संस्कृतिसिनेमा बोलः पितृसत्ता पर सवाल उठाती एक बेहतरीन पाकिस्तानी फिल्म

बोलः पितृसत्ता पर सवाल उठाती एक बेहतरीन पाकिस्तानी फिल्म

फिल्म की शुरुआत राष्ट्रपति भवन के सीन से होती है जहां एक अधिकारी राष्ट्रपति से कैदी की फांसी होने की सजा पर माफ़ी के लिए फाइल पर साइन करने की बात करता है साथ ही इस बात की परमिशन मांगता है कि जो कैदी है वो अपनी कहानी मीडिया के सामने सुनाना चाहती है।

शोएब मंसूर द्वारा लिखित, निर्मित और निर्देशित फिल्म ‘बोल’ एक सोशल ड्रामा पाकिस्तानी फिल्म है जिसमें पितृसत्ता और धर्म दोनों पर समान रूप से सवाल करते हुए बखूबी दिखाया गया है। पाकिस्तानी सिनेमा के इतिहास में एक प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण फिल्म है। यह फिल्म अपनी मजबूत कहानी, दमदार अभिनय और प्रभावशाली संदेश के लिए जानी जाती है। अपने समय की यह एक ऐसी फिल्म थी जिसमें अहम मुद्दों को संवेदनशीलता से पर्दे पर दिखाया गया है। इस फिल्म को समीक्षकों द्वारा खूब प्रशंसा मिली और यह कमर्शियल हिट फिल्म भी रही। फिल्म ने कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी प्रशंसा हासिल की थी।

फिल्म का शीर्षक ‘बोल’ है जिसका शाब्दिक उर्दू अर्थ है बोलना या आवाज जो फिल्म की प्रासंगिकता को दर्शाती है। निर्देशक ने अपनी फिल्म के जरिए सामाजिक बुराइयों को उजागर किया है। इस फिल्म को हम समीक्षा के तौर पर नहीं बल्कि नारीवाद के चश्में से देखेंगे। क्योंकि ये फिल्म ना सिर्फ पितृसत्ता को चुनौती देती नज़र आती बल्कि धार्मिक मुद्दों को भी सवालों के कटघरे में खड़ा करती है। जिसमें लैंगिक असमानता, धार्मिक अतिवाद, गरीबी और लैंगिक पहचान के बारे में संवेदनशीलता से बात की गई है। इन सारे मुद्दों को एक फिल्म में समेटना आसान तो नहीं लेकिन बहुत हद तक लोगों को समझाने में यह संदेश देने में कामयाब होती है। फिल्म में पिता और बेटी के रिश्तों के बीच संघर्ष को दिखाया गया है। कैसे एक पिता दकियानूसी सोच और धार्मिक अतिवाद होने के कारण अपनी बेटियों और पत्नी पर जुल्म करता है उन्हें घर में कैदी की तरह रखता है। पिता के इस रवैये से घर की सारी महिलाएं परेशान रहती हैं और बाद में उन्हीं में से एक घर की सबसे बड़ी बेटी आवाज़ उठाती है। 

जैनब चीखते हुए कहती है “मुझे कह लेने दीजिए मेरा सब कुछ बोलना ज़ाया चला जाएगा, खुदा के लिए ठहरिए। मैंने अपने बाप से अपनी पैदाइश का बदला लिया है। मेरे बाप ने आठ बच्चे पैदा नहीं किए थे बल्कि आठ बच्चे मारे थे। मैं अपने पीछे एक सवाल छोड़कर जाना चाहती और मैं चाहती हूं कि आप सब इस सवाल का जवाब इस मुआशरे से मांगे।”

यह फिल्म पितृसत्तात्मक व्यवस्था के उन पहलूओं को सामने रखती है जहां पुरुष हर रूप में एक स्त्री की भूमिका तय करता है। हमारी पुरुषवादी समाज में कैसे महिलाओं की भूमिका को तय किया गया है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था के तहत कैसे एक बेटे को ही पिता की असली संतान माना जाता है और अगर ज्यादा बेटियों को एक इंसान के तौर पर भी नहीं देखा जाता है। इस तरह के पितृसत्तात्मक व्यवहार की जड़े पूरी दुनिया में फैली है। हर जगह देखने को मिल जायेगा जहां पिता अपनी बेटियों को नियंत्रित करता है और उनपर अपनी सोच और धर्म को थोपता है। 

