समाजख़बर अभिनेता नंदमुरी बालकृष्ण का महिला विरोधी व्यवहार दिखाता है भारतीय सिनेमा में सेक्सिज़म और लैंगिक भेदभाव

अभिनेता नंदमुरी बालकृष्ण का महिला विरोधी व्यवहार दिखाता है भारतीय सिनेमा में सेक्सिज़म और लैंगिक भेदभाव

नंदमुरी कृष्ण निर्देशक चैतन्य की आगामी तेलुगु फिल्म गैंग्स ऑफ गोदावरी के प्रचार कार्यक्रम में विशेष अतिथि के रूप में मंच पर थे। मंच के बीच में आते ही उन्होंने सबसे पहले फिल्म की कलाकारों- नेहा शेट्टी और अंजलि को एक तरफ हटने को कहा। कुछ ही समय बाद, उन्होंने अंजलि को धक्का दे दिया, जिससे वह लगभग गिर पड़ी।

तेलुगु फिल्म इंडस्ट्री के जाने-माने अभिनेता नंदमुरी बालकृष्ण अक्सर चर्चाओं में रहते हैं। हाल ही में वे फिर से खबरों की सुर्खियों में थे, जब एक ईवेंट के दौरान का उनका वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ। इस वीडियो में वे अभिनेत्री अंजलि को धक्का देते हुए नजर आ रहे हैं। इस घटना ने सोशल मीडिया पर जमकर हंगामा मचाया और बालकृष्ण को ट्रोल किया गया। नंदमुरी कृष्ण निर्देशक चैतन्य की आगामी तेलुगु फिल्म गैंग्स ऑफ गोदावरी के प्रचार कार्यक्रम में विशेष अतिथि के रूप में मंच पर थे। मंच के बीच में आते ही उन्होंने सबसे पहले फिल्म की कलाकारों- नेहा शेट्टी और अंजलि को एक तरफ हटने को कहा। कुछ ही समय बाद, उन्होंने अंजलि को धक्का दे दिया, जिससे वह लगभग गिर पड़ी। अंजलि नेहा और मंच पर मौजूद अन्य लोग इस घटना पर हंसते नजर आए।

भारतीय सिनेमा में महिला चित्रण- चिंताजनक स्थिति

यह वीडियो वायरल होने के बाद भारतीय सिनेमा में महिलाओं की स्थिति पर फिर से बहस छिड़ गई। इक्कीसवीं सदी में होने के बावजूद, भारतीय सिनेमा में महिलाओं के साथ भेदभाव और पुरुष वर्चस्व की समस्याएं बनी हुई हैं। इंटरनेशनल रिसर्च जर्नल ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी (आईआरजेईटी) के अनुसार, भारतीय फिल्म उद्योग दुनिया की सबसे बड़ी फिल्म उद्योग है। भारतीय फिल्में सौ से अधिक देशों में प्रदर्शित होती हैं और दुनिया भर में लगभग चार अरब लोगों द्वारा देखी जाती हैं। हर साल 20 से अधिक भाषाओं में लगभग 1000 फिल्में बनाई जाती हैं, जिनका युवाओं पर गहरा प्रभाव पड़ता है। ऐसे में न सिर्फ फिल्मों में बल्कि फिल्म उद्योग में महिलाओं को न ही अबतक समान वेतन मिल पाया है न ही सम्मान।

मंच के बीच में आते ही उन्होंने सबसे पहले फिल्म की कलाकारों- नेहा शेट्टी और अंजलि को एक तरफ हटने को कहा। कुछ ही समय बाद, उन्होंने अंजलि को धक्का दे दिया, जिससे वह लगभग गिर पड़ी। अंजलि नेहा और मंच पर मौजूद अन्य लोग इस घटना पर हंसते नजर आए।

महिलाओं का सिनेमा में एक दायरे में चित्रण

भारतीय फिल्मों में महिलाएं अक्सर घरेलू, कोमल, मीठा बोलने वाली, और त्याग करने वाली के रूप में दिखाई जाती हैं, जबकि पुरुष कलाकारों को प्रभुत्वशाली और रक्षक के रूप में दर्शाया जाता है। महिलाओं को अक्सर फिल्मों में एक वस्तु के रूप में दिखाया जाता है, जिसका पुरुष किरदार अपने ताक़त का प्रयोग करता है।

