समाजखेल खेल के मैदानों से दूर होती महिलाओं को खेलने की आज़ादी कब मिलेगी?

खेल के मैदानों से दूर होती महिलाओं को खेलने की आज़ादी कब मिलेगी?

कहने को तो जनसंख्या घनत्व कम होने से गांव-देहात में खेलकूद के लिए खाली जगह आसानी से मिल जाती है। लेकिन यह बात आधा सच है। आधा इसलिए, क्योंकि यह बात सिर्फ विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग यानी पुरुषों पर लागू होती है। गांव में खेलों के लिए अधिकृत मैदान या पार्क नहीं होते और जो खाली मैदान या खेत होते हैं, वहां पर पुरुषों का कब्जा रहता है।

हमारे देश में आम तौर पर खेलों को उतना महत्त्व नहीं मिलता है जितना पढ़ाई और करिअर को। अगर महिलाओं की बात की जाए तब तो स्थिति और भी चिंताजनक है। हालांकि देश में खेलों के प्रति जागरुकता धीरे-धीरे बढ़ रही है। गली-मोहल्ले में क्रिकेट और अन्य तमाम खेल खेलते हुए बच्चों से लेकर बड़े तक दिख जाते हैं। लेकिन अगर आपने ध्यान दिया हो, तो पाएंगे कि सार्वजनिक स्थानों पर खेल खेलते हुए ज़्यादातर पुरुष ही देखे जाते हैं। इसमें बच्चे से लेकर 60-70 की आयु वर्ग तक के पुरुष शामिल होते हैं। वहीं जब हम एक महिला की बात करते हैं, तो बहुत सारी रूढ़िधारणाएं और पूर्वाग्रह सामने आते हैं जो महिला को कुछ विशेष लैंगिक भूमिकाओं में सीमित कर देते हैं।

खेलों को प्रोफेशन के तौर पर अपनाने वाली चुनिंदा महिलाओं को छोड़ दिया जाए, तो व्यक्तिगत स्तर पर सेहत या मनोरंजन के लिए खेलने वाले महिलाओं की संख्या लगभग है ही नहीं। महिलाओं के लिए किसी सार्वजनिक स्थान पर जाना; ख़ास तौर पर खेल के मैदान या गली-मोहल्ले में खेलना चुनौतियों से भरा होता है। पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना में लैंगिक भेदभाव और रूढ़ियां इस कदर हावी हैं कि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों की तरह खेलों में भी उसका प्रभाव साफ तौर पर देखा जा सकता है।

गांव के खेत-मैदान हों या फिर शहर के पार्क या अन्य जगहें आज भी ज्यादातर सार्वजनिक स्थानों पर पुरुषों का कब्जा होता है। सुबह-शाम और छुट्टी के दिन यहां पुरुषों का जमावड़ा रहता है, जो खेलकूद या अन्य गतिविधियों में व्यस्त रहते हैं।

खुलकर खेलने में सुरक्षा है सबसे बड़ी चिंता

महिलाओं के लिए अधिकतर संघर्ष घर से ही शुरू होता है जिसमें समाज की काफ़ी बड़ी भूमिका होती है। परिवार की अपेक्षाओं पर खरा उतरने का दबाव, सामाजिक मान्यताओं के अनुरूप व्यवहार करने और चलने का दबाव महिलाओं के खेलों में भागीदारी को हतोत्साहित करते हैं। इसके साथ ही सुरक्षा की चिंता एक बहुत बड़ा कारक है जो महिलाओं को खेलों से वंचित रखने में अहम योगदान देती है।

