर के आधार पर बंटा हुआ होता है।

घरों के भीतर जगहों को अलग-अलग कामों के लिए इस्तेमाल करने का निर्धारण जेंडर के आधार पर किया गया है। महिलाओं और पुरुषों के भीतर सीमाओं के तहत इसे बांटा गया है। कुछ जगह पर महिलाओं की उपस्थिति को अपमान, जाति, वर्ग आदि से जोड़ लिया जाता है। जहां पर पुरुष का होना हैसियत, गर्व से जुड़ा होता है वही घर के कुछ कोने ऐसे होते है जहां महिलाओं को बड़ी सावधानी से अपने कदम रखने पड़ते है। उसके मन में यह रहता है कि कही कोई देख न लें। लैंगिक आधार पर बंटे हमारे समाज, घर-परिवार में अपने ही स्पेस में महिलाएं, लड़कियां सहज होकर नहीं रह पाती है। अक्सर ऐसा कहा जाता है कि स्त्रियों का दायरा घर तक सीमित है लेकिन पूरे घर में हर जगह उनके लिए नहीं है और पुरुषों की मौजूदगी में उन्हें अपनी ही घर में बहुत सर्तक और सावधानी बरतते हुए रहना पड़ता है। 

आंगन या घर के बाहर दहलीज पर महिलाओं, लड़कियों के बैठने, खड़े होने को बुरा माना जाता है। आंगन में महिलाएं केवल पुरुषों की गैर-मौजूदगी में हो सकती है लेकिन उनके सामने न बैठती दिखती है और न ही काम करती नज़र आती है।

महिलाओं के पास नहीं होती अपनी एक जगह

घर की पहचान को अक्सर महिला से जोड़कर देखा जाता है। एक घर कितना अच्छा है, व्यवस्थित है, स्वच्छ है इसे उसकी प्रंशसा से जोड़कर देखा जाता है। अक्सर ऐसा कहा जाता है कि घरों के अंदर महिलाओं का एकाधिकार होता है। लेकिन लैंगिक भूमिका की वजह से ऐसी कोई भी एक जगह नहीं होती है जिससे महिलाओं की जगह कहा जा सके। पूरे घर में अपनी जगह कहने के लिए उसके पास कोई जगह नहीं होती हैं। यही वह घर जिसे औरत की पहचान से जोड़ा जाता है उसके पास उस जगह खुद की कोई जगह नहीं होती है, बिल्कुल निजी जगह जहां पर वह बिना किसी लैंगिक भूमिका के हो। जहां पर वह स्वतंत्र, एकांत आदि के पल जी सके। जिसे वह खुद की जगह कह सकती हो जहां उसे कोई जज करने वाला न हो।

“दहलीज पर खड़े होने से रोका जाता था”

तस्वीर साभारः फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बनर्जी

संस्कृति, समाज को हमेशा पुरुष से जोड़ा गया है और वह उनकी सहूलियत के आधार पर ही विकसित हुआ है। यही वजह है कि सामाजिक-संस्कृति में विचारों से लेकर तकनीक तक में अलग-अलग वस्तुओं और सेवाओं को भी पुरुषों के अनुकूल बनाया गया है। घरों में अलग-अलग जगहों की बात करते हुए महिलाओं और उनके समानाओं की मौजूदगी आज भी स्पष्ट और स्वतंत्र रूप से नहीं देखने को मिलती है। आंगन या घर के बाहर दहलीज पर महिलाओं, लड़कियों के बैठने, खड़े होने को बुरा माना जाता है। आंगन में महिलाएं केवल पुरुषों की गैर-मौजूदगी में हो सकती हैं लेकिन उनके सामने न बैठती दिखती है और न ही काम करती नज़र आती है। इस पर 48 वर्षीय रेणु अपनी बचपन की एक घटना के बारे में बताते हुए कहती है, “हमारे घर या ससुराल में आज भी बहुत कुछ बदला है तो मेरा जवाब ना में ही है। जब हम छोटे थे तब भी हमें आंगन में गर्मियों में बैठकी लगाने से रोका जाता था, ऊंची आवाज़ होने पर डांटा जाता था।”  

