समाजखेल छोटे शहरों में खेल के ज़रिये पितृसत्ता को कैसे चुनौती दे रही हैं ये लड़कियां

छोटे शहरों में खेल के ज़रिये पितृसत्ता को कैसे चुनौती दे रही हैं ये लड़कियां

इन चार महिलाओं की कहानी बेहद प्रेरणादायक है। लेकिन इनके जीवन में सरकार व प्रशासन की नाकामी को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। यदि बिना कोई सामाजिक, सरकारी सहयोग के यह इतना कुछ कर रही हैं तो कल्पना कीजिए कि एक लैंगिक बराबरी वाले समाज में यह क्या कर गुज़रेंगी।

हमारे जन्म के साथ ही हमें अलग-अलग लैंगिक भूमिकाओं में बांध दिया जाता है। खेल भी उन्हीं में से एक है। यूं तो ‘खेल’ बड़ा ही आज़ाद सा शब्द है और मन में खुशी और उत्साह की भावना पैदा करता है। अपने सारे बोझ को किनारे रख मन लगाकर, मज़े में खेलना। कितना सुखद एहसास है। इससे ज़्यादा मैं खेल को महसूस नहीं कर सकती क्योंकि जब स्कूल में सब खेलते थे, तो हम सीढ़ियों पर बैठकर बातें किया करते थे। कभी-कभी संगीत या कला में भाग ले लिया करते और कभी कक्षा में बैठकर पढ़ लेते। ऐसा नहीं है कि लड़कियों के खेलने पर मनाही थी। कई लड़कियां खेला भी करती थीं। लेकिन नियमों में मंज़ूरी होने के बावजूद, कुछ तो था जो लड़कियों को खेल से कम जोड़ता था। शायद अपनी माँओं और बाकि महिलाओं को अधिकतर कभी कुछ खेल से जुड़ा न करते देखना या घर में कभी इसके लिए प्रोत्साहित न किया जाना।

कोई घर पर आ कर अगर पांचवी कक्षा में यह कह सकता था कि “जब तुम्हारी उम्र के थे तो घर की रोटी बनाकर, स्कूल जाते थे”, तो कोई ऐसा भी तो कह सकता था कि “खेलना बहुत ज़रूरी है।” अब मन करता है कि दौड़ लगाऊं, स्विमिंग करूं, क्रिकेट-फुटबॉल खेल पाऊं। शरीर में इतनी जान हो कि छोटी पहाड़ियों पर चढ़ते हुए तो कम से कम थकान न हो। बिलकुल यह सब सीखना अब भी नामुमकिन नहीं है लेकिन बचपन में यह इच्छा क्यों नहीं हुई?

अब जब स्कूल में पढ़ाती हूं तो लड़कियों से बहुत कहती हूं कि जाओ खेलो। हमारे वक़्त से बहुत ज़्यादा खेलती भी हैं लेकिन फिर भी अब भी बहुत लड़कियां नहीं खेलना चाहती। तब मैं सोचती हूं कि कभी किसी लड़के को यह कहते हुए क्यों नहीं सुना कि उसका खेलने का मन नहीं है? शायद यह इतिहास ही है कि आज जब किसी लड़की को शॉर्ट्स पहने, अपना किट उठाए सड़क पर दौड़ते देखती हूं तो बस देखते रहने का मन होता है। उन्हें और उनके माध्यम से समाज में खेल की हालत को समझने के लिए हमने कुछ महिला खिलाड़ी (क्योंकि सिर्फ खिलाड़ी कहूंगी तो दिमाग में पुरुष की ही छवि आएगी) और प्रशिक्षक से बात की।

चुनौतियों को मात देकर संगीता पहले खुद बनीं खिलाड़ी अब दूसरों को दे रही हैं प्रशिक्षण

