संस्कृतिकिताबें बाबा साहब आंबेडकर की वे पांच किताबें जो सभी को पढ़नी चाहिए

बाबा साहब आंबेडकर की वे पांच किताबें जो सभी को पढ़नी चाहिए

में बाबा साहब को पढ़ने यानी उनके द्वारा लिखी गई किताबें पढ़ने की जरूरत है। यूं तो कोई भी व्यक्ति जितना चाहे उतना पढ़ सकता है लेकिन वे पांच किताबें जो कम से कम बाबा साहब को समझने के लिए पढ़ी जानी चाहिए वे निम्नलिखित हैं।

बाबा साहब डॉ भीमराव आंबेडकर को ‘सिंबल ऑफ़ नॉलेज’ कहा जाता है। उन्हें यह सम्मान दिया गया है क्योंकि जीवनभर वे किताबों के बीच रहे। यहीं से होकर उन्होंने भारतीय समाज में उस वर्ग को अधिकार दिलवाए जिनके पास ज्ञान की पहुंच नहीं थी। उन्हीं बाबा साहब का मानना है कि मनुष्य नश्वर हैं। वैसे ही विचार हैं। एक विचार को प्रचारित करने की उतनी ही आवश्यकता होती है जितनी एक पौधे को पानी की आवश्यकता होती है नहीं तो दोनों मुरझाकर मर जाएँगे।

बाबा साहब पर भी यह कथन लागू होता है कि उन्हें प्रासांगिक बनाए रखने के लिए हमें उनके विचारों को जानने के साथ-साथ उन्हें प्रसारित करने की ज़रूरत है। इसके लिए हमें बाबा साहब को पढ़ने यानी उनके द्वारा लिखी गई किताबें पढ़ने की जरूरत है। यूं तो कोई भी व्यक्ति जितना चाहे उतना पढ़ सकता है लेकिन वे पांच किताबें जो कम से कम बाबा साहब को समझने के लिए पढ़ी जानी चाहिए उनकी बात हम आज इस लेख के ज़रिये करने जा रहे हैं।

1- जाति का विनाश (एनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट)

यह एक कभी न दिए जाने वाला भाषण था जिसे डॉ.आंबेडकर ने लाहौर में स्थित जाति-विरोधी हिंदू समाज सुधारक समूह जात-पात तोड़क मंडल द्वारा आयोजित की गई कान्फ्रेंस में बोलने के लिए लिखा था। लेकिन जब उन्होंने इस भाषण की प्रति मंडल को प्रकाशित कर प्रसारित करने भेजी तो उन्होंने इसे हिंदू धर्म के खिलाफ़ पाया और बाबा साहब से इसके कुछ आपत्तिजनक शब्दों, वाक्यों को हटाने को कहा। इसके जवाब में डॉ. आंबेडकर ने कहा कि वह भाषण में से एक कौमा तक नहीं हटाएंगे। ऐसा न करने पर मंडल ने कान्फ्रेंस में से बाबा साहब का आमंत्रण वापस ले लिया। लेकिन 15 मई 1936 को अपने खुद के खर्चे पर डॉ. आंबेडकर ने इस भाषण को एक किताब के रूप में प्रकाशित करवाई। यह भाषण, सिर्फ़ कुछ लोगों को जाति के दंश को बताने भर के लिए नहीं था बल्कि बाबा साहब ने इसे बहुत व्यवस्थित रूप से लिखा, सामाजिक सुधार कैसे राजनीतिक और आर्थिक सुधार के लिए ज़रूरी है इस पर जो़र दिया था।

इस किताब में वह जाति को श्रम के विभाजन की बजाय श्रमिकों का विभाजन  बताते हैं और हिंदू धर्म में इनका शोषण कैसे होता है, उसे दिखाते हैं। लेकिन वह सिर्फ इस व्यवस्था की गहरी कमियों के साथ साथ यह भी बताते हैं कि कैसे सिर्फ़ एक दूसरे के यहां खाना खा लेने से, अंतर्जातीय विवाह कर लेने से जाति ख़त्म नहीं हो जाएगी। वह पांडित्य के लिए क्वॉलिफिकेशन, एग्जाम कैसे रिफॉर्म का जिक्र भी इस किताब में करते हैं। जाति को ख़त्म करने के उनकी सोच को इस किताब से समझा जा सकता है।

2- भारत में जातिप्रथा, संरचना, उत्पत्ति और विकास (कास्ट्स इन इंडिया: देयर मैकेनिज्म, जेनेसिस एंड डेवलपमेंट)

यह बाबा साहब द्वारा जाति पर लिखा गया पहला दस्तावेज है जो दरअसल न्यूयॉर्क में 9 मई 1916 को एक एथ्रोपोलॉजिकल सेमिनार में उन्होंने पढ़ा था। वह इसकी भूमिका अपने विषय के विद्यार्थी होने की विशेषताओं से बनाते हैं और किस तरह भारत की जाति व्यवस्था उनसे और इस विषय से जुड़ी हुई है, इसे समझाते हैं। इसमें वह जाति की व्यवस्था के व्यवहार का अवलोकन करते हैं और इसे सैद्धांतिक, व्यवहारिक रूप से जटिल बताते हैं, जाति के इतिहास पर प्रकाश डालते हुए, अन्य विद्वानों के विचार रखते हैं। इस पेपर में जाति का वह हर आधार पर विश्लेषण करते हैं। जाति किस तरह समाज में बदलते वक्त के साथ रूप बदलकर जस की तस बनी हुई है, इस पर भी विचार रखते हैं। सजातीय विवाह से लेकर पुरुषों की परंपरागत श्रेष्ठता पर भी वह बात करते हैं यानी जाति और पितृसत्ता के बारे में वह एक साथ मुखर होते हैं। अगर आप जाति को अकादमिक परिदृश्य में जानना चाहते हैं तब यह छोटी सी किताब आपका मार्गदर्शन कर सकती है।

