इतिहास अर्थशास्त्री के रूप में बाबा साहब भीमराव आंबेडकर

अर्थशास्त्री के रूप में बाबा साहब भीमराव आंबेडकर

अर्थशास्त्र के प्रोफेसर अंबीराजन कहते हैं कि साल 1949 में संविधान के प्रारूप निर्माण के दौरान नियंत्रक और महालेखा परीक्षक के काम की चर्चा करते आंबेडकर ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की। उन्होंने कहा था, “सरकारों को जनता से संचित धन का इस्तेमाल न केवल नियमों कानूनों और नियमों के अनुरूप करना चाहिए बल्कि यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि सार्वजनिक प्राधिकारी धन के व्यय में विश्वसनीयता बुद्धिमता और मितव्ययिता से काम ले।”

डॉ.भीमराव आंबेडकर को हम भारतीय संविधान निर्माता, समाज सुधारक के रूप में जानते हैं। लेकिन इसके अलावा बाबा साहब की एक और छवि भी है, जिसे हमेशा से अनदेखा किया जाता रहा है। बहुत कम लोग जानते हैं कि वह  अपने समय के एक प्रसिद्ध और कुशल अर्थशास्त्री थे। समाज सुधारक, संविधान निर्माता और कुशल राजनीतिज्ञ के रूप में उनकी मजबूत और प्रभावशाली छवि ने उनके एक प्रबुद्ध अर्थशास्त्री के रूप में किए गए कार्यों और योगदान को पीछे धकेल दिया है।

डॉ आंबेडकर अर्थशास्त्र में पीएचडी करने वाले पहले भारतीय थे। उन्होंने साल 1915 में अमेरिका की प्रसिद्ध  कोलंबिया यूनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र में एमए किया। साल 1917 में इसी संस्थान से पीएचडी की डिग्री हासिल की। साल 1921 में  लंदन स्कूल ऑफ़ इकॉनमिक्स से अर्थशास्त्र में डॉ ऑफ सांइस की डिग्री प्राप्त की। आंबेडकर उस समय के दिग्गज अर्थशास्त्रियों  सेलिगमेन, एड्विन कानन और जॉन डूयूई के संपर्क में आए और उनसे प्रभावित हुए। आंबेडकर ने अपने करियर की शुरुआत भी अर्थशास्त्र में की थी।

एक अर्थशास्त्री के रूप में डॉ. आंबेडकर की विशेषज्ञता का अंदाज़ा 2007 में एक व्याख्यान के दौरान महान अर्थाशास्त्री अमर्त्य सेन के द्वारा की गई एक टिप्पणी से लगाया जा सकता है जिसमें वह कहते हैं, “आंबेडकर अर्थशास्त्र में मेरे जनक है। वे दलितों  के सच्चे और जाने-माने महानायक है। उन्हें आज तक जो भी मान-सम्मान मिला है उससे कहीं ज्यादा के अधिकारी हैं। जो उनकी आलोचना में कहा जाता है वह वास्तविकता के एकदम परे है। अर्थशास्त्र के क्षेत्र में उनका योगदान बेहद शानदार है उसके लिए उन्हें हमेशा याद रखा जाएगा।”

अर्थशास्त्री के रूप में डॉ. आंबेडकर के विचारों को एक लंबे समय से अनदेखा किया गया है। कृषि, वित्त और मौद्रिक नीति पर उनके विचार क्रांतिकारी हैं। उनके विचार भारतीय अर्थव्यवस्था की कई समस्याओं का समाधान हमारे सामने रखते हैं।

डॉ. आंबेडकर का अर्थशास्त्र के क्षेत्र में योगदान महत्वपूर्ण है। उन्होंने भारतीय कृषि व्यवस्था में छोटी और बिखरी हुए जोतों की समस्या, वित्तीय प्रणाली, मुद्राविनिमय प्रणाली और रुपये की समस्या का गहन अध्ययन किया। उन्होंने अपने अकादमिक कार्यों के माध्यम से इन तमाम समस्याओं  के समाधान के लिए क्रांतिकारी विचार पेश किए। उनके शोध ‘द प्रॉब्लम ऑफ द रूपी इट्स ओरिजन एंड इट्स सॉल्यूशन’ ने भारत के केंद्रीय बैंक यानी भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

एडमिनिस्ट्रेशन एंड फाइनेंस ऑफ द ईस्ट इंडिया कंपनी, इवल्यूशन ऑफ प्रोविंशियल फाइनेंस इन ब्रिटिश इंडिया, स्मॉल होल्डिंगस् इन इंडिया एंड देयर रेमिडिज (1918) आदि अर्थशास्त्र के क्षेत्र में डॉ. आंबेडकर के महत्वपूर्ण काम हैं। इनके अलावा आंबेडकर ने जाति का विनाश ( एनीहिलेशन ऑफ कास्ट) नामक पुस्तक में आर्थिक परिप्रेक्ष्य से भी जाति व्यवस्था की आलोचना की।

