पूरे भारत में, विशेष रूप से दंतकथाओं, लोक कथाओं और पौराणिक कथाओं में भूत-प्रेत या दानव-दैत्य विभिन्न काल्पनिक कहानियों के किरदार के प्रमुख हिस्सा होते हैं। लेकिन जब भी भूत-प्रेत की कहानियों का जिक्र होता है, तो इनमें मूल रूप से महिलाओं की ही कल्पना की जाती है। इसमें एक अहम भूमिका बॉलीवुड की भी है जिसने मनोरंजन और कंटेंट के नाम पर सिर्फ महिलाओं के डरावने किरदारों की कल्पना की जाती है। डरावने किरदार के रूप में मनोरंजन की दुनिया ने महिला को मनोरंजक दिखाने के प्रयास में आपत्तिजनक और रूढ़िवादी नजरिए से ही दिखाते आया है। अमूमन डरावनी फिल्मों में महिलाओं को कमजोर, बेसहारा या कामुक किरदार के रूप में दिखाया गया है। सिनेमा में हॉरर, नारीवाद और मनोविश्लेषण पर थीसिस कर चुकीं बारबरा क्रीड तर्क देती हैं कि डरावनी फिल्मों में, मेल गेज़ अक्सर केंद्रीय होता हैं। महिला कामुकता के बारे में गलत धारणाएं डरावनी शैली में ही अंतर्निहित हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि फिल्मों में एक आम चीज़ जो दिखाई जाती है वह यह है कि कथित रूप से गुणी या शुद्ध महिलाएं फिल्म के अंत तक जीवित रहती हैं। वहीं जो महिलाएं कामुक व्यवहार दिखाती हैं, वे आमतौर पर कहानी के शुरू में ही मर जाती हैं।
इस तरह की आम धारणा के उलट, निदेशक अन्विता दत्त गुप्तन की साल 2020 में रिलीज़ हुई फिल्म ‘बुलबुल’ में कहानी के केंद्र में महिला को रखा गया है। डर की भावना के बावजूद, यहाँ उसकी अच्छाई स्थापित करने की कोशिश की गई। यानि आम तौर पर भूत का किरदार निभा रही महिला को गलत बताया जाता है और बुरा दिखाया जाता है। लेकिन दत्त की फिल्म ने उस बुराई के पीछे छिपे कारण को दिखाने का एक प्रयास है। दत्त की फिल्म, समकालीन दर्शकों के लिए ‘भूत’ के मिथक के उलट, यह पड़ताल करती है कि कैसे औरत का शरीर पितृसत्तात्मक समाज में उत्पीड़न का एक केंद्र बन जाता है।
फिल्म में यह सामाजिक न्याय के अंतर्गत दिखाया गया है कि कैसे मृत्यु के बाद कोई महिला जिसे उत्पीड़न का सामना करना पड़ा हो, वह सामाजिक अभिव्यक्ति का रास्ता तय करती है। मौत के बाद सर्वाइवर महिला भूत बन खुद के अंदर इतनी विस्मयकारी शक्तियों का समावेश कर लेती हैं कि वह उन सभी हिंसा, अन्याय और दोयम दर्जे के व्यवहार के खिलाफ आवाज उठाते हुए तमाम लोगों से बदला लेने के सक्षम हो जाती है। जीवित होते हुए जिन लाचारी, हिंसा और पीड़ाओं से वह गुजरी, मरने के बाद वह उन अत्याचारों से न सिर्फ आसानी से लड़ सकती है बल्कि और अधिक शक्तिशाली भी बन सकती है। फिल्म में महिला को कमजोर दिखाने के बजाय खुद अपने फैसले लेने में सक्षम दिखाया गया है।
1881 के बंगाल प्रेसीडेंसी की पृष्ठभूमि में फिल्माई गई फिल्म बुलबुल, भारत में अच्छी और बुरी शक्ति के इर्द-गिर्द प्रचलित दंतकहानियों के विचार को चित्रित करती है। बुलबुल फिल्म में, बुरी शक्ति के व्याख्या के साथ-साथ एक तरह से ऐसे नारीवाद का चित्रण देखने को मिलता है, जो विशेष कर भारतीय पितृसत्ता को चुनौती देती है। इसी के साथ ही औरत और प्रकृति की तुलना करके इसमें पर्यावरण के साथ नारीवाद के जुड़ाव का भी चित्रण है।
क्या है बुलबुल की कहानी