वह आगे बताती है, “घर के आदमियों का अक्सर आने-जाने का टाइम तय था तो हम उनसे पहले ही आंगन में से उठ जाते थे। लेकिन कभी-कभार उनके अचानक से आ जाने पर हमारी बैठकी लगाने पर हमें डांटा जाता कि इतना शोर क्यों मचाया हुआ है। उस दौर में टीवी भी हर किसी के यहां नहीं होता था तो हम परिवार की औरतें बिलुकल पीछे बैठकर देखती थी। हमारे माँ और भाभी घूंघट में अक्सर सबसे पीछे बैठी रहती थी। आज भी स्थिति बहुत नहीं बदली है। यहां ससुराल में भी कहने को ये घर मेरा है लेकिन दहलीज पर बैठना तो बहुत दूर की बात कुछ पल के लिए खड़े तक नहीं हो सकते है। अगर बैठक में कोई पुरुष आकर बैठे हुए है तो हमें आंगन में आकर काम करते हुए शर्म महसूस होती है। इस वजह से हम अपना काम छोड़ देते है और बस लोगों के जाने का इंतजार करते हैं। ये तो है अपनी ही घर में हमें इस तरह बंधकर रहना होता है। हमें इन सब चीजों की इतनी आदत हो गई है कि ये सब बहुत अटपटा भी नहीं लगता है।”

जेंडर के आधार पर विभाजित हमारी जगह और काम में महिलाओं को पीछे रखा गया है। उनकी और उनके सामान की मौजूदगी भी अलग-अलग तरह से देखा गया है। आज भी यह आराम से सुनने को मिलता है कि महिलाओं के कपड़े इस तरह से आंगने में सूखे अच्छे नहीं लगते है। ख़ासतौर पर महिलाओं के अंतवस्त्र कभी नहीं दिखाई देते हैं। धूप में अगर तार पर उन्हें सुखाया जाता है तो उनके ऊपर दूसरा कपड़ा ढ़क दिया जाता है या फिर घर में अंदर उन्हें कही छिपा कर सुखाया जाता है। ये जगह ऐसी होती है जहां पुरुषों की नज़र नहीं पड़ती है। इतना ही नहीं इंटिमेट हाईजीन के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले प्रोडक्ट्स रेजर, क्रीम या फिर पीरियड्स के लिए इस्तेमाल होने वाली सैनिटरी पैड्स को घरों के भीतर भी बहुत छिपाकर रखा जाता है। कुछ इस तरह का एहसास कराया जाता है कि जैसे महिलाएं इन सब चीजों का इस्तेमाल ही नहीं करती है या फिर करना एक शर्म की बात है। 

तस्वीर साभारः फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बनर्जी

33 वर्षीय नीलम वैसे तो एक कामकाजी महिला है लेकिन महिलाएं और उनकी मौजूदगी पर बोलते हुए वह कहती है, “हमारे भीतर चीजों को इतनी गहरी तौर पर स्थापित कर दिया गया है कि आज थोड़ा-बहुत सीखकर और जानने के बाद भी खुद के अंदर से कुछ चीजें अभी भी नहीं निकल पाती हूं। मैं बाहर जाती हूं लेकिन मेरा रवैया और हालचाल वैसा ही होता है जैसे मेरे घर के पुरुषों ने तय किया है। घर में भी स्थिति वैसी है शादी के बाद भी यह सिलसिला चल रहा है। ब्रॉ और अंडरवियर को कपड़े ढ़कने का चलन यहां भी है। कभी-कभी सबके कपड़े धोते और सुखाते हुए ये सवाल आता है हमारे कपड़ों को शर्म का विषय क्यों बना दिया जाता है जैसे किसी अन्य के शरीर की ज़रूरत कुछ और है वैसे ही हमारे शरीर की ज़रूरत ऐसे कपड़े है फिर इस पर शर्म किस बात की।” 

