मेरी पहली से पाँचवीं और छठी से बारहवीं तक की शिक्षा दो अलग-अलग स्कूलों में हुई और दोनों ही ‘अच्छे स्कूलों’ की श्रेणी में आते थे। यहाँ ‘अच्छे स्कूलों’ से मेरा मतलब ऐसे स्कूलों से है जहाँ स्कूल का भवन अच्छा था, पर्याप्त संसाधन थे और अकादमिक व गैर अकादमिक विषयों के लिए अलग-अलग शिक्षक थे। लेकिन मेरे दोनों स्कूलों में ही ज़्यादा ज़ोर अकादमिक विषयों में आगे बढ़ने पर दिया जाता था। इनमें खेल के लिए अलग शिक्षक, अलग कक्ष और सभी प्रकार के संसाधन उपलब्ध होने के बावजूद मुझे कभी भी खेल नहीं सिखाए गए और न ही कभी इनके लिए प्रोत्साहित किया गया। दोनों ही स्कूलों में मैंने खेल के शिक्षकों के रूप में पुरुष शिक्षकों को ही पाया। प्राथमिक कक्षा के खेल शिक्षक तो हमारे आसपास फटकते तक नहीं थे, इतना ही याद है कि स्पोर्ट्स डे आने पर वे सभी बच्चों को पीटी सिखा देते थे।
छठी-सातवीं में मैं और मेरी बाकी सहेलियाँ खेल के पीरियड में पोशम्पा भाई पोशम्पा, लाल परी-नीली परी, खो-खो जैसे खेल खेलते थे। थोड़ी बड़ी हुई और आठवीं नौवीं में पहुँची तो इन गिने-चुने खेलों से भी मेरा रिश्ता टूटता गया। अब मेरे लिए और मेरे साथ पढ़नेवाली बाकी लड़कियों के लिए खेल का पीरियड महज बैठकर बातें करने का पीरियड बनकर रह गया था। उसमें लड़कियाँ किसी चबूतरे पर या पेड़ के नीचे छोटे-छोटे समूह में बैठकर या फिर दो-दो के जोड़े में इधर-उधर घूमती हुई बातें करतीं। मेरी कक्षा के लड़के ज़रूर खेल के पीरियड का पूरा इस्तेमाल करते और इसमें मज़े से क्रिकेट या फुटबॉल जैसे खेल खेलते। मुझे याद है कि सामान्य दिनों में तो मैं खेल न खेल पाती, लेकिन जब स्पोर्ट्स डे आता तब मैं अलग-अलग खेलों में अपना नाम लिखवाने की कोशिश करती।
खेलने के लिए कभी माहौल ही नहीं मिला
स्पोर्ट्स डे के लिए बच्चों के चयन की प्रक्रिया काफ़ी रोचक होती थी। मुझे याद है मैंने गोला फेंक, लम्बी कूद और दौड़ की प्रतियोगिता में अपना नाम लिखवाने के लिए चयन की प्रक्रिया में हिस्सा लिया था लेकिन मेरा चयन नहीं हुआ था। गोला फेंक में इस्तेमाल होनेवाला बड़ा सा गोला बहुत भारी था और मेरे हाथ में ही नहीं समा रहा था। मैं कभी भी खेल से जुड़ी किसी प्रतियोगिता में कोई ईनाम नहीं जीत सकी और मैं एक पढ़ाकू लड़की भर बनकर रह गई थी, जिसे परीक्षाओं में अच्छे अंक मिल जाते थे। अब सोचती हूँ तो मुझे लगता है कि मेरी खेल में अरुचि नहीं थी, बल्कि मुझे यह लगता है कि मुझे कभी खेलों के लिए कोई प्रोत्साहन और माहौल ही नहीं मिला। यही वजह है कि क्रिकेट, बास्केटबॉल और वॉलीबॉल जैसे खेलों से कभी मेरा कोई रिश्ता ही नहीं बन सका। मुझे कभी- कभी खेल के उन शिक्षकों पर गुस्सा भी आता है, जो खेल का शिक्षक होने के नाते अपना पूरा वेतन ज़रूर लेते थे, लेकिन वे अपनी भूमिका से कभी न्याय नहीं कर सके, उन्होंने न तो लड़कों को ही प्रोत्साहित किया और न ही लड़कियों को। ये बात और है कि लड़कों के लिए एक खुला माहौल रहता था और कोई सिखाए या नहीं इससे बेपरवाह वे खुद ही खेल लेते थे और खेलने के कोई भी मौके गँवाते नहीं थे।
