पूरा देश भीषण गर्मी, पानी की कमी का सामना कर रहा है। वहींं हाशिये के समुदाय के लिए यह संकट और भी कठिन हो जाता है। जाति की पहचान पानी के संकट को और भयावह बना देती है। महज दलित जाति के व्यक्ति के द्वारा पानी का बर्तन छू जाने पर उसे अपमान, हिंसा का सामना करना पड़ता है। 31 मार्च 2024 राजस्थान के अलवर में एक आठ साल के दलित बच्चे को स्कूल में रखी बाल्टी से पानी पीने के वजह से पीटा गया। 12 फरवरी 2023 को उत्तर प्रदेश के बिजनौर के एक गाँव में 16 साल के दलित लड़के की पिटाई महज इस वजह से की गई क्योंकि उसने प्रिसिंपल की बोलत से पानी पी लिया था। साल 2022 में राजस्थान के जालौर जिले में नौ साल के दलित लड़के की मौत की वजह भी जाति और पानी है। स्कूल के तथाकथित ऊंची जाति के टीचर ने बच्चें को सिर्फ इसलिए बेहरमी से पीटा था क्योंकि उसने स्कूल के पीने के पानी के बर्तन को छू दिया था। एक के बाद एक ऐसी घटनाएं समाज में घटित हो रही है जहां महज दलित होने पर स्कूल के छोटे बच्चों को पानी पीने की वजह से हिंसा और अपमान का सामना करना पड़ा।
महाड़ सत्याग्रहः पानी पीने के अधिकार का आंदोलन
पानी और जाति के संबंध को देखते हुए डॉ. भीमराव आंबेडरकर ने पानी के लिए सत्याग्रह किया था। डॉ. आंबेडकर ने महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले के महाड़ में दलिता के साथ पानी को लेकर होने वाले भेदभाव को लेकर आंदोलन की शुरुआत की थी। महाराष्ट्र में चावदार नामक तालाब महाड़ नगर में स्थित है। यह एक विशाल तालाब है। इसमें बारिश और प्राकृतिक स्रोतों का पानी आता है। इस तालाब में हिंदू, मुस्लिम, ईसाई यहां तक की जानवर भी पानी पी सकते थे, लेकिन दलितों को चावदार तालाब से पानी पीने की मनाही थी क्योंकि ऐसा करने से सवर्ण हिंदुओं को तालाब अशुद्ध हो जाने का खतरा था।
दलितों ने 19-20 मार्च 1927 को डॉ. आंबेडकर की अध्यक्षता में सम्मेलन किया। इसमें हज़ारों दलितों ने हिस्सा लिया। इस सम्मेलन का उद्देश्य चावदार तालाब पर जाकर पानी पीने का हक प्राप्त करना था। इससे पहले बाबा साहेब ने सम्मेलन को संबोधित किया। 20 मार्च को सुबह नौ बजे सम्मेलन के दूसरे दिन बैठक शुरू हुई। दलितों ने इकठ्ठा होकर विरोध प्रदर्शन, सड़कों पर जुलूस निकाला। इस तरह का यह पहला शक्ति प्रदर्शन था जो तथाकथित सवर्ण लोगों को बहतु बड़ी चुनौती लगा। इसके बाद डॉ.आंबेडकर के नेतृत्व में करीब ढ़ाई हज़ार लोगों की भीड़ चावदार तालाब पर पहुंची। सबसे पहले डॉ.आंबेडकर ने तालाब से पानी पिया और लोगों से कहा कि इस तालाब का पानी पीने का हमारा उद्देश्य यह नहीं है कि इसका पानी कुछ खास है, बल्कि यह आत्मसम्मान और बराबरी का मसला है। इसके बाद बाबा साहेब का अनुसरण करते हुए सभी लोगों ने तालाब से पानी पिया।
बाबा साहेब आंबेडकर और जल प्रबंधन
बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने भारतीय संविधान के निर्माण, कानून, अर्थशास्त्र, पत्रकारिता, सामाजिक न्याय और राजनीति जैसे क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इतना ही नहीं भारत की जल नीति को बनाने में भी उनका बड़ा योगदान था। पानी के लिए सामाजिक न्याय के साथ-साथ देश की जल नीतियों को आकार देने में भी उनकी बड़ी भूमिका थी। डॉ. आंबेडकर जल संरक्षण और मैनेजमेंट के प्रबल समर्थक थे। उनका मामना था कि पानी एक महत्वपूर्ण संसाधन है जिसे समाज के सभी वर्गों, विशेषकर हाशिये के समुदाय के लोगों और पानी का समान वितरण तय करने के लिए कुशल नीतियों और प्रबंधन की ज़रूरत है। उन्होंने भारत में जल नीतियों को बनाने और लागू करने की दिशा में बहुत काम किया।