अपने ही घर में बालकनी, आंगन, बैठक में एक पुरुष किसी भी तरह से बैठ-उठ सकता है वहीं महिलाओं के लिए ऐसा करना मुमकिन नहीं है। खुद के घर में किसी अन्य की मौजूदगी में सहज होकर उठना-बैठना महिलाओं के लिए एक विशेषाधिकार के समान है। यह सब दिखाता है कि घर के मायने ही एक पुरुष और महिलाओं के लिए अलग है। छत का इस्तेमाल करने तक पर उनके चरित्र पर उंगली उठा दी जाती है। शाम में छत पर जाता और ज्यादा वक्त बिताना एक युवा लड़की का सही नहीं माना जाता है। अंधेरे में जब कोई उसे न देख पाएं वह चल सकता है लेकिन ढ़लती शाम में जब अधिकतर लोग यानी पुरुष आराम या खाली वक्त बिताने के लिए छतों पर मौजूद होते है उस समय भी महिला या लड़कियों के लिए छत पर जाने से रोका जाता है।

32 वर्षीय ऋचा (बदला हुआ नाम) छत पर समय बिताने को लेकर एक घटना को याद करते हुए कहती है, “जब मैं कक्षा दस में पढ़ती थी तो मैं सर्दियों में धूप में बैठकर बोर्ड की परीक्षाओं की तैयारी करती थी। छत पर बैठकर घंटो-घंटो पढ़ती थी। लेकिन मेरी दिन में समय से ज्यादा मौजूदगी को मेरे परिवार की एक चाची ने यह कहा कि छत पर जवान लड़कियों का ज्यादा वक्त बिताना अच्छा नहीं होता है। ये शब्द मेरे दिमाग से आजतक नहीं निकले हैं। मुझे तब भी बुरा लगा था और आज भी बुरा लगता है मेरे ही घर के लोग ऐसा कैसे कह सकते हैं। आज भी मेरी आदत है कि मैं देर रात अंधेरे या सुबह-सवेरे ही छत और बालकनी में वक्त बिताती हूं ताकि खुद को औरों की नज़रों से बचा सकूं और कुछ ऐसा न सुनू जो मुझे परेशान करे।”

खुद के घर में किसी अन्य की मौजूदगी में सहज होकर उठना-बैठना महिलाओं के लिए एक विशेषाधिकार के समान है। यह सब दिखाता है कि घर के मायने ही एक पुरुष और महिलाओं के लिए अलग है। छत का इस्तेमाल करने तक पर उनके चरित्र पर उंगली उठा दी जाती है।

हमारे घरों के ढांचे और लिंग के बीच में सीधा संबंध है और यह सीधा महिलाओं की गतिशीलता, स्वतंत्रता, निचता और यौनिकता को प्रभावित करता है। कई गतिविधियां और व्यवस्थाओं को लिंग के आधार पर जांचने पर पता चलता है कि सुरक्षा, सम्मान और संस्कृति के आधार पर स्थापित की गई धारणाओं पर इसे लागू किया गया है। समाज में “अच्छे घर की औरतें” ऐसा नहीं करती है, बाहर नहीं जाती है, बाहर नहीं दिखती है, उनके घर में ऐसा नहीं होता है जैसे कथनों के द्वारा उसे रोका जाता है। बचपन से उसके अंदर एक मकान को घर औरत बनाती है और अच्छे घर की औरतें ऐसा करती है बातों को स्थापित कर दिया जाता है और एक मां, बेटी, पत्नी के रूप में उससे इस व्यवहार की उम्मीद की जाती है। घर की मर्यादा की बढ़ाने का भार उस पर लादकर उसे घर में भी कैद कर दिया जाता है।


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