ये तो हाल था स्कूल का और अगर घर की बात कहूँ तो मेरा घर एक सुख-सुविधाओं से सम्पन्न कॉलोनी में स्थित था। तेरह-चौदह साल का होने तक मैं कॉलोनी के लड़कों और लड़कियों के साथ लुका-छिपी और चोर-सिपाही या लूडो जैसे खेल खेलती थी, उसके बाद बड़े होते-होते यह सब भी कम होता गया। मेरे घर के ठीक सामने एक बहुत बड़ा सा मैदान था। मेरी याददाश्त में मैंने और मेरी कॉलोनी की बाकी लड़कियों ने कभी भी उस मैदान में क्रिकेट, फुटबॉल या ऐसा ही कोई और खेल नहीं खेला, साइकिल ज़रूर मैंने उसी मैदान में चलानी सीखी। रविवार को, गर्मी की छुट्टियों में और आम दिनों में भी शाम को बड़ी उम्र के लड़के वहाँ क्रिकेट खेला करते थे। कितना आसान था उनके लिए वहाँ खेलना। नीतिगत दस्तावेज भी खेलों पर ज़ोर देने की बात करते हैं लड़के हों या लड़कियाँ, उनके समग्र विकास के लिए खेल बहुत ज़रूरी होते हैं, इनसे वे ऐसे कई कौशल सीखते हैं, जिन्हें अकादमिक विषयों से सीखना मुमकिन नहीं होता।
खेल हमारे लिए क्यों ज़रूरी हैं
खेलों से हम समूह में काम करना, नेतृत्व कौशल, हार-जीत को स्वीकार करना, परिस्थितियों और लोगों से सामंजस्य बैठाना, अनुशासन और अपनी भावनाओं का प्रबन्धन करना सीखते हैं। समय-समय पर एच. एन. कुंजरू समिति, कोठारी कमीशन और राधाकृष्ण समिति द्वारा तैयार किए गए दस्तावेजों राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा 2005 व शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2005 ने खेल और प्राथमिक शिक्षा की महत्ता पर ज़ोर देते हुए खेलों को स्कूलों में अकादमिक विषयों के साथ एकीकृत करने की सिफारिश की। ये बात और है कि इनमें भी खेलों में लड़कियों को प्रोत्साहित किए जाने को लेकर कुछ खास नहीं दिया गया है। इनमें जो शब्दावली इस्तेमाल की गई है उसमें यही लिखा है कि सभी बच्चों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
वर्तमान में स्कूलों में कितने बदले हैं हालत
स्कूलों में खेलों में लड़कियों की भागीदारी को लेकर हालात कुछ बदले हैं या सब कुछ पहले जैसा ही है, यह समझने के लिए हमने बात की अलग-अलग तरह के स्कूलों में पढ़नेवाली अलग-अलग उम्र की कुछ लड़कियों से अलीना अहमदाबाद के एक प्राइवेट स्कूल में कक्षा पांच में पढ़ती हैं। यह पूछने पर कि उनके टाइमटेबल में खेल का कोई पीरियड है या नहीं, वे कहती हैं, “होता तो है लेकिन हमको खिलाते नहीं, पूरे दिन बस लिखाते हैं।” यह पूछने पर कि उनके स्कूल में प्राथमिक कक्षाओं के लिए कोई अलग से स्पोर्ट्स टीचर है या नहीं और उन्हें कभी खेलने का मौका मिलता है या नहीं, वे बताती हैं, “केवल स्पोर्ट्स डे के दो-तीन दिन पहले रस्सी कूदना, लम्बी कूद, दौड़ आदि खिलाते हैं, आम दिनों में नहीं। स्कूल में प्राथमिक कक्षाओं के लिए खेल के कोई अलग से शिक्षक भी नहीं है।”
अहमदाबाद के ही एक दूसरे प्राइवेट स्कूल में कक्षा बारह में पढ़नेवाली रिमशा बताती हैं, “मेरे स्कूल में तो खेल का लेक्चर ही नहीं होता।” खेल के सामानों की उपलब्धता और खेल के शिक्षक की उपलब्धता के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि उनके स्कूल में एक छोटा सा मैदान है, खेल के शिक्षक को उन्होंने कभी नहीं देखा, शिक्षक हैं भी या नहीं उन्हें जानकारी नहीं और न ही उन्होंने कभी बच्चों को खेल से सम्बन्धित सामग्री इस्तेमाल करते देखा। उनके स्कूल में दसवीं से बारहवीं तक के लड़कों और लड़कियों किसी को भी खेलने के कोई मौके नहीं दिए जाते।