1972 में, अंग्रेजी कला समीक्षक और उपन्यासकार जॉन बर्जर ने अपने निबंध ‘वेज़ ऑफ़ सीइंग’ में कहा था, ‘पुरुष अभिनय करते हैं, महिलाएं दिखाई देती हैं। पुरुष देखते हैं, महिलाएं खुद को देखे जाते हुए देखती हैं।’ भारतीय सिनेमा में भी यही स्थिति है, जहां महिलाओं का चित्रण अमूमन उनके बाहरी रूप पर आधारित होता है और उनके किरदार का महत्व कम होता है।

महिला पात्रों के साथ असमान व्यवहार और स्क्रीन टाइम

हालांकि आज काफी कुछ बदलाव आया है, पर सिनेमा में पुरुष पात्रों को महिलाओं की तुलना में अधिक स्क्रीन टाइम दिया जाता है। वहीं महिला केंद्रित सिनेमा में नायकों को केंद्र में रखकर कहानी कही जाती है। गीना डेविस इंस्टीट्यूट की एक रिपोर्ट के अनुसार, फिल्मों में महिलाओं का स्क्रीन टाइम केवल 31.5 प्रतिशत है, जबकि पुरुष पात्रों को 68.5 प्रतिशत स्क्रीन टाइम मिलता है। इस कम समय में भी महिलाओं को अक्सर ऑबजेकटिफ़ाई किया जाता है या पुरुष किरदार के सहायक के रूप में ही प्रस्तुत किया जाता है। फिल्म ‘अंजाम’ में नायक (शाहरुख खान) का नायिका का लगातार पीछा करता है और कबीर सिंह में हीरो का हीरोइन को धमकाना भी महिलाओं के प्रति असहमति और असमानता का एक उदाहरण है।

1972 में, अंग्रेजी कला समीक्षक और उपन्यासकार जॉन बर्जर ने अपने निबंध ‘वेज़ ऑफ़ सीइंग’ में कहा था, ‘पुरुष अभिनय करते हैं, महिलाएं दिखाई देती हैं। पुरुष देखते हैं, महिलाएं खुद को देखे जाते हुए देखती हैं।’

महिलाओं के एजेंसी और सम्मान की बात

तेलुगु फिल्म ‘लोक्यम’ में नायक का नायिका को थप्पड़ मारना और यह कहना कि फूल, कांच, गुड़िया और लड़कियां तब सुंदर लगती हैं जब वे नाजुक और संवेदनशील होती हैं, यह दर्शाता है कि भारतीय सिनेमा ने हमेशा महिलाओं को एक खांचे में डाल कर देखा है। यह व्यवहार महिलाओं के एजेंसी और सम्मान को कम करता है और उनकी सामाजिक स्थिति को कमजोर बनाने का काम करता है। फिल्में महिलाओं को केवल पुरुषों की इच्छाओं के अधीन प्रस्तुत करती हैं, जिसमें उनकी इच्छा और स्वाभिमान को नकारा जाता है।

तस्वीर साभार: Hindustan Times

2018 की फिल्म ‘संजू’, जो संजय दत्त के जीवन पर आधारित है, उसमें महिलाओं के प्रति किए गए दुर्व्यवहार और असम्मान को बहुत हल्के में लिया गया है। वहीं ‘हेट स्टोरी’ सीरीज, ‘मस्तीजादे और ‘क्या कूल हैं हम सीरीज जैसी फिल्मों में महिलाओं को ऑबजेकटिफ़ाई किया गया है।

तस्वीर साभार: Big TV

फिल्मों के गीतों और संवादों में भी महिलाओं के प्रति अपमानजनक और अभद्र भाषा का प्रयोग किया जाता है, जिससे समाज में भी यही प्रवृत्ति बढ़ती है। भारतीय फिल्म उद्योग में पुरुषों का वर्चस्व हर क्षेत्र में व्याप्त है, चाहे वह स्क्रीन टाइम हो या वेतन। दीपिका पादुकोण और करीना कपूर खान जैसी शीर्ष अभिनेत्रियों को भी अपने समकक्षों के समान पारिश्रमिक नहीं मिलता।

मॉन्स्टर सैलरी इंडेक्स 2016 के अनुसार, दीपिका पादुकोण को फिल्म ‘पद्मावती’ में 1.8 मिलियन डॉलर का भुगतान किया गया था, जबकि शाहरुख खान को प्रति फिल्म 5.5 मिलियन डॉलर और मुनाफे का हिस्सा मिलता है।