संगीता हरियाणा से हैं। खेलने में मज़ा तो उन्हें हमेशा से ही आता था पर कभी कोई विशेष खेल में हिस्सा नहीं लिया था। बचपन में घरवालों ने पढ़ने पिलानी में हॉस्टल में डाला तो वहां खेल सबके लिए अनिवार्य था। इस तरह साल 1999 में उन्होंने आठवीं कक्षा में ताइक्वांडो खेलना शुरू किया। खेलते-खेलते स्कूल से ही राज्य स्तर पर जाने का मौका मिला और जब वहां पदक मिला तो दिलचस्पी और हौसला, दोनों बढ़ने लगा। इसके बाद इन्होंने ताइक्वांडो में करीब 25 बार राष्ट्रीय स्तर पर हिस्सा लिया है और 10 बार स्वर्ण पदक जीता है। उन्होंने तीन बार एशियन चैंपियनशिप और वर्ल्ड ताइक्वांडो चैंपियनशिप जैसे विश्वस्तरीय आयोजन में भी हिस्सा लिया है। वह बताती हैं कि उनके परिवार ने उन्हें खेलने से कभी नहीं रोका।  हमेशा कहा कि जो अच्छा लगता है करो और इसीलिए वे इतने लंबे समय तक अपने खेल को ज़ारी रख पाईं। 

कोई घर पर आकर अगर पांचवी कक्षा में यह कह सकता था कि “जब तुम्हारी उम्र के थे तो घर की रोटी बनाकर, स्कूल जाते थे”, तो कोई ऐसा भी तो कह सकता था कि “खेलना बहुत ज़रूरी है।” अब मन करता है कि दौड़ लगाऊं, स्विमिंग करूं, क्रिकेट-फुटबॉल खेल पाऊं। शरीर में इतनी जान हो कि छोटी पहाड़ियों पर चढ़ते हुए तो कम से कम थकान न हो। बिलकुल यह सब सीखना अब भी नामुमकिन नहीं है लेकिन बचपन में यह इच्छा क्यों नहीं हुई?

संगीता राजस्थान की पहली महिला हैं जो ताइक्वांडो में एनआईएस द्वारा प्रशिक्षित हैं। अब वह अपने साथी के साथ झुंझुनू में खेल अकादमी चलाती हैं जहां एथलेटिक्स, बॉक्सिंग, आर्चरी, ताइक्वांडो समेत कई खेलों का प्रशिक्षण दिया जाता है। वह कहती हैं, “हमें इजाज़त तो मिली लेकिन खेलने का माहौल नहीं मिला। वह माहौल स्थापित करने के लिए ही हमने यह अकादमी शुरू की। आज यहां 250 में से 150 लड़कियां आती हैं। शहर के ज़िला स्टेडियम में हमें बेहद दुर्लभ स्थिति में कोई महिला देखने मिलेगी जबकि वह मुफ़्त भी है, क्योंकि वहां बहुसंख्यक पुरुष अभ्यास करते हैं। इसलिए हमने यह अकादमी केवल 14 साल तक की बच्चों के लिए खोली हैं ताकि परिजन अपनी बच्चियों को भेजने में असहज न महसूस करें।” 

लड़कियों को प्रशिक्षण देतीं संगीता

चूंकि खेलने के लिए सरकारी सुविधा ठीक से मौजूद नहीं है, निजी अकादमी में बच्चों को भेजना केवल आर्थिक रूप से मजबूत परिवारों के लिए ही संभव है। संगीता बताती हैं, “सरकार भी कुछ नहीं करती। लगभग राज्यों की घोषणाएं हैं कि ओलिंपिक में पदक जीतने पर इतनी राशि मिलेगी लेकिन पदक जीतने तक खिलाड़ियों को कौन पहुंचाएगा? राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर खेलने पर स्कॉलरशिप मिलती है लेकिन उस राशि को आने में सालों लग जाते हैं, कई बार कम भी आती है। सरकारी स्टेडियम में कोच नहीं है। आख़िरी बार भर्ती 2012 में हुई थी, वह भी पूरे राजस्थान में केवल 70। इसीलिए जो हो रहा है सब निजी अकादमियों की वजह से हो रहा है। यहां कोई परिजन भी बच्चों को पूरी तरह खेल में समर्पित नहीं होने देते। अधिकतर एक स्तर तक खिलाना चाहते हैं ताकि सरकारी नौकरी में ‘खेल कोटा’ मिल जाए। इसलिए हमें भी बच्चों को प्रशिक्षण देने के साथ नौकरी के लिए तैयार करना होता है जैसे सेना में खेल के माध्यम से भर्ती, निजी विद्यालयों में कोच के तौर पर नौकरी आदि।”

