समाजकार्यस्थल ईंट-भट्ठे में जाति, लैंगिक असमानता व पहुँच के अवसर सत्ता के साथ मिलकर कैसे करते हैं काम? 

ईंट-भट्ठे में जाति, लैंगिक असमानता व पहुँच के अवसर सत्ता के साथ मिलकर कैसे करते हैं काम? 

ईंट-भट्ठे में काम करने वाली महिलाओं को मज़दूरी के बाद भी पुरुषों के मुकाबले कम वेतन मिलता है। ऐसे में 30 से 40 रूपये के बीच आने वाला सैनिटरी पैड खरीदने का ख्याल उनके मन में कभी नहीं आता। कानपुर के घाटमपुर भट्ठे में काम करने वाली महिला बताती हैं कि इन्फेक्शन होने की वजह से उन्हें बच्चेदानी का ऑपरेशन करवाना पड़ा था। पैसे की दिक्कत के कारण वह अबतक कपड़ा ही इस्तेमाल करती हैं। 

भट्ठे जहां ईंटें बनती हैं और जिन ईंटों से समाज में रहने वाले लोगों के घर बनते हैं, वह घर और वह ईंट-भट्ठा कोई भी जगह भेदभाव और असमानता से अछूते नहीं हैं। ईंट-भट्ठों की बात की जाए तो वहां भी यही चुनौतियां और संघर्ष है। लेकिन विशेष लिंग,जाति और वर्ग से आने वाले लोगों के लिए यहीं पर अगर बारीकियों पर जाएं, तो न सिर्फ पुरुषों के मुकाबले भट्ठे में काम करने वाली महिलाओं के साथ भेदभाव ज्यादा होता है, बल्कि वे भट्ठा मालिक या मुनीम जो अमूमन पुरुष होते हैं, उनके किए भेदभाव और शोषण का सामना भी करती हैं। वेतन की बात हो या उनकी मेहनत को कमतर आंकने की, घर और भट्ठे, दोनों जगह काम के घंटे से लेकर स्वास्थ्य को अनदेखा करने तक, महिलाओं के काम को न काम की तरह की तरह देखा जाता है और न ही मेहनत की तरह। 

क्या बाहर शौच जाने की चुनौती महिला-पुरुष के लिए समान है? 

उत्तर प्रदेश के फतेहपुर में अमित ईंट भट्टे पर काम करती एक महिला, तस्वीर साभार: अंजू और रचना

उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के ईंट-भट्ठे में काम करने वाली महिलाओं से भट्ठे में शौचालय की सुविधा के विषय में पूछे जाने पर उन्होंने बताया कि भट्ठे में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। भट्ठे में काम करने वाली मनोरिया गांव की कलावती बताती हैं, “गर्मियों में तो ठीक रहता है लेकिन सर्दियों में दिक्कत होती है। ठंडियों में खेत में जाने में डर लगता है। आदमी है, कोई यौन हिंसा करता है। कोई ऐसे देखता है, जैसे कभी महिला देखी न हो।” बांदा जिले के मटौंध स्टेशन के पास रहने वाले वृन्दादीन रैकवार बताते हैं कि शौचालय न होने की वजह से अगर वह किसी के खेत में जाते हैं तो उन्हें गालियां दी जाती है। शौचालय की कमी एक बुनियादी जरूरत की कमी है। लेकिन जहां पुरुष होने के नाते रैकवार को लोगों के बातों का डर है, वहीं कलावती को न सिर्फ भला-बुरा सुनने का डर है बल्कि यौन हिंसा का डर भी है।

गर्मियों में तो ठीक रहता है लेकिन सर्दियों में दिक्कत होती है। ठंडियों में खेत में जाने में डर लगता है। आदमी है, कोई यौन हिंसा करता है। कोई ऐसे देखता है, जैसे कभी महिला देखी न हो।

खबर लहरिया  की रिपोर्ट के अनुसार, 28 वर्षीय महिला के साथ तब बलात्कार की घटना हुई, जब वह सुबह 5 बजे अकेले शौच के लिए गई थी। ग्रामीण इलाकों में दिन या रात दोनों ही समय महिलाएं शौच के लिए हमेशा समूह बनाकर जाती हैं ताकि कुछ हदतक सुरक्षित रह सकें। वहीं, पुरुष अपनी पहुंच के हिसाब से कहीं भी शौच के लिए जा पाते हैं। महिलाओं के मामले में न तो उनके पास शौच जाने के लिए सुरक्षित जगह की पहुंच होती है और न ही वह विशेषाधिकार है कि उन्हें बाहर जाने पर अपनी सुरक्षा के बारे में न सोचना पड़े। 

महिलाओं और पुरुषों में वैतनिक असमानता

उत्तर प्रदेश के कानपुर में राज लक्ष्मी ईंट भट्ठे पर अपने बच्चे के साथ एक महिला, तस्वीर साभार: पूनम