स्कूल में खेलने के लिए कभी प्रोत्साहित ही नहीं किया
कानपुर के एक केन्द्रीय विद्यालय में कक्षा 12वीं में पढ़नेवाली सुप्रिया बताती हैं कि उनके स्कूल में खेल के बड़े-बड़े मैदान हैं और खेल का सामान और शिक्षक भी हैं, बच्चों को खेल के कौन से सामान दिए जाएँगे, दिए जाएँगे भी या नहीं इस सब का फैसला शिक्षक करते हैं। वे बताती हैं, “पूरे हफ्ते में खेल के गिने-चुने पीरियड ही हैं। उसमें 7-8 लड़कियाँ ही आपस में क्रिकेट जैसे खेल खेलती हैं, बाकी कैंटीन में बैठी रहती हैं या आपस में बातें करती हैं या फिर स्कूल का होमवर्क पूरा करती हैं। खेल के शिक्षक केवल खेल का सामान देने और उसे वापस रखने का काम करते हैं। आपका खेलने का मन हो तो सामान ले लो और खेलकर वापस कर दो, सिखाता कोई नहीं, सिखाया तभी जाता है जब खेल की कोई प्रतियोगिता होनेवाली हो।”
ऊपर दिए गए बयान दर्शाते हैं कि किस तरह से स्कूलों में खेलों को लेकर प्रोत्साहन बहुत कम है। प्रोत्साहन लड़कों और लड़कियों दोनों को ही कम दिया जाता है, लेकिन अगर स्कूल में खेलने की सामग्रियाँ और मैदान होता है और टाइम टेबल में खेल का कालांश होता है तो लड़के आमतौर पर खेल लेते हैं। जबकि लड़कियाँ छठी सातवीं तक तो फिर भी आपस में स्थानीय स्तर के खेल खेल लेती हैं, लेकिन दसवीं-बारहवीं और कॉलेज के स्तर की शिक्षा तक पहुँचते-पहुँचते खेलों से लड़कियों की दूरियाँ बढ़ती जाती हैं। व्यापक स्तर पर इसके पीछे कहीं न कहीं समाज की यह मानसिकता काम करती है कि युवा लड़कियों को ज़्यादा उछलने- कूदने से बचना चाहिए और धीर-गम्भीर नज़र आना चाहिए, साथ ही यह भी सच है कि खेलों को दोयम दर्ज़े का माना जाता है और अकादमिक विषयों में अच्छा प्रदर्शन करने पर ही ज़्यादा ज़ोर दिया जाता है।
अलीना अहमदाबाद के एक प्राइवेट स्कूल में कक्षा पांच में पढ़ती हैं। यह पूछने पर कि उनके टाइमटेबल में खेल का कोई पीरियड है या नहीं, वे कहती हैं, “होता तो है लेकिन हमको खिलाते नहीं, पूरे दिन बस लिखाते हैं।”
समाज की यही मानसिकता स्कूलों में लड़कियों के लिए खेलने के कम अवसरों और खेलों में उन्हें दिए जानेवाले कम प्रोत्साहन का रूप ले लेती है। मुझे लगता है खेलों को प्रोत्साहन देने के लिए स्कूल एक अच्छी जगह हो सकते हैं क्योंकि खेल आमतौर पर समूहों में खेले जाते हैं। स्कूल ही ऐसा स्थान होते हैं जहाँ खेल के लिए टीमें बनाना आसान होता है क्योंकि घरों में आमतौर पर एक निश्चित समय पर बच्चों को इकट्ठा करना और फिर टीम बनाकर खेलना मुश्किल होता है। इसके अलावा घर के नज़दीक क्रिकेट और फुटबॉल जैसे खेल खेले जा सकने के लिए खेल का मैदान उपलब्ध होने की सम्भावना भी कम ही होती है। यह ज़रूरी है कि खेलों के लिए टाइम टेबल में कालांश हों और लड़कों व लड़कियों दोनों को खेल में बराबरी के अवसर प्रदान किए जाएँ और खेलों को खेल प्रतियोगिता जीतने भर के लिए न प्रोत्साहित किया जाए बल्कि आम दिनों में भी प्रोत्साहित किया जाए।