खेल के क्षेत्र में महिलाओं के लिए चुनौती के बारे में पूछने पर संगीता बताती हैं, “सबसे बड़ी समस्या माता-पिता और आस-पास के लोगों की सोच है। अधिकतर तो सोचते हैं कि खेल महिलाओं के लिए है ही नहीं। जो भेजते हैं, वो भी एक उम्र के बाद उन्हें शादी की और धकेलने लगते हैं। मेरी लगभग सभी साथ की खिलाड़ियों ने शादी के बाद खेलना या सिखाना बंद कर दिया। उनके पति और ससुरालवाले इसकी इज़ाज़त नहीं देते। सरकार की तरफ़ से भी इस सोच को ठीक करने लिए कुछ नहीं होता। सेना में खेल के माध्यम से भर्ती महिलाओं के लिए बंद थी। अब कुछ मौके हैं लेकिन बेहद कम सीट होती हैं। इसके अलावा, सेना ओलंपिक्स तक के लिए लड़कों को तैयार करती है (जैसे नीरज चोपड़ा) जहां बहुत अच्छा प्रशिक्षण, माहौल, पौष्टिक आहार और तमाम सुविधाएं मिलती हैं। ऐसा कुछ अभी तक महिलाओं के लिए नहीं है। विद्यालयों, महाविद्यालयों और अकादमी में भी महिला कोच मौजूद नहीं हैं।”

एक प्रतियोगिता में संगीता, बाएं से पहली

अपने निजी जीवन में भी संगीता ने साल 2006 में सालभर के संघर्ष के बाद अन्तरजातीय शादी की। इस दौरान उन्हें अपने परिवार की तरफ़ से हिंसा का भी सामना करना पड़ा। वह इस पर कहती हैं, “मुझे हौसला और आत्मविश्वास खेल से मिला। ताइक्वांडो की वजह से मैंने दुनिया देखी और आज खुद के पैरों पर खड़ी हूं। कोई भी लड़की यदि रिलेशनशिप में हो और घर पर पता चले, तो परिजन एकदम से लड़की की ट्रेनिंग बंद करवा देते हैं। वहीं, लड़कों को चेतावनी देकर आगे बढ़ने देते हैं। इसीलिए लड़कियों के लिए खेलना बहुत लंबी लड़ाई है। मैं शादी के बाद भी लगातार खेल रही हूं।  इसी साल, 40 की उम्र में मुझे फरवरी में राष्ट्रीय स्तर पर कांस्य पदक मिला। प्रेगनेंसी के महीने भर बाद ही मैं अभ्यास शुरू कर देती थी और हर टूर्नामेंट में बच्चों को 1 वर्ष की उम्र से ही साथ लेकर जाती थी। अब मेरा बेटा 15 साल का है और सेना में प्रशिक्षण ले रहा है और बेटी महज 5 वर्ष की आयु में ब्लैक बेल्ट है और बहुत सारे रिकॉर्ड बना रही है। मैं चाहती हूं कि वे दोनों ओलंपिक्स तक पहुंच पांए।” 

कबड्डी और एथलेटिक्स कैसे बना गंगा का जूनून 

गंगा 21 वर्ष की हैं और फिलहाल बीए फाइनल में हैं। वह गोवला गाँव की रहने वाली हैं और उनके पिता गाँव में ही हलवाई का काम करते हैं। उन्हें बचपन से ही खेलने में बहुत आनंद आता था लेकिन आधिकारिक तौर पर उन्होंने नौंवी कक्षा के बाद कबड्डी खेलना शुरू किया। उनके विद्यालय में सिखाने वाला कोई नहीं था। पड़ोस के गाँव में कुछ प्रशिक्षित लड़के खेलते थे तो गंगा ने सब उनके साथ खेलकर सीखा और फिर वो राष्ट्रीय स्तर तक कबड्डी खेलने गई। बारहवीं कक्षा में लड़कियों की कबड्डी की टीम नहीं बनी तो उनके अध्यापक ने कहा कि तुम दौड़ना शुरू कर दो। फिर बिना कोई प्रशिक्षण, गंगा ने खुद ही दौड़ की तैयारी की और वह 5 बार राज्य स्तर पर और 2 बार राष्ट्रीय स्तर पर दौड़ में हिस्सा ले चुकी हैं। कभी-कभी उनके पिता साथ जाते हैं, लेकिन अधिकतर वे गंगानगर, बैंगलोर तक अकेली ही जाती हैं। वह बताती हैं कि शुरुआत में और भी लड़कियां थीं लेकिन फिर गाँव के लोग बोलते थे कि “कैसे निक्कर पहन कर जा रही है, सबको सीखा देगी ये।” फिर धीरे-धीरे लड़कियां कम होती गई और अब तो कइयों की शादी होने लगी हैं। 

