हाल ही में केंद्र सरकार ने ब्रिटिश काल से चले आ रहे कानूनों को बदलने की दिशा में तीन नए विधेयक पारित किए हैं। ये विधेयक भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) 1860, दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) 1973, और भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 को बदलने के उद्देश्य से लाए गए हैं। इन नए विधेयकों को भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम कहा जाएगा। कानूनी प्रणालियों को सामाजिक जरूरतों और समय के साथ बदलना जरूरी भी है। भारतीय न्याय संहिता तत्कालीन समाज में अपराधों, बदलते सामाजिक मानदंडों, और एक उन्नत न्यायिक प्रणाली की जरूरतों को संबोधित करने में कारगर साबित हो सकता है। केंद्र सरकार ने इन तीन विधानों का उद्देश्य ब्रिटिश काल के आपराधिक कानूनों को ‘उपनिवेशवाद से मुक्ति‘ दिलाना बताया था।
इसमें कई नए अपराध शामिल किए गए हैं और कई पुराने अपराधों को हटाया गया है। लेकिन बारीकियों को देखने पर, नए आपराधिक कानून औपनिवेशिक मानसिकता से दूर रहने के लिए कम, और राज्य और सरकार की शक्तियों का विस्तार करते हुए दिखते नजर आते हैं। महत्वपूर्ण बदलावों के तहत बलात्कार और हत्या जैसे गंभीर अपराधों के लिए सख्त सजा का प्रावधान किया गया है। भारतीय न्याय संहिता से आईपीसी की धारा 377 को भी अब हटा दिया गया है, जो एक चिंताजनक कदम है। यह कानूनी व्यवस्था की दिशा में लैंगिक समानता में की गई प्रगति को पीछे ले जा सकता है। अक्सर अपराध को कानून एक पितृसत्तातमक नजरिए से देखा जाता है। लेकिन अपराध को देखने का नारीवादी नजरिया हमें न सिर्फ लैंगिक समानता, बल्कि अपराध के गुत्थियों को सुलझाने में मदद करता है।
राज्य के विरुद्ध अपराध
पहले ‘राज्य के विरुद्ध अपराध’ धारा 124 ए के तहत राजद्रोह का अपराध शामिल था। हालांकि बीएनएस में यह धारा मूल रूप में काफी हद तक एक सा है, लेकिन ‘राजद्रोह’ को बीएनएस की धारा 152 में परिभाषित एक नए अपराध से बदल दिया गया है। इसका नाम ‘भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाला कृत्य’ रखा गया है जो आईपीसी में धारा 124 ए से कुछ मायनों में अलग है। आईपीसी की धारा 124ए उन गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित करती थी, जो सरकार के प्रति घृणा, अवमानना या असंतोष को उत्तेजित करती थीं।
वहीं, बीएनएस की धारा 152 उन गतिविधियों को दंडित करती है, जो ‘विध्वंसक गतिविधियों’ को उत्तेजित करती हैं या ‘अलगाववादी गतिविधियों की भावनाओं’ को प्रोत्साहित करती हैं या ‘भारत की संप्रभुता या एकता और अखंडता’ को खतरे में डालती हैं। द वायर में छपी एक खबर मुताबिक राजद्रोह कानून के बारे में हमेशा से चिंता इस बात को लेकर रही है कि राज्य ने इसका इस्तेमाल किस तरह से लोगों की गिरफ़्तारी और लंबे समय तक हिरासत में रखकर असहमति को दबाने के लिए किया है। ज़्यादातर मामलों में सज़ा नहीं मिलती और आपराधिक प्रक्रिया ही सज़ा बन जाती है।