कहानी के शुरुआती फ्रेम में ही पेड़, जंगल और बुलबुल के लाल रंग से रंगे पैरों को दर्शाया गया है। सुंदर लाल चंद्रमा की तरह, बुलबुल के पैर आलता से लाल होते हैं। फिर उसके आवेग को रोकने के लिए उसे पैर की उंगलियों में अंगूठी पहनाई जाती है।अक्सर भारतीय लोक कथाओं और दंत कहानियों में ऐसे भूत के पैर पीछे की ओर मुड़े होते हैं। इस वजह से बुलबुल के पैर भी मुड़े और उल्टे होते हुए दिखाए जाते हैं। बुलबुल एक छोटी बच्ची है जिसका विवाह खुद से अधेड़ उम्र के व्यक्ति इंद्रनील (राहुल बोस) से होता है। इंद्रनील एक बड़ी हवेली का ठाकुर है जिसका बुलबुल से बाल विवाह होता है। खुले जंगलों से दूर और पेड़ की डालियों पर खेलने वाली बुलबुल अब हवेली में कैद अकेलेपन में जीने पर मजबूर हो जाती है। घर की बहू के लिए बने नियमों के नाम पर बुलबुल शारीरिक और मानसिक हिंसा का सामना करती है। बड़ी हवेली की छाया में उपजे अकेलेपन को भगाने के लिए उसका एक ही हमउम्र साथी है, बुलबुल का देवर– सत्या ठाकुर। सत्या के साथ वो खेलती है। फिल्म में एक दूसरी महिला बिनोदिनी दीदी का किरदार पाउली दाम निभाती हैं। बिनोदिनी इंद्रनील के जुड़वा भाई महेंद्र की पत्नी है। बिनोदिनी दीदी उम्र में बड़ी होने के बावजूद छोटी बहू हैं, जिस बात की टीस उन्हें अक्सर रहती है। बड़ी हवेली में अपनी प्रेम, अधिकार और सम्मान पाने की इच्छाओं को दमित करने को विवश कैसे एक स्त्री लालची, ईर्ष्यालु और अनावश्यक रूप से महत्त्वकांक्षी बन जाती है, बिनोदिनी का किरदार उसका उदाहरण है। पितृसत्ता के अधीन किस तरह एक स्त्री दूसरे के खिलाफ खड़ी दिखाई पड़ती है, इसे निर्देशक ने बिनोदिनी के माध्यम से दिखाया है।
बढ़ती उम्र के साथ बुलबुल (तृप्ति डिमरी) और सत्या (अविनाश तिवारी) काफी घनिष्ट मित्र बनते जाते हैं और साथ में कहानियां लिखते हैं, जहां बुलबुल सत्या की सीधी-सादी कहानियों को डरावना रुख देती रहती है। उसकी कहानी की कल्पना में है पेड़ पर रहने वाली एक लड़की। बड़ी हवेली और बड़ी बहू की गंभीर पोशाक के अंदर गिरती-संभलती बुलबुल अपनी कल्पना में खुले विचार वाली आजाद लड़की है। इस किरदार का जीवन उसकी पुरानी जिंदगी का प्रतिबिंब है, जहां वह हंसती–खेलती पेड़ों पर चढ़ती लड़की थी। आजाद, खुश और अपने इच्छा से चलने वाली बुलबुल थी।
पितृसत्ता के अधीन महिलाओं में पनपता कुंठा
बिनोदिनी दीदी सत्या और बुलबुल की बढ़ती दोस्ती के बारे में बड़े ठाकुर इंद्रजीत को पितृसत्तात्मक और रूढ़िवादी नजरिए से बताती हैं। इसमें बिनोदिनी को एक अवसर दिखता है, जिससे वह अपनी दमित कुंठा का बदला ले सके। बुलबुल के बारे में एक सोची-समझी लेकिन आकस्मिक टिप्पणी बड़े ठाकुर के मन में संदेह का बीज बोती है। जल्द ही पुरुष अहंकार निष्क्रिय हो जाता है। इस बीच सत्या को इंग्लैंड भेज दिया जाता है। इससे पहले कि बड़े ठाकुर अपना सामान पैक करें, वह बुलबुल के साथ शारीरिक हिंसा करते हैं। इसके बाद महेंद्र ठाकुर जिन्हें मानसिक रूप से अस्वस्थ दिखाया जाता है, बुलबुल के साथ बलात्कार करते हैं जिससे बुलबुल की मौत हो जाती है। यहां से बुलबुल, गुस्से से भरी प्रतिशोध लेने की भावना से भरी महिला के रूप में दिखाई गई है। वह अपनी अप्राकृतिक शक्तियों के साथ बड़ी बहू बनकर हवेली को संभालती है।