इवल्यूशन ऑफ प्रोविंशियल फाइनेंस इन ब्रिटिश इंडिया ( पीएचडी शोध प्रबंध 1917)  में डॉ. आंबेडकर ब्रिटिश वित्त व्यवस्था का विश्लेषण करते हुए द्वैध शासन प्रणाली (Diarchy) की आलोचना करते हैं। उनके अनुसार द्वैध शासन प्रणाली की प्रकृति गैर-लोकतांत्रिक और सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धांतों के खिलाफ है। अपने शोध प्रबंध में आंबेडकर राजनीतिक इकाईयों की वित्तीय स्वायत्ता और वित्तीय विकेन्द्रीकरण का समर्थन करते हैं। 

अर्थशास्त्र के प्रोफेसर अंबीराजन कहते हैं कि साल 1949 में संविधान के प्रारूप निर्माण के दौरान नियंत्रक और महालेखा परीक्षक के काम की चर्चा करते आंबेडकर ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की। उन्होंने कहा था, “सरकारों को जनता से संचित धन का इस्तेमाल न केवल नियमों कानूनों और नियमों के अनुरूप करना चाहिए बल्कि यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि सार्वजनिक प्राधिकारी धन के व्यय में विश्वसनीयता बुद्धिमता और मितव्ययिता से काम ले।”

इस प्रकार सार्वजनिक वित्त के संबंध में आंबेडकर ने एक आदर्श स्थापित किया जिसे आंबेडकर के सार्वजनिक व्यय के सिद्धांत के रूप में जाना जाता है। उन्होंने सार्वजनिक व्यय के मात्रात्मक विश्लेषण के साथ गुणात्मक विश्लेषण का आह्वान किया जहां सरकारी व्यय विश्वसनीयता, बुद्धिमता और मितव्ययिता के सिद्धांतों पर आधारित हो।  सार्वजनिक वित्त के संबंध में  आंबेडकर के विचार  केन्द्र व राज्यों के संबधों के लिए एक आधारशिला रखते हैं। केन्द्र और राज्यों के बीच वित्तीय शक्तियों को लेकर टकराव वर्तमान समय में एक बड़ी समस्या है। ऐसी स्थिति में आंबेडकर के सिद्धांत की प्रासंगिकता और अधिक बढ़ जाती है।

डॉ. आंबेडकर ने उत्पादन के अन्य कारकों पर ध्यान दिलाते हुए  भूमि, श्रम, पूंजी और बचत के बीच के असंतुलन की बात की। वह शुरुआती अर्थशास्त्रियों में से थे जिन्होंने ‘छिपी बेरोजगारी’ की तरफ ध्यान दिलाया। उनके अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था में उत्पादन के कारकों के बीच असंतुलन है। जहां आय के लिए कृषि पर निर्भरता के कारण भूमि पर लगातार दबाव बढ़ रहा है जबकि पूंजी और बचत पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है।

‘द ओरिजिन ऑफ इंडियन रूपी प्रॉब्लम एंड इट्स सॉल्यूशन’ में डॉ. आंबेडकर मौद्रिक व्यवस्था और विनिमय प्रणाली पर अपने विचार रखते हैं। उन्होंने मंहगाई, व्यापार घाटा, बचत, विनिमय प्रणाली और इनसे जुडी़ समस्याओं का गहन अध्ययन किया। उन्होंने उस समय के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जान मेनार्ड कीन्स के विरुद्ध स्वर्ण विनिमय दर प्रणाली (गोल्ड ऐक्सचेंज रेट) की जगह स्वर्ण मानक प्रणाली ( गोल्ड स्टैंडर्ड) का समर्थन किया। डॉ. आंबेडकर के अनुसार स्वर्ण मानक प्रणाली मूल्य स्थिरता को सुनिश्चित करती है जबकि विनिमय दर प्रणाली विनिमय दर की स्थिरता को प्रोत्साहन देती है। उनके अनुसार भारत जैसे गरीब देशों के लिए मूल्य स्थिरता अधिक महत्वपूर्ण है। इसलिए भारत को स्वर्ण मानक प्रणाली को अपनाना चाहिए।

कृषि व्यवस्था और डॉ. आंबेडकर

भारतीय कृषि में छोटी और बिखरी हुई जोतों (होल्डिंग्स) की समस्या पर विचार करते हुए आंबेडकर ने ‘ स्माल होल्डिंगस् इन इंडिया एंड देयर रेमिडिज’ नामक शोध लिखा। इसमें उन्होंने भारतीय कृषि से जुड़ी समस्याओं से निपटने के लिए ज़मीनी और व्यावहारिक समाधान सामने रखे। उस समय भारतीय कृषि छोटी जोतों की समस्याओं से जूझ रही थी जो न सिर्फ छोटी थी बल्कि बिखरी हुई भी थीं। जोतों का छोटा और बिखरा हुआ होना सीधे तौर पर उत्पादन को प्रभावित कर रहा था। सरकार उस समय इस समस्या से निपटने के लिए जोतों की चकबंधी और विस्तार का तरीका अपना रही थी। आंबेडकर जोतों के समाधान के लिए अपनाए जा रहे सरकारी भूमि अधिनियमों के विरोध में थे। उनके अनुसार जोतों की समस्या से निपटने के लिए भूमि अधिनियम काफी नहीं है। उनका कहना था कि पहले यह जानना ज़रूरी है कि जोतों के छोटे होने का कारण क्या है।