तस्वीर साभार: The Guardian

गांव के खेत-मैदान हों या फिर शहर के पार्क या अन्य जगहें आज भी ज्यादातर सार्वजनिक स्थानों पर पुरुषों का कब्जा होता है। सुबह-शाम और छुट्टी के दिन यहां पुरुषों का जमावड़ा रहता है, जो खेलकूद या अन्य गतिविधियों में व्यस्त रहते हैं। यहां तक कि बहुत बार शराबी या अराजक हरकतों की वजह से महिलाएं ऐसी सार्वजनिक जगहों पर जाने से बचती हैं। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज़ादी के इतने सालों के बाद भी सुरक्षा के नाम पर महिलाओं को घरों में कैद रखा जाता है।

गांव पितृसत्ता का गढ़

साहित्य और सिनेमा में गांवों को कितना भी रोमैंटिसाइज किया जाए, लेकिन आज भी एक महिला के लिए गांव में रहना किसी चुनौती से कम नहीं। पितृसत्ता पूरे देश में जड़ें जमाए हुए है। गांवों में इसका स्वरूप और भी भयावह है। अपने निजी जीवन में भी मेरा अनुभव कमोवेश ऐसा ही रहा है। ग्रामीण पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखने के नाते, बचपन से ही लड़कियों के लिए सुरक्षित खेलकूद के स्थानों के अभाव को बहुत अच्छे से महसूस किया है। अफ़सोस की बात है कि अब भी परिस्थितियां ज्यादा बदली नहीं है। कहने को तो जनसंख्या घनत्व कम होने से गांव-देहात में खेलकूद के लिए खाली जगह आसानी से मिल जाती है। लेकिन यह बात आधा सच है। आधा इसलिए, क्योंकि यह बात सिर्फ विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग यानी पुरुषों पर लागू होती है। गांव में खेलों के लिए अधिकृत मैदान या पार्क नहीं होते और जो खाली मैदान या खेत होते हैं, वहां पर पुरुषों का कब्जा रहता है।

ऐसे में लड़कियों और महिलाओं को अपनी इच्छाओं को दमित करना पड़ता है। अब भी देखती हूं कि कुछ खाली मैदान ऐसे हैं जहां पर आर्मी या पुलिस की तैयारी करने वाले या फिर एथलेटिक्स में जाने वाले लड़के अपनी प्रैक्टिस करते हैं। पर दुख की बात है कि वहां ऐसी ही चाह रखने वाली लड़कियां सहजता से नहीं जा सकती। न ही अपनी प्रेक्टिस कर सकती हैं। ऐसे में शौकिया खेलकूद में रुचि रखने वाली महिलाओं की ख़्वाहिशों को भला कौन समझेगा! पर्याप्त सुविधाओं और संसाधनों तक पहुंच एक चुनौती बनकर सामने आती है। ख़ास तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में जहां पुरुष प्रधान माहौल में महिलाएं खुद को असहज और बेमेल महसूस करती हैं, वहां सार्वजनिक स्थानों पर खेलकूद की बात करना बेमानी लगता है। 

देखती हूं कि कुछ खाली मैदान ऐसे हैं जहां पर आर्मी या पुलिस की तैयारी करने वाले या फिर एथलेटिक्स में जाने वाले लड़के अपनी प्रैक्टिस करते हैं। पर दुख की बात है कि वहां ऐसी ही चाह रखने वाली लड़कियां सहजता से नहीं जा सकती। न ही अपनी प्रेक्टिस कर सकती हैं।

शहर भी अछूते नहीं

शहरों में सोसाइटीज के अपार्टमेंट्स में रहने वालों के लिए वैसे तो सार्वजनिक जिम, फिटनेस सेंटर, पार्क और स्विमिंग पूल जैसी सुविधाएं उपलब्ध होती हैं। ये स्थान सुविधाओं से युक्त और महिलाओं के लिए तूलनामूलक सुरक्षित भी होते हैं। फिर भी अगर देखा जाए तो ऐसी जगहों पर भी महिलाओं की संख्या बेहद कम पाई जाती है। किसी तरह कंडीशनिंग से निकल कर सुरक्षित माहौल मिलने पर अगर महिलाएं शारीरिक गतिविधियों वाले क्रियाकलापों में रुचि भी लें तो भी पितृसत्ता और जेंडर आधारित रोल विभाजन एक बड़ी चुनौती बनकर सामने आते हैं।