एक प्रतियोगिता के दौरान गंगा

फिलहाल गंगा दिल्ली पुलिस की तैयारी कर रही हैं। गांव के सरपंच की बेटी ने ऑनलाइन कोर्स किया हुआ है तो वह उसी के साथ पढ़ती हैं। रोज़ सुबह 4 बजे गाँव में दौड़ती हैं और अभ्यास करती हैं। उनका ध्यान अभी नौकरी पर है। लेकिन वह साथ-साथ खेल को जारी रखेंगी। वह बताती हैं कि खेल के लिए ज़रूरी उपयुक्त डाइट और प्रशिक्षण तो नहीं मिल रहा लेकिन वो अपने परिवार के प्रति बेहद शुक्रगुज़ार हैं जो उनके साथ पूरे समाज से लड़कर उनका खेलने में साथ देता है।

गंगा के मेडल्स और अन्य पुरस्कार

बॉक्सिंग, ताइक्वांडो और सेपकटकरा से पहचान बनातीं मनीषा

मनीषा रिजाणी गाँव से हैं और 20 वर्ष की हैं। उनकी कॉलेज की पढ़ाई अभी पूरी हुई है और वह आगे बीपीएड करना चाहती हैं। उनकी भी खेल में बचपन से रूचि थी। नौंवी में उन्होंने एक लड़की को नैशनल खेलते हुए देखा और तभी उनके छोटे भाई का सेना के खेल प्रशिक्षण में चयन हो गया। फिर उनका भी अपनी रुचि को आगे बढ़ाने का मन हुआ तो वह शहर की एक निजी अकादमी में एक महीने बॉक्सिंग सीखने गई। फिर घरवालों ने एकदम जाने से मना कर दिया चूंकि लड़की के लिए घर से बाहर जाना, शहर तक जाना, वह भी खेलने के लिए एक नई बात थी। उन्होंने अपने परिवार को समझाने की कोशिश की, अपने छोटे भाई से भी घरवालों को समझाने के लिए कहा। काफ़ी संघर्ष के बाद, मनीषा और उनकी छोटी बहन, दोनों खेलने आने लगी। विद्यालय की तरफ़ से कोई साथ नहीं था। पीटीआई का काम 15 अगस्त, 26 जनवरी के आयोजन पर पी.टी कराने तक सीमित था।

इन महिला खिलाड़ियों की कहानी बेहद प्रेरणादायक है। लेकिन इनके जीवन में सरकार और प्रशासन की नाकामी को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। अगर बिना कोई सामाजिक, सरकारी सहयोग के ये इतना कुछ कर रही हैं तो कल्पना कीजिए कि एक लैंगिक बराबरी वाले समाज में यह क्या कर गुज़रेंगी।

मनीषा ने कोशिश की कि वह स्कूल की तरफ़ से खेलने जाएं लेकिन सिर्फ लड़कों की टीम जाती थी, लड़कियों की नहीं। कॉलेज के समय भी उन्होंने कोशिश की लेकिन स्टाफ़ ने कोई रूचि नहीं दिखाई क्योंकि लड़कियों के साथ किसी अध्यापक को भेजना होता और उन्हें इतनी ज़िम्मेदारी नहीं उठानी थी। फिर उसी समय वो स्टेडियम की तरफ से हिमाचल प्रदेश में सेपकटकरा के राष्ट्रीय टूर्नामेंट में हिस्सा लेने गई। आज वह “लड़की है, कहां जाएगी, कुछ टूट-फूट गया तो शादी कौन करेगा” जैसी बातों से बेहद परेशान हैं पर इन पर बिना ध्यान दिए अपने जीवन को खेल के ज़रिये आगे ले जाने में लगी हैं। 