क्यों नहीं बनाए गए मैरिटल रेप पर कानून
बीएनएस में कुछ नए अपराध के तहत खंड 69, जो ‘धोखेबाज़ साधनों’ के उपयोग के माध्यम से यौन संबंध को दंडित करता है। प्रावधान के अनुसार जो कोई भी धोखे से या किसी महिला से शादी करने का वादा करके, बिना किसी इरादे के उसके साथ यौन संबंध बनाता है, उसे 10 साल तक की कैद की सज़ा दी जाएगी, और जुर्माना भी देना होगा। सरकार औपनिवेशिक युग के कानूनों से हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली को मुक्त करने का प्रयास के दावे कर रही है।
ऐसे में बीएनएस एक सुनहरा मौका था हम कानूनी व्यवस्था से पितृसत्ता को खत्म करें। सरकार के पास मैरिटल रेप को अपराध बनाने का मौका के बावजूद, बीएनएस, धारा 63 (बलात्कार का अपराध) में इस अपवाद को बरकरार रखता है। आईपीसी के तहत, और अब बीएनएस के तहत, अगर कोई पुरुष अपनी पत्नी के साथ बिना कॉन्सेंट के यौन संबंध बनाता है, तो उसे बलात्कार नहीं माना जाएगा, अगर उसकी उम्र 18 साल से अधिक है।
क्या नए कानून और प्रक्रियाएं आम जनता को मजबूती देगी
बीएनएस, धारा 103 के तहत, पहली बार नस्ल, जाति या समुदाय के आधार पर हत्या को भी एक अलग अपराध के रूप में मान्यता देगी। नए प्रावधान से अब ऐसे अपराधों को कानूनी मान्यता मिल सकती है, जो हाल के सालों में बढ़ रहे हैं। बीएनएसएस के तहत अब पुलिस हिरासत में हिरासत की अवधि को सीआरपीसी में 15 दिन की सीमा से बढ़ाकर 90 दिन कर दिया गया है।
पहले सीआरपीसी की धारा 167(2) के अनुसार, किसी आरोपी को अधिकतम 15 दिन पुलिस हिरासत में रहने के बाद, न्यायिक हिरासत (जेल) में भेजा जाना था। लेकिन अब बीएनएसएस के खंड 187(3) ने ‘पुलिस हिरासत के अलावा अन्य’ शब्दों को हटा दिया है, जो अनिवार्य रूप से पुलिस को बीएनएस में बताए गए सभी अपराधों के लिए किसी आरोपी को 90 दिनों तक हिरासत में रखने की अनुमति देता है।
आपराधिक जिम्मेदारी की न्यूनतम आयु
आपराधिक जिम्मेदारी की आयु वह न्यूनतम आयु है जिस पर किसी बच्चे पर किसी अपराध के लिए आरोप लगाया जा सकता है और उसे दंडित किया जा सकता है। भारतीय दंड संहिता के अनुसार, सात वर्ष से कम उम्र के बच्चे द्वारा किए गए कार्यों को अपराध नहीं माना जाता है। यदि कोई बच्चा अपने आचरण की प्रकृति और परिणामों को समझने में असमर्थता के कारण आपराधिक जिम्मेदारी की कमी पाता है, तो यह आयु सीमा 12 वर्ष तक बढ़ा दी जाती है। नए विधेयक के प्रावधान में भी यही मानदंड हैं। हालांकि यह आयु अन्य कई देशों में आपराधिक जिम्मेदारी की आयु से कम है। वैश्विक स्तर पर आपराधिक जिम्मेदारी की आयु अलग-अलग है। उदाहरण के लिए, जर्मनी इसे 14 वर्ष निर्धारित करता है, जबकि इंग्लैंड और वेल्स में यह सीमा 10 साल और स्कॉटलैंड में 12 साल है। वहीं 2007 में, एक संयुक्त राष्ट्र समिति ने सिफारिश की कि राज्य आपराधिक जिम्मेदारी की आयु 12 वर्ष से कम न रखें।
आईपीसी की धारा 377 को हटाया जाना