डॉ. आंबेडकर ने उत्पादन के अन्य कारकों पर ध्यान दिलाते हुए भूमि, श्रम, पूंजी और बचत के बीच के असंतुलन की बात की। वह शुरुआती अर्थशास्त्रियों में से थे जिन्होंने ‘छिपी बेरोज़गारी’ की तरफ ध्यान दिलाया। उनके अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था में उत्पादन के कारकों के बीच असंतुलन है। जहां आय के लिए कृषि पर निर्भरता के कारण भूमि पर लगातार दबाव बढ़ रहा है जबकि पूंजी और बचत पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। जोतों के छोटे होने का प्रमुख कारण भूमि पर आय के लिए बढ रहा दबाव है। इसलिए छोटी जोतों की समस्या का हल जोतों को बड़ा करना नहीं बल्कि पूंजी और पूंजीगत माल में वृद्धि करना है। आंबेडकर के अनुसार श्रम को कृषि क्षेत्र से निकालकर उत्पादन के अन्य क्षेत्रों में स्थानांतरित किया जाना चाहिए। भूमि पर बढ़ रहे दबाव और उससे उत्पन्न समस्याओं के समाधान के रूप मे उन्होंने औद्योगीकरण का समर्थन किया। कृषि और औद्योगिक संबंधों के बारे में बात करते हुए उन्होंने यह सुझाव दिया कि भारतीय औद्योगिकरण के माध्यम से लोगों को भूमि से दूर स्थानांतरित करना भारत की कृषि समस्या का सबसे अच्छा उपाय है।

आंबेडकर सहकारी कृषि के हिमायती थे। उन्होंने संविधान सभा  में  राज्य के तहत सामूहिक कृषि की सिफारिश की लेकिन प्रभुत्वकारी ग्रामीण और कुलीन वर्ग के विरोध के कारण इसे स्वीकार नहीं किया गया। एक अर्थशास्त्री के रूप में डॉ. आंबेडकर के विचार व्यावहारिक, लोकहितकारी लेकिन जटिल हैं। उनके द्वारा सुझाई गई आर्थिक नीतियों और सुधारों में समाजवाद और औद्योगिकरण का मिश्रण है। डॉ. आंबेडकर राज्य की समाजवादी प्रकृति के सहारे औद्योगीकरण की प्राप्ति के समर्थक थे। एक अर्थशास्त्री के रूप में डॉ. आंबेडकर को किसी भी विचारधारा से बांधकर नहीं देखा जा सकता है। वे परिस्थितियों के अनुसार नीति निर्माण में विश्वास करते थे।

आंबेडकर मार्क्स के वर्ग भेद के सिद्धांत से सहमत थे और उन्होंने इसे भारतीय संदर्भ में सामाजिक आधार पर जाति भेद के रूप में समझा। आंबेडकर मार्क्स के वर्ग भेद को समाप्त करने के क्रांतिकारी तरीके से सहमत नहीं थे। मार्क्स के विरुद्ध उन्होंने समानता स्थापित करने के लिए राज्य की कल्याणकारी नीतियों और संवैधानिक प्रावधानों के समर्थन किया। जबकि मार्क्स पूरी तरह राज्य को समाप्त कर देना चाहते थे। अपने लेख बुद्धा और कार्ल मार्क्स में आंबेडकर मार्क्स के ऊपर बुद्ध की समतावादी अवधारणा को वरीयता देते हैं।

अर्थशास्त्री के रूप में डॉ. आंबेडकर के विचारों को एक लंबे समय से अनदेखा किया गया है। कृषि, वित्त और मौद्रिक नीति पर उनके विचार क्रांतिकारी हैं। उनके विचार भारतीय अर्थव्यवस्था की कई समस्याओं का समाधान हमारे सामने रखते हैं। एक अर्थशास्त्री के रूप में डॉ. आंबेडकर को पढ़ा जाना उनकी अर्थशास्त्री के रूप में महानता को स्वीकार करने के लिए ही नहीं  बल्कि भारत की आर्थिक बेहतरी के लिए भी ज़रूरी है।


स्रोत:

  1. Ambedkar’s Contributions to Indian Economics by S. Ambirajan
  2. Ambedkar, B.R. (1918) ‘Small Holdings in India and their Remedies’. Journal of the Indian Economic Society.
  3. Live Mint

Comments:

  1. Geeta says:

    Is lekh ke madhyam se mujhe B R Ambedkar ke bare me kafi kuch janne ko mila.

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