समाजकार्यस्थल छोटे शहरों की महिला पत्रकारों की संघर्ष और सफलता की कहानियां

छोटे शहरों की महिला पत्रकारों की संघर्ष और सफलता की कहानियां

कुछ लोग पत्रकारिता को महत्व नहीं देते हैं। इसलिए वह अपनी बेटी-बहू को इस काम में जाने की इजाज़त नहीं देते। कई लोगों चाहते हैं कि लड़की 9 से 5 का डेस्क जॉब करें, जिससे वे घर-परिवार की जिम्मेदारियों के साथ बाहर काम भी कर सकें। हमारे परिवार में कहीं ना कहीं अब भी यह सोच है कि रिपोर्टिंग लड़कों की फील्ड है।

भारत में युवाओं की संख्या में बढ़ती जनसंख्या के साथ वृद्धि देखी जा रही है। इन युवाओं में महिलाएं भी शामिल हैं। आज देश में महिलाएं हर क्षेत्र में काम कर रही हैं। उनका हर क्षेत्र के काम के प्रति रुझान बढ़ता नज़र आ रहा है, जिससे वह भी अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान कर रही हैं। लेकिन हमारे देश में अधिकतर लड़कियों और महिलाओं को कंपनियों में अमूमन डेस्क जॉब करते हुए देखा जाता है। पितृसत्तात्मक समाज की उम्मीद भी यही होती है कि महिलाएं अगर कामकाज कर भी रही हैं, तो वे ऑफिस में काम करेंगी। जिन नौकरियों में चुनौतीपूर्ण समय की मांग होती है, या यात्रा करने की जरूरत होती है, वैसी नौकरियां महिलाओं के लिए ज्यादा चुनौतीपूर्ण हो जाता है। ऐसे ही कई क्षेत्रों में से एक है, पत्रकारिता।

देश में हर दिन लोग न्यूज़ देखना, पढना और सुनना पसंद करते हैं। लेकिन इनमें भी महिलाओं की भागीदारी को नजरअंदाज किया जाता है। अमूमन न्यूज़ चैनलों पर महिला संवाददाता तो मिल जाती है, मगर महिला रिपोर्टरों की संख्या कम देखी जाती है। अखबारों में भी महिला रिपोर्टर्स की संख्या बहुत कम देखी जाती है। हमारे समाज में आज भी महिलाओं को 9 से 5 के ऑफिस काम को प्राथमिकता दी जाती है। एक वेब पोर्टल के लिए ऑनलाइन कंटेंट राइटर का काम कर रही सोनम (बदला हुआ नाम) कंटेंट लिखने के पहले रिपोर्टिंग किया करती थी। मगर इस दौरान उन्हें फील्ड में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता था। सोनम बताती हैं, “मैं चुनौतियों से नहीं डरती थी। लेकिन घरवालों के आगे मुझे हार मानना पड़ा। घर से फील्ड वर्क छोड़ने को लेकर मुझपर दबाव बनाया जाता था। शाम 6 बजे के बाद अगर मैं फील्ड में रहती थी तो घर से मुझे काम छोड़ने को कहा जाता था।”

महिलाएं या लड़कियां फील्ड रिपोर्टिंग में इसलिए भी काम नहीं करने आती क्योंकि शादी के बाद या पहले भी उन्हें बाहर जाकर काम करने की इजाज़त नहीं दी जाती है। कई बार परिवार की तरफ से एक समय अवधि के बाद घर से बाहर निकलने के लिए मना किया जाता है। इसके अलावा शहर के बाहर जाने की भी फीमेल रिपोर्टर्स पर पाबंदी होती है।

फील्ड में कितना मुश्किल है युवा महिला का काम करना

सोनम आगे बताती हैं, “फील्ड में काम करने के दौरान मुझे कई बार असहज भी महसूस हुआ है। रिपोर्टिंग के दौरान मैं मेल कैमरामैन के साथ जाती थी, जिससे कई बार मेरे और मेल कैमरामैन के रिश्ते का भद्दा मजाक बनाया जाता था। फील्ड में भी मुझे अधिकतर मेल रिपोर्टर्स ही मिलते थे जिसके कारण मैं अपनी समस्याओं या बातों को साझा नहीं कर पाती थी। फील्ड में महिला रिपोर्टर्स के लिए किसी तरह की सुरक्षा का इंतेज़ाम भी नहीं है। एक बार पब्लिक ऑपिनियन के दौरान मुझपर छात्रों ने पेन और बोतल फेंक दिया था। इसके अलावा मेरे नंबर पर भी कई बार अपरिचित नंबर से फोन आ जाते थे। अंत में मैंने इन परेशानियों से गुजरने के बाद, फील्ड रिपोर्टिंग छोड़ दी और कंटेंट राइटिंग की ट्रेनिंग लेकर दूसरी जगह काम करने लगी। अब इस काम से मेरे परिवार वाले भी खुश हैं।”