बीएनएस जो आईपीसी की जगह लेती है, धारा 377 को पूरी तरह से निरस्त कर देती है। नए अधिनियम में पुरुषों और ट्रांसजेंडरों के खिलाफ यौन अपराधों को संबोधित करने या उनसे निपटने का कोई प्रावधान नहीं है। आईपीसी के इस धारा के निरस्त होने के बाद, मौजूदा कानूनी ढांचे के तहत, ट्रांसजेंडर व्यक्ति केवल ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 का सहारा ले सकते हैं। यह अधिनियम ट्रांसजेंडर व्यक्ति के शारीरिक, यौन, मौखिक, भावनात्मक और आर्थिक शोषण को अपराध मानता है, जिसके लिए कम से कम छह महीने की सजा हो सकती है और जुर्माने के साथ दो साल तक की सजा हो सकती है।
लेकिन यह आईपीसी की धारा 377 में आजीवन कारावास के प्रावधान के उलट अधिकतम 2 वर्ष के कारावास का प्रावधान करता है। वहीं, 2019 अधिनियम के तहत अपराध जमानती है, जबकि धारा 377 गैर-जमानती था। 2019 अधिनियम यह परिभाषित नहीं करता है कि शारीरिक, यौन, मौखिक, भावनात्मक और आर्थिक दुर्व्यवहार का क्या अर्थ होगा। इसलिए यह अलग-अलग व्याख्याओं और दुरुपयोग के लिए जगह छोड़ देता है। धारा 377 को हटाने से एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के अधिकारों की सुरक्षा में कमी आ सकती है। यह साफ है कि सरकार क्वीयर समुदाय के अधिकारों को गंभीरता से नहीं ले रही है।
अबॉर्शन से जुड़े कानून
हमारे आपराधिक कानूनों में आईपीसी की धारा 312 है, जो अबॉर्शन को अपराध बनाती है। इस प्रावधान के तहत कोई भी व्यक्ति जो स्वेच्छा से किसी महिला का अबॉर्शन कराता है, उसे दंडित किया जा सकता है। इसमें वह गर्भवती महिला भी शामिल है जो अबॉर्शन का विकल्प चुनती है। इसमें अपवाद सिर्फ ये है कि अगर ऐसा अबॉर्शन गर्भवती महिला के जीवन को बचाने के लिए किया जाता हो। मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971 डॉक्टरों को आपराधिक दायित्व से बचाकर इस प्रावधान में और अपवाद देता है, अगर वे अधिनियम के तहत निर्धारित विशिष्ट शर्तों के तहत अबॉर्शन करते हैं। नए अधिनियम के तहत इस अपवाद में बदलाव किया जा सकता था जो महिलाओं और जेन्डर नॉन बाइनरी लोगों के अधिकार को सुनिश्चित करने में मददगार साबित हो सकता था।
नए आपराधिक कानून के तहत जीरो एफआईआर, पुलिस शिकायतों का ऑनलाइन पंजीकरण, एसएमएस जैसे इलेक्ट्रॉनिक तरीकों से समन और सभी जघन्य अपराधों के लिए अपराध स्थलों की अनिवार्य वीडियोग्राफी जैसे प्रावधान शामिल किए गए हैं। महिलाओं, 15 साल से कम आयु के व्यक्तियों, 60 साल से अधिक आयु के व्यक्तियों और विकलांग या गंभीर रूप से बीमार व्यक्तियों को पुलिस थाने जाने से छूट दी गई है। वे अपने घर पर पुलिस सहायता ले सकते हैं। हालांकि भारतीय न्याय संहिता की समकालीन समाज के लिए प्रासंगिकता और कानूनी प्रक्रिया को व्यवस्थित करने का बहुत अनुमान है। नए कानूनी ढांचे को लागू करने में कई व्यावहारिक चुनौतियाँ सामने आ सकती हैं, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में जहां कानूनी जागरूकता और संसाधनों की कमी है। इसलिए इसके कार्यान्वयन की व्यावहारिक चुनौतियों की चिंता बनी हुई है।