मेडल के साथ मनीषा

अब मनीषा कई निजी विद्यालयों में प्रशिक्षण देती हैं और आत्मनिर्भर हैं। वह सरकारी नौकरी करना चाहती हैं, आर्थिक ज़रूरतों की वजह से और अपने गाँव की लड़कियों के लिए भी। वह कहती हैं कि उन्हें जो आज़ादी मिली है, उससे वह कुछ साबित करना चाहती हैं ताकि और भी लड़कियों को यह मौका मिले। फिलहाल वह एसआई, सीडीएस आदि की तयारी कर रही हैं इसके बाद ही वह खेल पर ध्यान देंगी। हालांकि, उनकी बहुत इच्छा है कि वह बॉक्सिंग में आगे जाएं, भले ही उम्र में थोड़ा देर से। अभी उनकी ख़ुद की ट्रेनिंग रुकी हुई है लेकिन वह अपनी टीम देशभर में लेकर जाती हैं। उनके गाँव में अब भी कोई लड़की नहीं खेलती। आर्थिक रूप से स्थिर होकर, वह अपने गाँव में भी अकादमी शुरू करना चाहती हैं ताकि आस-पास के गाँव के बच्चों को सुविधा मिले और जैसे मनीषा को योगी स्टेडियम से सहायता और सम्बल मिला, वैसे वे भी और बच्चों को दे पाएं।

सेपकटकरा की खिलाड़ी पलक

पलक अब 17 वर्ष की हैं और कॉलेज में बीएससी कर रही हैं। वह जब तीसरी कक्षा में थीं, तबसे अभ्यास कर रही हैं। उनकी माँ निजी विद्यालय में पढ़ाती हैं और पिता गार्ड की नौकरी करते हैं। उनका परिवार पिछले 11 वर्ष से गाँव से आकर शहर में रह रहा है ताकि पलक को सही प्रशिक्षण मिल पाए। अकादमी में सालभर में करीब 50 हज़ार का खर्चा आ जाता है जो वहन करना बहुत मुश्किल है। वह बताती हैं कि शुरुआत में सब कहते थे कि खेल में कुछ नहीं है लेकिन जब से उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर पदक जीता है, तब से सब साथ देते हैं। हालांकि, उन्हें घर से हमेशा साथ मिला है। पलक पढ़ाई और खेल, दोनों को साथ संभालने की कोशिश कर रही हैं। वह कहती हैं कि उन्हें खेल की वजह से अपनी कॉलेज की साथियों के मुकाबले शारीरिक और मानसिक रूप से बहुत मजबूत महसूस होता है। उनका सपना है कि वह विश्व स्तर पर भारत का नेतृत्व करें।

अपने मेडल के साथ पलक

इन महिला खिलाड़ियों की कहानी बेहद प्रेरणादायक है। लेकिन इनके जीवन में सरकार और प्रशासन की नाकामी को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। अगर बिना कोई सामाजिक, सरकारी सहयोग के ये इतना कुछ कर रही हैं तो कल्पना कीजिए कि एक लैंगिक बराबरी वाले समाज में यह क्या कर गुज़रेंगी। मौजूदा हालातों के बारे में बीपीएड कर चुके महमूद बताते हैं, “खेलों के इतिहास पर नजर दौड़ाएं तो खेल पौरुषता का प्रतीक रहे हैं फिर इस क्षेत्र में सामाजिक मान्यता के अनुसार लड़कियों के लिए कुछ बचता नहीं। कोचिंग सेंटर्स विद्यालय के विपरीत शहरों में हैं तो गाँवों से आनेवाली लड़कियों के लिए ये दूरी ही उनके लिए खेलों से दूरी का कारण बन जाती है। कोचिंग सेंटर्स में लड़कों के बीच ही उन्हें अभ्यास करना होता है।”

वह आगे बताते हैं, “ऊपर से पुरुष कोच, जिन्होंने अपनी खुद की ट्रेनिंग के दौरान पुरुष शरीर की रचना पर आधारित पाठ्यक्रम पढ़ा है और वे उसे ही लड़कियों पर भी लागू करते हैं। न उन्हें महिलाओं की शरीर सरंचना पता है, ना ही माहवारी के बारे में कोई जानकारी है। खेलों के लिए कोचिंग हमेशा से महंगा सौदा रहा है, लड़कियों के लिए ये खर्चा हमारा समाज वहन नहीं कर पाता अगर आप अच्छे स्कूल और आर्थिक रूप से सक्षम हैं तो अलग बात है। शिक्षा का लोकतंत्रीकरण महिलाओं के लिए आज जाकर धीरे धीरे हो पा रहा है तो खेलों की बात अभी दूर की कौड़ी है।”


नोट- सभी तस्वीरें कनिका द्वारा उपलब्ध करवाई गई हैं।

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