मॉन्स्टर सैलरी इंडेक्स 2016 के अनुसार, दीपिका पादुकोण को फिल्म ‘पद्मावती’ में 1.8 मिलियन डॉलर का भुगतान किया गया था, जबकि शाहरुख खान को प्रति फिल्म 5.5 मिलियन डॉलर और मुनाफे का हिस्सा मिलता है। अदिति राव हैदरी ने एक साक्षात्कार में कहा कि वे समझ नहीं पातीं कि पुरुष अभिनेताओं की तुलना में महिलाओं को कम भुगतान क्यों किया जाता है, जबकि वे समान प्रयास करती हैं। कंगना रनौत, अनुष्का शर्मा और दिव्या स्पंदना जैसी अभिनेत्रियों ने भी इस वेतन अंतर के बारे में बात की है और समान काम के लिए समान वेतन की मांग की है।

महिलाओं के लिए फिल्म उद्योग मुश्किल क्यों है

गीना डेविस इंस्टीट्यूट की 2017 की रिपोर्ट के अनुसार, बॉलीवुड में केवल 5 प्रतिशत निर्देशक और 10 प्रतिशत लेखक ही महिलाएं हैं। यह दर्शाता है कि फिल्म निर्माण और प्रोडक्शन में भी महिलाओं को अपनी जगह बनाने के लिए पुरुषों के बनाए हुए रास्ते पर चलना पड़ता है और उन्हें अपने साथ होने वाले अन्याय के खिलाफ चुप रहना पड़ता है।

भारतीय सिनेमा में कास्टिंग काउच एक गंभीर समस्या है, जो नए और संघर्षरत कलाकारों को प्रभावित करता है। कास्टिंग काउच का अस्तित्व बॉलीवुड के साथ-साथ क्षेत्रीय फिल्म इंडस्ट्री में भी है। तनुश्री दत्ता ने 2018 में भारत में #MeToo आंदोलन के तहत नाना पाटेकर पर यौन हिंसा का आरोप लगाया था। इस आंदोलन के दौरान, कई महिलाओं ने आगे आकर अपने-अपने अनुभव साझा किए।

गीना डेविस इंस्टीट्यूट की 2017 की रिपोर्ट के अनुसार, बॉलीवुड में केवल 5 प्रतिशत निर्देशक और 10 प्रतिशत लेखक ही महिलाएं हैं। यह दर्शाता है कि फिल्म निर्माण और प्रोडक्शन में भी महिलाओं को अपनी जगह बनाने के लिए पुरुषों के बनाए हुए रास्ते पर चलना पड़ता है और उन्हें अपने साथ होने वाले अन्याय के खिलाफ चुप रहना पड़ता है।

फिल्म क्वीन के निर्देशक विकास बहल, फिल्म निर्माता साजिद खान, और अभिनेता आलोक नाथ पर भी यौन हिंसा के आरोप सामने आए थे। लेकिन इसके बाद भी पुरुष कलाकारों के करिअर में लगभग कोई दुष्परिणाम या खतरा नजर नहिउन आता जबकि इन महिलाओं विशेषकर अपने करियर में मुश्किलों का सामना करना पड़ा। एक साक्षात्कार में तनुश्री ने बताया था कि इस आंदोलन के बाद उन्हें मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए फिल्म इंडस्ट्री छोड़नी पड़ी और अमेरिका जाना पड़ा। फिल्म ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ की अभिनेत्री आलिया भट्ट ने अपने करियर के दौरान हुए कास्टिंग काउच और उत्पीड़न के अनुभव को साझा किया और कहा कि उन्हें भी अपने करियर के शुरुआती दौर में कास्टिंग काउच का सामना करना पड़ा था। समय-समय कई अभिनेत्रियों ने अपने अनुभव साझा किए और बताया कि इस आंदोलन से उन्हें आत्मविश्वास और समर्थन मिला।

महिला सशक्तिकरण और समानता की दिशा में काम करने की जरूरत है, ताकि भारतीय सिनेमा में महिलाओं को उचित सम्मान और स्थान मिल सके। नंदमुरी बालकृष्ण की घटना ने इस समस्या की ओर एक बार फिर से ध्यान खींचा है और यह दिखाता है कि सिनेमा जगत में महिलाओं के प्रति व्यवहार में सुधार की कितनी आवश्यकता है। सिनेमा के माध्यम से समाज में महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण को बदलने का प्रयास करना होगा, ताकि एक समान और सशक्त समाज का निर्माण किया जा सके।

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