कई साल बाद सत्या ठाकुर (अविनाश तिवारी) इंग्लैंड से लौटता है और पाता है कि घर में अधिकांश रहने वाले नहीं हैं। वह बिनोदिनी दीदी को वापस लाता है, जो अब विधवा हो चुकी है। एकमात्र पुरुष होने के नाते, वह खुद को बुलबुल (बड़ी बहू) के नैतिक रक्षक के रूप में नियुक्त करता है। खासकर डॉ. सुदीप (परमब्रत चट्टोपाध्याय) के साथ उसका समय बिताना उसे पसंद नहीं है। इस बीच, गांव में हत्याओं और एक अप्राकृतिक शक्ति से संबंध के बारे में पुलिस की जांच चल रही है।
फिल्म की विशेषताएं और नारीवादी चित्रण
अनुष्का शर्मा का निर्मित बुलबुल एक घरेलू कहानी के माध्यम से कहानी को नारीवादी अंदाज़ में बखूबी चित्रित करता है। बुलबुल की कहानी और कहानी कहने का तरीका दोनों धुंध और रहस्य में डूबा हुआ है। यह अनकही रह गई चीजों में शक्ति ढूंढता है। बुलबुल को खूबसूरती से फिल्माया और संपादित किया गया है। जैसेकि प्रत्येक दृश्य कला का एक टुकड़ा, एक पेंटिंग हो। इसका कैमरा वर्क शानदार है। काफ़ी बारीकी से दृश्यों को फिल्माया गया है। दृश्यों में एक तेज़ी है। जिस तरह अप्राकृतिक शक्ति के अधीन कहानी की नायिका झपट्टा मारती है, करीब आती है या जब चाहे उड़ जाती है। इसके कई दृश्य एक ही स्वर में नहाए हुए हैं – लाल, गुलाबी, पीला- जो फिल्म को एक अलौकिक बनावट और मानसिक तौर पर चीजों की भयावहता दिखाने की कोशिश करता है।
आसमान के लाल बनने के बाद बुलबुल की स्थिति
सत्या का चरित्र, जो बुलबुल की रक्षा करना चाहता है, वह बुलबुल के आश्रय यानि जंगल में आग लगाकर उसके विनाश का मार्ग निश्चित करता है। बुलबुल हिंसा का सामना कर चुकी कई सर्वाइवर महिलाओं को न्याय दिलाकर समाज में संतुलन बनाने की कोशिश करने वाली अप्राकृतिक शक्ति है। ठीक उसी तरह जैसे एक जीव पारिस्थितिकी तंत्र में संतुलन बनाए रखता है। बुलबुल को बहुत कम उम्र से ही पक्षियों के निवास स्थान, पेड़ों की शाखाओं के प्रति लगाव करते दर्शाया गया है। वहीं सत्या के चरित्र को उन दिखावटी प्रकृति प्रेमियों के रूप में समझा जा सकता है, जो वृक्ष को गले लगा कर खुद को प्रकृति प्रेमी घोषित करना चाहते है। वह दुनिया में अपनी छाप छोड़ने की जल्दबाजी में नेतृत्व करते हैं। लेकिन असल में स्वयं प्रकृति के विनाश कर बैठते हैं। वहीं दूसरी ओर डॉ. सुदीप (परमब्रत चट्टोपाध्याय) जो स्त्री को किसी पुरुषवादी चश्मे से नहीं बल्कि एक इंसान के रूप में देखते हैं, और उनकी पीड़ा की कहानियों को गहराई से समझते हैं। सुदीप और सत्या के किरदारों को एक-दूसरे के विरोधाभास के रूप में देखा जा सकता है। बुलबुल का मार्मिक अंत सत्या से अनजाने में हुआ, लेकिन अतार्किक निर्णय के कारण हुई। वहीं सुदीप का किरदार आकस्मिक परिस्थितियों को समझदारी के साथ संभालने का एक सबक है।
गीत-संगीत का चुनाव
फिल्म के पृष्ठभूमि में संगीत में एक लड़की की मधुर गूंज है जो जादुई तो है पर डरावनी भी लगती है। उस गूंज की गहराई में भी एक उदासी और अकेलापन है। यह मधुर ध्वनि किसी सुरीली चिड़िया की याद दिलाती है जो कभी मस्तमौला चहचहाया करती थी। लेकिन अब उसकी आवाज में एक दर्द है, एक शोक है। फिल्म की पूरी सेटिंग बड़ी हवेलियां, पोशाकें, दीवारें व कमरें रवीन्द्रनाथ टैगोर और शरत चंद्र चट्टोपाध्याय की बंगाली उच्च जाति की गृहिणी के बारे में उन कहानियों की याद दिलाती है, जिनके पास बाहर की विलासिता से भरी दुनिया है लेकिन अंदर से दमित है। एक ऐसे पति के साथ फंसी हुई जो उसके संवेदनशील व्यक्तित्व और रचनात्मक क्षमता को समझने में विफल रहता है। इसी कारण वह एक युवा, सामाजिक और पारिवारिक सत्ता में उसके पति से कम