तस्वीर साभार: Hindustan Times

आज भी गांव हो या शहर खाना बनाने से लेकर सफाई तक ज्यादातर घरेलू अवैतनिक कार्यों की ज़िम्मेदारी महिलाओं पर डाल दी जाती है। इसके साथ ही बच्चे, बुजुर्ग, बीमार या मेहमानों की ज़िम्मेदारी भी महिलाओं की ही मानी जाती है। ऐसे में सुबह-शाम जब खेलकूद या एक्सरसाइज का वक़्त होता है तो महिलाओं को किचन, सफाई से लेकर इन तमाम चीजों की चिंताएं जकड़ लेती हैं। ऐसे में अगर कोई महिला शारीरिक गतिविधियों वाले क्रियाकलापों में शामिल भी होना चाहे तो उसके सामने अंतर्द्वंद्व हावी हो जाता है। 

साहित्य और सिनेमा में गांवों को कितना भी रोमैंटिसाइज किया जाए, लेकिन आज भी एक महिला के लिए गांव में रहना किसी चुनौती से कम नहीं। पितृसत्ता पूरे देश में जड़ें जमाए हुए है। गांवों में इसका स्वरूप और भी भयावह है।

क्या कहते हैं आंकड़े

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट के अनुसार, महिलाओं के काम करने के घंटे का 84 फीसद हिस्सा घरेलू अवैतनिक कार्यों में जाता है जबकि पुरुषों के काम के घंटे का 80 फीसद समय वैतनिक कार्यों में लगता है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि केवल 10 फीसद भारतीय मर्द घरेलू अवैतनिक कार्यों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी समझते हैं। इससे स्पष्ट पता चलता है कि लैंगिक भेदभाव और पूर्वाग्रहों के चलते महिलाओं का अधिक समय ख़ुद पर ध्यान देने और अपनी इच्छाओं को पूरा करने के बजाय घर संभालने और दूसरे लोगों की देखभाल करने में जाता है। ऐसे में खेल और अन्य गतिविधियों में महिलाओं के शामिल होने के अवसर सीमित हो जाते हैं। पुरुष किसी भी उम्र में क्रिकेट या कोई भी खेल खेलें, सार्वजनिक स्थानों पर शारीरिक सक्रियता वाली गतिविधियों में हिस्सा लें तो उनकी सामाजिक छवि पर कोई असर नहीं पड़ता, वहीं महिलाओं के द्वारा ऐसा करना सामाजिक मानदंडों के विरुद्ध माना जाता है।

सोशल कंडीशनिंग का असर

एक ऐसे समाज में जहां बचपन से ही लड़कों और लड़कियों की परवरिश में भेदभाव किया जाता है। कम उम्र से ही लड़कियों को महिलाओं के लिए ‘उपयुक्त’ गतिविधियों में शामिल होने के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दबाव डाला जाता है। खेलों पर लड़कों का विशेषाधिकार समझा जाता है। ऐसे समाज में एक महिला के खेल के मैदान में क़दम रखते ही लोगों की भौंहें तन जाती हैं। यह कंडीशनिंग धीरे-धीरे लड़कियों के मन में भी बैठ जाती है और वो ख़ुद भी इससे दूर होती चली जाती हैं। बचपन से ही कपड़ों से लेकर खिलौनों तक में लैंगिक भेदभाव बख़ूबी देखा जा सकता है। हम कितने भी आधुनिक होने का दावा कर लें, लेकिन हक़ीक़त तो यही है कि यहां पर आज भी लड़कियों को बचपन से ही मैरिज मैटीरियल बनाने की ट्रेनिंग दी जाती है। ऐसे में उनके सपने, उनकी ख्वाहिशें अक्सर नज़रंदाज़ कर दी जाती हैं। 

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