कानपुर जिले के दिगमपुर भट्ठे में काम करने वाली महिला बताती हैं, “जहां पुरुषों को काम करने के बाद 350 से 400 रूपये मिलते हैं, वहीं उन्हें सिर्फ 250 रूपये दिए जाते हैं। दूसरी महिला बताती हैं, “हमारा काम ज़्यादा होता है। अंदर घुसकर लीपापोती करनी होती है। इतने में घर तो नहीं चलता पर कम से कम साग-सब्ज़ी हो जाती है।” वहीं भट्ठा मज़दूर सुरेश आय को लेकर कहते हैं, “एक आदमी के बदले दो स्त्रियां काम करती हैं।” इस बात से साफ है कि बेशक महिला, पुरुषों के साथ सुबह 8 बजे से शाम के 6 बजे तक काम कर रही हैं,  लेकिन इसके बाद भी वह उनकी और समाज की विचारधारा में कम काम करती हैं। महिलाओं की मेहनत और काम के घंटों को भी हमेशा अनदेखा किया जाता है जो हमेशा पुरुषों द्वारा किये गए काम के घंटों से अमूमन ज़्यादा होता है। 

जहां पुरुषों को काम करने के बाद 350 से 400 रूपये मिलते हैं, वहीं उन्हें सिर्फ 250 रूपये दिए जाते हैं। दूसरी महिला बताती हैं, “हमारा काम ज़्यादा होता है। अंदर घुसकर लीपापोती करनी होती है। इतने में घर तो नहीं चलता पर कम से कम साग-सब्ज़ी हो जाती है।

मुनीम वीरेंद्र पाल का कहते हैं कि महिलाएं हर दिन काम पर नहीं आती इसलिए उन्हें दिन के हिसाब से मज़दूरी दी जाती है और पुरुष ज़्यादा काम करते हैं। लेकिन जमीनी हकीकत और रिपोर्ट कुछ और बताती है। साल 2014 में ईंट भट्टे में एर्गोनॉमिक्स अध्ययन में राजस्थान के एक ईंट-भट्ठे पर अध्ययन किया गया कि एक ईंट बनाने की अलग-अलग प्रक्रियाओं में महिलाओं की कितनी ऊर्जा लगती है। इस रिपोर्ट में पाया गया कि 24 घंटे में एक महिला श्रमिक 5 घंटे ईंट को पाथने, 45 मिनट कच्ची ईंटों को इकठ्ठा करने, 2 घंटे ईंट बनाने से जुड़े अन्य कामों में, 8 घंटे और 10 मिनट घर के अन्य कामों और 8 घंटे सोने में खर्च करती हैं। 

रोज़गार के लिए शोषित होते हैं ईंट-भट्ठा मज़दूर 

उत्तर प्रदेश के कानपुर में लक्ष्मी भट्ठा, तस्वीर साभार: खुशबू

कानपुर देहात ईंट-भट्ठे में भट्ठा मज़दूरों से बात करने पर यह पता चलता है कि भेदभाव और वैतनिक असमानता के साथ-साथ वहां काम पूरा करने के लिए उन्हें डराया-धमकाया भी जाता है। बिहार के मूल निवासी भट्ठा मज़दूर राजेश बताते हैं, “काम ढंग से न हो तो मारपीट का डर भी रहता है। गरीब हैं इसलिए मारपीट करते हैं कि जाएंगे कहां। मालिक ऐसा भी कहते हैं कि हम उनके कब्ज़े में हैं।” अन्य भट्ठा मज़दूर राजेंद्र बताते हैं, “एडवांस लिया है तो दबाव में रहते हैं। धमकी देते हैं कि अगर काम नहीं किया तो खाने को नहीं देंगे। मुनीम कोई सुविधा नहीं देते। हम लेबर हैं तो जानवर की तरह हम लोगों को यूज़ करेंगे, कोई खेती नहीं है। गांव में सही मज़दूरी नहीं मिलती। दिन में भी काम करते हैं, रात में भी काम करते हैं तब जाकर बच्चों का गुज़ारा चल पाता है।”

एडवांस लिया है तो दबाव में रहते हैं। धमकी देते हैं कि अगर काम नहीं किया तो खाने को नहीं देंगे। मुनीम कोई सुविधा नहीं देते। हम लेबर हैं तो जानवर की तरह हम लोगों को यूज़ करेंगे, कोई खेती नहीं है। गांव में सही मज़दूरी नहीं मिलती। दिन में भी काम करते हैं, रात में भी काम करते हैं तब जाकर बच्चों का गुज़ारा चल पाता है।