3- रुपए की समस्या: इसका उद्भव और समाधान (द प्रॉब्लम ऑफ़ रूपी: इट्स ओरिजिन एंड इट्स सॉल्यूशन)

यह किताब भी उनकी 257 पन्नों की रिसर्च थी जो उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकॉनमिक्स में पीएचडी करते वक्त बतौर थीसिस प्रस्तुत की थी। वह इस किताब में ब्रिटिश भारत में ट्रेड, बिज़नेस की विशेषताओं को बताते हैं जिसको वह भारत के इतिहास से जोड़ते हैं। मसलन मुगल साम्राज्य में भारतीय अर्थव्यस्था कैसी थी और इसकी वर्तमान स्थिति कैसी है। अंग्रेज़ों की आर्थिक नीतियों से लेकर उस वक्त के बजट का भी वह इसमें विश्लेषण करते हैं और भारतीय सरकार की आर्थिक नीतियों की कमियों का पता लगाते हैं। आर्थिक हाल में एक्सचेंज, चेंज, स्टैंडर्ड वैल्यू आदि को देखते हुए वह भारत में अर्थव्यवस्था की विशेषताओं से लेकर उसकी कमियां और उसके समाधान इस किताब में संलग्न हैं। रिजर्व बैंक ऑफ़ इंडिया इसी किताब से निकल आर्थिक हालात का एक समाधान है। अगर आप इस देश के आर्थिक इतिहास की समझ रखना चाहते हैं और आज के परिपेक्ष्य में उसे परिभाषित करना चाहते हैं तब यह किताब मददगार साबित हो सकती है। 

4- शुद्र कौन थे (हू वर द शुद्राज़) 

यह किताब साल 1946 में प्रकाशित हुई थी जिसे बाबा साहब ने ज्योतिराव फुले को समर्पित किया था। मूल रूप से यह किताब शुद्र वर्ण की उत्पत्ति को लेकर है कि वह अस्तित्व में कैसे आया था। इंडो-आर्यन थियरी के मुताबिक कैसे उन्होंने समाज में चतुर्यवर्ण की नींव रखी जिसमें ब्राह्मण श्रेष्ठ, क्षत्रीय रक्षक, वैश्य व्यापार और शुद्र के हिस्से इन सबकी सेवा और इनके द्वारा नीच समझे जानेवाले काम आए और इस तरह गैर-बराबरी अस्तित्व में आई।

ब्राह्मणों ने वेदों का सहारा लेते हुए कैसे उन्हें अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया और शुद्रों के सिर पर न सिर्फ़ सेवा का भार था बल्कि उन्होंने इसके साथ-साथ अति अमानवीय व्यवहार, शोषण, पीड़ा भी झेली। रोमन कानून और ब्राह्मणवादी कानून के बीच का अंतर भी बाबा साहब इसमें स्पष्ट करते हैं। इसमें वह यह भी लिखते हैं कि कैसे शुद्र एक जनजाति का नाम था और उनके इतिहास को हमारे सामने रखते हैं।

5- बुद्ध और उनका धम्म (बुद्धा एंड हिज धम्मा)

यह किताब बाबा साहब के मरणोपरांत साल 1957 में सिद्धार्थ कॉलेज पब्लिकेशन, मुंबई ने प्रकाशित की थी। जैसा कि हम जानते ही हैं बाबा साहब ने अपने जीवन के आखिरी समय में बौद्ध धम्म ग्रहण कर लिया था, बौद्ध धम्म में आने से पहले उन्होंने इसे खूब समझा था और बाकी धर्मों से तुलनात्मक अध्ययन करने के बाद वह इस धर्म में आए थे। इस किताब में उन्होंने सिद्धार्थ गौतम के शुरुआती जीवन से लेकर, घर त्यागने आदि जीवन यात्रा के बारे में बारीकी से लिखा है। बौद्ध धर्म क्या है, उसका दर्शन क्या है, धम्म कैसे धर्म से अलग है, संघ के अस्तित्व के क्या मायने हैं आदि विषयों पर बाबा साहब ने प्रकाश डाला है। बिक्खू, अनुयायी आदि लोगों की जिम्मेदारियां, संघ के प्रति ज़िम्मेदारी, आदि बातें इस किताब में सरल तरीके से व्याख्यायित हैं। ये किताब उन व्यक्तियों के लिए एक गाइड बुक हो सकती है जो बुद्ध और उनके धम्म को समझना चाहते हैं। बाबा साहब ने बौद्ध धर्म का नव प्रसार इस देश में धर्म परिवर्तन कर शुरू किया था, जिसका उद्देश्य हिन्दू धर्म में शोषण सह रहे शुद्र, अछूत लोगों को हिंदू धर्म के कानूनों से मुक्त करने का था और एक गरिमामय जीवन जीना का था।


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