ताकतवर आदमी में प्रेम का भाव रखती है और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि एक समझने वाले मित्र की तलाश करती है। यह फिल्म ऊंची जाति की औपनिवेशिक बंगाली परिवारों की पितृसत्ता की भयावहता को पूरी तरह से दर्शाती है, जिसमें विधवाओं पर थोपा गया अकेलापन भी शामिल है। आप यह भी देखते हैं कि कैसे घर के ‘मालिक’ के स्नेह के लिए प्रतिस्पर्धा करने की आवश्यकता संयुक्त परिवार की महिलाओं को एक-दूसरे के प्रति क्रूर होने के लिए प्रेरित करती है।
दोनों नायिकाओं के किरदार में मेल
लेकिन इस खोखली प्रतिस्पर्धा से दूर ये दोनों औरतें कहीं न कहीं एक ही तरह की विवशता देखती हैं। अपनी औरत होने की पहचान के कारण एक ऐसे समाजिक ताने-बाने में बंधी हुई हैं जहां उनका कुछ भी निजी नहीं हो सकता। जैसाकि बुलबुल के पति इंद्रनील (राहुल बोस) ने उससे अलंकारिक रूप से पूछा कि एक पत्नी का उसके पति के अलावा क्या निजी हो सकता है? शर्म, मर्यादा, सही और गलत यही सब एक महिला के जीवन को नियंत्रित करता है। यह पितृसत्तातमक मान्यताएं बुलबुल के निश्छल स्वभाव को झकझोर डालती है।
कहानी में बाद की बुलबुल क्यों अलग है
पहली बुलबुल जीवन को गले लगाती है। ऐसी बातें कहती है जिसकी उससे अपेक्षा नहीं की जाती है। लेकिन बड़ी बहू ज्यादा कुछ नहीं कहती। वह तब तक रहस्यमय ढंग से मुस्कुराती रहती है, जब तक हमें इसका कारण पता नहीं चल जाता। हवेली के कई रहस्यों के रक्षक के रूप में, बुलबुल वही करती है जो बिनोदिनी दीदी बार-बार कहती है – चुप रहना, सहते जाना। अंत तक यह दिखाया गया है कि कैसे शोषण सह रही बुलबुल अपने गुस्से, उदासी और प्रतिशोध में विनाशकारी होती है। ऊपरी तौर से देखने पर फिल्म बंगाली हवेलियों में पितृसत्ता की खतरनाक प्रकृति को चित्रित करती हुई दिखाई पड़ती है। लेकिन एक गहरे स्तर पर देखें तो वास्तव में यह एक बड़े पारिस्थितिक संकट का प्रतीक भी है।
पर्यावरण के संकट को दिखाने की कोशिश
यह एक तरह से पर्यावरण के संकट को भी दिखाने का प्रयास करता है जो केवल बुलबुल पक्षियों के लिए ही नहीं, बल्कि मूल रूप से सभी जंगल में रहने वाले के लिए है। ये मुद्दे ऐसे हैं जिनसे हम मुंह नहीं फेर सकते। आज हम जिस प्रकार की दुनिया में सांस ले रहे हैं और जिस तरह के समाज में रह रहे हैं, यह दोनों विषय बहुत महत्वपूर्ण और प्रासंगिक हो जाते हैं। बुलबुल फिल्म में इन दोनों प्रासंगिक पहलुओं को जोड़ने में कामयाब रही हैं। फिल्म के क्लाइमैक्स में जलते जंगल में नायिका पेड़ की डाली पर चुपचाप, शांत और भावविहीन बैठी हुई है और जंगल के अंत को चुपचाप देख रही है। अपने पति की बड़ी हवेली की रूढ़िवादी नियमों से कहीं दूर, ये पेड़ बुलबुल के वास्तविक घर हैं जहां वो एक अलग तरह का आराम पाती है। नायिका एक पक्षी की तरह शाखा पर बैठी दिखती हैं। दत्त ने शानदार ढंग से दर्शकों के मन में पक्षी बुलबुल और नायिका बुलबुल की समानता को चित्रित करने का प्रयास किया है। यह फिल्म केवल पितृसत्ता के तहत महिलाओं के खिलाफ हिंसा की ही कहानी नहीं कहती बल्कि निर्देशक उस गंभीर खतरे को उजागर करने में भी कामयाब रही है कि कैसे इंसानों ने प्रकृति को एक गंभीर खतरे में डाल दिया है। दर्शकों को ‘बड़ी हवेलियों’ के दकियानूसी सोच और पितृसत्ता से रूबरू कराते हुए फिल्म ने प्रभावशाली और प्रासंगिक काम हमारे सामने रखा है।