डॉ. आंबेडकर के पानी से जुड़े कई विचार थे। 1942 से 47 के दौरान उनके प्रयास देश में पानी और बिजली के लिए राष्ट्रीय नीति के विकास में अग्रणी थे। यह आंबेडरकर ही थे जिन्होंने कई नए विचारों और परियोजनाओं की नींव रखी। कैबिनेट मंत्री के तौर पर वे 1942-46 के दौरान श्रम, सिंचाई और बिजली विभाग के प्रभारी थे। उन्होंने सिंचाई और जल बिजली पर केंद्र और राज्य मुद्दों की निगरानी के लिए एक नदी घाटी प्राधिकरण का गठन किया। भारत में केंद्रीय जल आयोग की नींव रखने का श्रेय भी डॉ. आंबेडकर को ही जाता हैं। भारत में जल की पूंजी को जोड़ने का नज़रिया सबसे पहले डॉ. आंबेडकर ने ही पेश किया था।
केंद्रीय जल आयोग की स्थापना
1945 में बाबा साहेब की सिफारिश पर ही केंद्रीय जल, सिंचाई और नेविगेशन आयोग के रूप में यह स्थापित किया गया था। उन्होंने इस बात पर हमेशा जोर दिया था कि देश के जल संसाधनों का कुशलापूर्वक इस्तेमाल करने के लिए केंद्र में एक तकनीक निकाय की भी आवश्यकता है। वायसराय के कार्यकारी परिषद के सदस्य के तौर पर उन्होंने दामोदर घाटी परियोजना, हीराकुंड बहुउद्देशीय परियोजना और सोन घाटी परियोजना जैसी कई अन्य महत्वपूर्ण परियोजनाओं को आकार देने में योगदान दिया। जल संसाधनों के नियोजित इस्तेमाल, मैनेजमेंट और उनकी दूरदर्शी नीतियों व सिफारिशों के कारण इंटर-स्टेट वॉटर डिस्प्यूट ऐक्ट 1956 और रिवर बोर्ड ऐक्ट 1956 अस्तित्व में आया।
डॉ. आंबेडकर का मानना था कि पानी एक सामान्य संसाधन है जो भारत के सभी नागरिकों का है, और यह तय करना राज्य की जिम्मेदारी है कि पानी समाज के सभी वर्गों के बीच समान रूप से वितरित किया जाए। उन्होंने हमेशा जल संरक्षण और प्रबंधन की आवश्यकता पर जोर दिया। उनका मानना था कि सस्टेनेबल डेवलपमेंट को तय करने के लिए जल संरक्षण आवश्यक है। डॉ. आंबेडकर का हमेशा से मानना था कि जल संसाधनों के प्रबंधन में स्थानीय समुदायों को शामिल करना चाहिए। उन्होंने जल प्रबंधन में स्थानीय समुदायों की भागीदारी तय करने के लिए वाटर यूजर एसोसिएशन की वकालत की थी। डॉ. आंबेडकर ने खेती और सिंचाई के लिए पानी की उपलब्धता तय करने के लिए बड़े बांधों और नहरों के निर्माण की वकालत भी की थी।
डॉ. आंबेडकर की जल नीति से जुड़े महत्वपूर्ण पहलू
आजादी से पहले डॉ. बी. आर. आंबेडकर, जल संसाधनों के नियोजित इस्तेमाल और मैनेजमेंट के लिए अखिल भारतीय परिप्रेक्ष्य में सभी प्रांतों को एक समझौते पर लाने पर कामयाब रहे थे। उन्होंने इस बात पर जोर दिया था कि जल संसाधन समग्र रूप से देश के विकास से जुड़े हुए हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आंबेडकर ने पानी के सामाजिक और सांस्कृतिक पहलुओं को स्पष्ट रूप से व्यक्त किया और बताया कि कैसे और क्यों दलितों को पानी की जाति से मुक्त करना पड़ा। उन्होंने बताया कि पानी, जाति के साथ महत्वपूर्ण तरीकों से जुड़ा हुआ है जिसके जटिल सांस्कृतिक मायने है और इससे सोशल हैर्याकी पैदा हुई है। पानी के माध्यम से दलितों के साथ भेदभाव करने का एक पांरपरिक तरीका रहा है। उन्होंने कहा है कि दलितों के लिए पानी, जीवन का आधार नहीं बल्कि निरंतर दर्द और अलगाव का कारण भी रहा है।
जल संसाधन प्रंबधन के साथ-साथ सामाजिक सुधार
डॉ. आंबेडकर ने कई स्तर पर जल से संबंधित नीतियां, प्रबंधन और सुधारों पर जोर दिया। उन्होंने पानी के आर्थिक और विकास के पहलू के साथ-साथ उसके सामाजिक संबंधों और सत्ता की संरचनाओं पर भी बात की। पानी के ऊपर डॉ. आंबेडकर का विजन एक अलग जमीन तैयार करता है जहां पानी के विकास के संबंध के साथ-साथ जातीय अन्याय से उसे अलग नहीं किया जा सकता है। डॉ. आंबेडकर ने जब भारतीय संविधान को अंतिम रूप प्रदान किया तो इसमें जल नीति के बारे में अनुच्छेद 239 और 242 को स्पष्ट तरीके से समझाते हुए अंतरराज्यीय नदियों को जोड़ना, नदी घाटियों को विकसित करना जनहित के लिए अनिवार्य बताया था। पानी की व्यवस्था में सामाजिक स्थिति को दर्ज करना और ब्राह्मणवादी व्यवस्था को चुनौती दी। 1942 से लेकर आजादी के बाद तक के दौरान उन्होंने इस क्षेत्र की विभिन्न नीतियों को विकसित करने में महत्वपूर्म भूमिका निभाई थीं।
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