फिल्म के बारे में बात करते हैं, जो एक गरीब मुस्लिम परिवार के बारे में हैं जहां लड़कियों को ज्यादा पढ़ने-लिखने नहीं दिया जाता है और ना ही उन्हें घर से बहार निकल कर काम करने दिया जाता है। घर की बड़ी बेटी जैनब का किरदार पाकिस्तानी अभिनेत्री हुमैमा मलिक ने निभाया है जो फिल्म का मुख्य किरदार है। हकीम साहब यानी जैनब के पिता हसमतुल्ल्लाह खान दूसरे मुख्य किरदार में हैं। फिल्म की कहानी इन्हीं दो मुख्य किरदारों पर ज्यादा चलती हुई दिखाई देती है। इस फिल्म में और भी अन्य किरदार हैं जो अपने किरदार में पूरी तरह जमते हैं। फिल्म में बहुत से सटीक संवाद हैं जो काफ़ी सराहनीय है। पूरी फिल्म फ्लैशबैक में चलती है और कुछ टाइम के लिए वर्तमान में आती-जाती रहती है। 

फिल्म की शुरुआत राष्ट्रपति भवन के सीन से होती है जहां एक अधिकारी राष्ट्रपति से कैदी की फांसी होने की सजा पर माफ़ी के लिए फाइल पर साइन करने की बात करता है साथ ही इस बात की परमिशन मांगता है कि जो कैदी है वो अपनी कहानी मीडिया के सामने सुनाना चाहती है। कहानी सुनाने के लिए उसे हां कह दिया जाता है लेकिन माफीनामा ख़ारिज कर दिया जाता है। दूसरे सीन में दिखाया जाता है कि जो कैदी है वह एक महिला कैदी है जिसे पिता की हत्या करने के जुर्म में पाकिस्तानी अदालत में फांसी की सजा सुनाई गई होती है। लेकिन उससे पहले वो अपनी कहानी मीडिया के सामने बताना चाहती है तो नियत समय पर उसे फांसी के तख्ते पर लाया जाता है फिर जेलर की शर्त होती है चार बजे फांसी दी जायेगी अगर इस समय तक कहानी किसी भी मोड़ पर होगी तो उसे बंद करनी होगी और मीडिया वालों को यहां से जाना होगा। यहां से कहानी शुरू होती है जो फ्लैशबैक में चलती है।

जैनब जिसे फांसी की सजा होने वाली है वो अपनी कहानी बताती है कि कैसे उसके परिवार दिल्ली छोड़ने पर लाहौर में आकर बसा। यहीं पर उसके पिता हकीम की सुरैया से शादी होती है। शादी के बाद एक बेटे की उम्मीद में सात बेटियों को जन्म दिया और आठवां बच्चा इंटरसेक्स होता है जिसे वह मारना चाहता था। लेकिन सुरैया ने जोर देकर कहा कि वह इस बात को किसी को नहीं बताएगी उनका बच्चा इंटरसेक्स है, जैसे बेटियों को पाला है वैसे इसे भी पालना चाहती है। हालांकि हकीम अपने बेटे से नफ़रत करता है और उसे कभी अपनाता नहीं है। सभी बहनें मिलकर बच्चे का नाम सैफुल्लाह रखती हैं जिसे प्यार से सैफी बुलाती हैं। हकीम कभी भी अपने बेटे को स्कूल नहीं भेजता उसका मानना है कि स्कूल भेजेंगे तो बेटे की लैंगिक पहचान लोगों के सामने आ जाएगी और समाज में हमारी बदनामी होगी। उसके लिए उसे घर पर ही पढ़ने के लिए एक ट्यूटर रखा गया। 

वहीं जैनब की शादी पहले रिश्ते आने पर ही कर दी गई। जब ससुराल गई तो उसने परिवार की आर्थिक स्थिति को देखकर कहा कि मैं तब तक बच्चा पैदा नहीं करूंगी जब तक घर के हालात ठीक नहीं हो जाते चूंकि खाने वाले दस और कमाने वाला एक था। इस बात से ससुराल वाले लड़ाई-झगड़ा किया करते और एक दिन इससे तंग आकर वह अपने मायके वापस चली आती है। जहां पर भी स्थिति ऐसी है। वहीं पांचवीं के बाद सारी बेटियों की पढ़ाई बंद कर दी जाती है। स्कूल से घर की दीवार लगी होने के बावजूद वह उनके लिए बहुत दूर होता है। जैनब जब तब अपने पिता हकीम से स्थिति के बारे में सवाल करती है तो पिता उसके साथ हिंसा करता है। उसे मारता-पीटता है। घर के हालात को ठीक करने के लिए संघर्ष करती दिखती है। वहीं पिता के बेटे की चाह में लगातार बच्चे पैदा करने से तंग आकर एक दिन हकीम की गैरमौजूदगी में अपनी मां का पड़ोसी की मदद से शहर जाकर ऑपरेशन करवा देती है। 