महिला भट्ठा मज़दूर क्रान्ति देवी कहती हैं, “हम गूमा पाथ रहे हैं ताकि रोटियां मिलेंगी। ये छोड़ देंगे तो रोटियां नहीं मिलेंगी।” राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) के आंकड़ों के अनुसार वर्तमान में ईंट-भट्ठों में काम करने वाले 70 फीसद प्रवासी श्रमिक पहले कृषि क्षेत्र में कार्यरत थे। कृषि क्षेत्र में काम न होने पर ये श्रमिक भट्ठे की ओर मजबूरन चले गए, जहां किसी के पास भी अपनी खेती या ज़मीन नहीं है। मूल रूप से चूंकि भट्ठे में काम करने वाले अधिकतर मज़दूर अनुसूचित जाति और जनजाति से आते हैं तो उनके पास कभी भी उनकी जाति की वजह से अपनी ज़मीन नहीं रही। खबर लहरिया की रिपोर्ट बताती है कि ईंट-भट्ठों में कुल प्रवासियों में से लगभग 47 फीसद अनुसूचित जाति और एक बड़ी आबादी दलित समदाय से आती है। दलित समुदाय ऐतिहासिक रूप से हाशिये पर रहे हैं और भूमि के स्वामित्व और अधिकारों से वंचित रहे हैं। ये भट्ठा मज़दूर इसलिए भी शोषित होते हैं क्योंकि ये अपने राज्यों से पलायन करके आए हुए होते हैं। भेदभाव और शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाने पर उन्हें अपने रोज़गार से हाथ खोना पड़ सकता है। 

पीरियड में कपड़े का इस्तेमाल और मजबूरन स्वास्थ्य की अनदेखी  

उत्तर प्रदेश के कानपुर में एक भट्टे पर ईंटें ढालती एक महिला, तस्वीर साभार: सोनी

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की 2018 की रिपोर्ट बताती है कि 62 फीसद महिलाएं पीरियड्स में असुरक्षित स्वच्छता उत्पादों का पर निर्भर हैं। छत्तीसगढ़ और यूपी में पीरियड्स के दौरान 81 फीसद महिलाएं कपड़ा इस्तेमाल करती हैं।  ईंट-भट्ठे में काम करने वाली महिलाओं को मज़दूरी के बाद भी पुरुषों के मुकाबले कम वेतन मिलता है। ऐसे में 30 से 40 रूपये के बीच आने वाला सैनिटरी पैड खरीदने का ख्याल उनके मन में कभी नहीं आता। कानपुर के घाटमपुर भट्ठे में काम करने वाली महिला बताती हैं कि इन्फेक्शन होने की वजह से उन्हें गर्भाशय का ऑपरेशन करवाना पड़ा था। पैसे की दिक्कत के कारण वह अबतक कपड़ा ही इस्तेमाल करती हैं। वहीं कुछ युवतियों ने बताया, “पीरियड में कपड़े के इस्तेमाल से जलन होती है। थोड़ा कट भी जाता है। एक ही कपड़े को बार-बार इस्तेमाल करते हैं और कई बार इससे स्वास्थ्य पर भी असर पड़ता है। पैसे नहीं है इसलिए पैड इस्तेमाल नहीं करते।” उन्होंने यह भी कहा कि काम के दौरान इतना समय नहीं मिलता कि वे दो-तीन किलोमीटर की दूरी तय कर पैड खरीदने जाएं। 

पीरियड में कपड़े के इस्तेमाल से जलन होती है। थोड़ा कट भी जाता है। एक ही कपड़े को बार-बार इस्तेमाल करते हैं और कई बार इससे स्वास्थ्य पर भी असर पड़ता है। पैसे नहीं है इसलिए पैड इस्तेमाल नहीं करते।

कमज़ोर आर्थिक स्थिति और परिवार को कम पैसे में चलाने के भार में महिलाओं को अपने स्वास्थ्य से पहले परिवार को हमेशा आगे रखना बताया गया है। पीरियड्स को समाज में टैबू की तरह देखा गया है और ऐसे में महिलाओं के पास अपने लिए स्वास्थ्य सुविधाएं मांगने के अवसर बेहद कम या बिलकुल संकीर्ण हो जाते हैं। परिवार में बेशक महिला और पुरुष दोनों काम कर रहे होते हैं। जैसेकि हमने भट्ठे में देखा। लेकिन परिवार को उस काम से मिलने वाले आय से चलाने का अधिकतर भार महिला पर ही होता है, जो उसे अपने स्वास्थ्य संबंधी ज़रूरतों पर पैसे खर्च करने से रोकता है। ईंट-भट्ठों में पाई जाने वाली ये सारी असमानताएं इस विशेष क्षेत्र में काफी दयनीय है क्योंकि इन तक किसी भी तरह की सुविधाओं, अवसर और मदद की पहुंच नहीं है। जितनी चुनौतियां और भेदभाव बाहरी तौर पर भट्ठे में है, उतनी ही जटिलताएं भट्ठा-मज़दूरों, वहां काम करती जातियों, बाहर निकलने की पहुंच जैसी चीज़ों में भी हैं। 

इस लेख की रिपोर्टिंग चंबल अकादमी और पर्पस की उड़ान फेलोशिप के फेलो द्वारा की गई है। फेलोशिप के एक भाग के रूप में, ईंट भट्टों से करीबी संबंध रखने वाली 15 ग्रामीण लड़कियों और महिलाओं को पहली बार डिजिटल कहानीकार बनने के लिए पांच महीने का प्रशिक्षण दिया गया। कहानी संध्या ने लिखी है।

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