वह बाहर जाकर काम करने का फैसला करती है लेकिन मना कर दिया जाता है। तब जैनब यह फैसला करती है कि सैफी पेंटिग में अच्छा करता है चूंकि घर पर रहने से सैफी पेंटिग में कुशल हो गया था तो वह अपने पड़ोसी मुस्तफा की मदद से उसे काम दिलाने के लिए कहती है। जहां ट्रकों पर पेंटिंग करनी होती है और दिन के हिसाब से उसे पैसे मिलते। अपनी लैंगिक पहचान के चलते वहां उसका यौन उत्पीड़न होता है और उसे मरने की हालत में खेतों में फेंक दिया जाता। बाद में एक ट्रांसजेंडर की मदद से वह बच जाता है। लेकिन इस बात से नाराज पिता अपने मासूम बेटे की उसी रात गला दबाकर उसकी जान ले लेता है कि अब ये भी उन लोगों के साथ रहेगा नाचेगा-गाएगा तो समाज में बड़ी बदनामी होगी। 

इधर पैसों की तंगी के कारण एक सौदा के तहत हकीम को एक तवायफ से निकाह करता है और उधर जैनब अपनी छोटी बहन आयशा का निकाह पड़ोसी मुस्तफा से करवा देती है क्योंकि हकीम उसकी शादी किसी ऐसे आदमी से कराना चाहता था जो उम्र में उससे काफी बड़ा था। आगे जाकर तवायफ मीना को एक बेटी होती है जिसे हकीम अब लेना चाहता है क्योंकि वो नहीं चाहता कि उसकी बेटी हीरामंडी में पले बढ़े, भले बच्ची को मार ही क्यों ना देना पड़े। कहानी आगे बढ़ती है और ऐसा मोड़ आता है जहां जैनब बच्ची के बचाव में अपने पिता की हत्या कर देती है।

जैनब की शादी पहले रिश्ते आने पर ही कर दी गई। जब ससुराल गई तो उसने परिवार की आर्थिक स्थिति को देखकर कहा कि मैं तब तक बच्चा पैदा नहीं करूंगी जब तक घर के हालात ठीक नहीं हो जाते चूंकि खाने वाले दस और कमाने वाला एक था।

कहानी वर्तमान में आती है जहां एक महिला रिपोर्टर फांसी टालने की बहुत कोशिश करती है मगर फांसी को टाल नहीं पाती है। उधर फांसी का समय हो जाता है जहां जेलर सब मीडिया वालों को जाने को कहता है और जैनब को तख्ते तक ले जाया जाता है तब जैनब चीखते हुए कहती है “मुझे कह लेने दीजिए मेरा सब कुछ बोलना ज़ाया चला जाएगा, खुदा के लिए ठहरिए। मैंने अपने बाप से अपनी पैदाइश का बदला लिया है। मेरे बाप ने आठ बच्चे पैदा नहीं किए थे बल्कि आठ बच्चे मारे थे। मैं अपने पीछे एक सवाल छोड़कर जाना चाहती और मैं चाहती हूं कि आप सब इस सवाल का जवाब इस मुआशरे से मांगे। सवाल ये है कि सिर्फ मारना ही जुर्म क्यों है पैदा करना क्यों नहीं? सोचिए पैदा करना जुर्म क्यों नहीं है? पूछिए हराम का बच्चा पैदा करना ही जुर्म क्यों है? जायज बच्चे पैदा करके उनकी जिंदगियां हराम कर देना जुर्म क्यों नहीं? लोगों को समझाएं कि और भीखमंगे पैदा नहीं करो! रोती सुरतें बिसूरती जिंदगियां पहले ही बहुत है! जब खिला नहीं सकते तो पैदा क्यों करते हो?” और इसके बाद जैनब को फांसी दे दी जाती है। 

“बोल” फिल्म मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य परियोजना, PAIMAN (पाकिस्तान इनिशिएटिव फॉर मदर्स एंड न्यूबोर्न्स) का हिस्सा थी, जिसे जॉस हॉपकिंस यूनिवर्सिटी सेंटर द्वारा कार्यान्वित किया गया था, जिसने 2009 में शोएब मंसूर के शोमैन प्रोडक्शंस के साथ साझेदारी की थी। परियोजना का उद्देश्य मीडिया और पाकिस्तान के अभिजात वर्ग का ध्यान परिवार नियोजन और लैंगिक मुद्दों पर लाकर महिलाओं के अधिकारों की वकालत करना था।


Comments:

  1. Sahitya says:

    Bahut khoob kya likhi hai. bahut hi sundar shabdo se film ke har pahlu ko samjhayi hai aur film kya asal mayene me kya kahna chahta hai use bataya gaya hai…🩷👍

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