क्यों महिलाओं की अवैतनिक घरेलू जिम्मेदारी खत्म नहीं होती

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

कोरोना महामारी ने वैश्विक स्तर पर लोगों की नौकरियां छीन ली थी। महामारी के बाद जैसे-जैसे चीजें सामान्य हुई कंपनियों ने अपने कर्मचारियों को वापस ऑफिस बुलाना शुरू किया। इनमें भी महिलाओं की भागीदारी कम देखी गई। विश्व बैंक के द्वारा किए गए सर्वे के अनुसार साल 2010 से 2020 के बीच भारत में कामकाजी महिलाओं की संख्या कोरोना के बाद 26 प्रतिशत से घटकर 19 फीसद रह गई। पिछले साल जून में इंडिया टुडे में छपी खबर के मुताबिक टीसीएस कंपनी से कोरोना के बाद कंपनी से कई महिला कर्मचारियों ने इस्तीफा दे दिया था। इस रिपोर्ट के मुताबिक कंपनी ने कोरोना के बाद लोगों से ऑफिस में आकर काम करने को कहा, जिसके बाद बड़ी संख्या में महिला कर्मचारियों ने इस्तीफा दे दिया। यहां ये भी सोचने का विषय है कि क्यों महिलाओं को ऑफिस में वापस आना चुनौतीपूर्ण लगा।

फील्ड में महिला रिपोर्टर्स के लिए किसी तरह की सुरक्षा का इंतेज़ाम भी नहीं है। एक बार पब्लिक ऑपिनियन के दौरान मुझपर छात्रों ने पेन और बोतल फेंक दिया था। इसके अलावा मेरे नंबर पर भी कई बार अपरिचित नंबर से फोन आ जाते थे। अंत में मैंने इन परेशानियों से गुजरने के बाद, फील्ड रिपोर्टिंग छोड़ दी और कंटेंट राइटिंग की ट्रेनिंग लेकर दूसरी जगह काम करने लगी।

महिला होने की वजह से वैतनिक भेदभाव

पटना के दरभंगा हाउस से पत्रकारिता की पढ़ाई कर चुकी नेहा छपरा में अपने घर से वीडियो एडिटिंग का काम करती हैं। नेहा बताती हैं, “मैंने 2022 में कुछ दिन तक ऑफिस में वीडियो एडिटर के तौर पर काम किया। मगर ऑफिस में लड़की होने के नाते मेरे साथ वैतनिक भेदभाव हुआ। इस कारण मैंने नौकरी छोड़ दी। मेरे ऑफिस में मेल वीडियो एडिटर को हर महीने 15 हजार रुपए दिए जाते थे। वहीं मुझे 10 हजार ही दिया गया। इस पर मैंने सवाल भी पूछा तो ऑफिस वालों ने पुरुषों की जिम्मेदारियां गिना दी। इस तरह के ऑफिस के भेदभावपूर्ण माहौल से निराश होकर मैं घर चली आई और अब वहीं से दूसरे जगह ऑनलाइन काम करती हूं।” नेहा घर से काम करने में ज्यादा सहज और लचीला महसूस करती हैं। वह बताती हैं, “घर से काम करने से मैं घर के साथ-साथ बाहर के काम और ऑफिस के काम को भी आसानी से कर पाती हूं, जिससे मेरे ऊपर घर के काम का प्रेशर भी नहीं रहता।”

सुरक्षा संबंधी चिंताएं

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

दरभंगा की रहने वाली मौसम झा पटना में पत्रकारिता के क्षेत्र में हैं। मौसम फील्ड में काम करना पसंद करती हैं। मगर फील्ड में रहने के दौरान उन्हें यह एहसास हुआ कि कई बार उनके लिए काम करना नामुमकिन हो जाता है। वह बताती हैं, “ऐसा इसलिए होता है क्योंकि मैं एक महिला पत्रकार हूं। किसी खबर को कवर करने के लिए मुझे कई बार रात में भी घर से बाहर जाना पड़ता है। लेकिन मुझे इस दौरान कई बार असुरक्षित भी महसूस हुआ है।” एक मीडिया चैनल के साथ काम करते हुए उन्हें अपने काम और अपने अनुभव के आधार पर वेतन की मांग रखी थी, जिसपर कंपनी ने साफ इंकार कर दिया था। आखिरकार उन्होंने अच्छे वेतन न मिलने के कारण कंपनी छोड़ दी थी।

कई बार होता है जब किसी नेता या मंत्री की बाइट लेनी है, तो पुरुष रिपोर्टर्स दौड़कर उस नेता को घेर लेते हैं जिसके कारण महिला रिपोर्टर्स उस भीड़ में घुस पाना असुरक्षित और मुश्किल हो जाता है। महिलाएं या लड़कियां फील्ड रिपोर्टिंग में इसलिए भी काम नहीं करने आती क्योंकि शादी के बाद या पहले भी उन्हें बाहर जाकर काम करने की इजाज़त नहीं दी जाती है।

मनीकॉन्ट्रोल में भी छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 53 फीसद कामकाजी महिलाएं अपने वेतन वृद्धि की मांग करने में आत्मविश्वासी महसूस करती हैं, जो वैश्विक स्तर से 30 फीसद ज्यादा है। इसके  अलावा ‘प्रमोटिंग वुमन फॉर बेटर वर्क’ रिपोर्ट में पाया गया है कि भारत में 65 फीसद महिलाओं ने अपने काम के अनुरूप वेतन वृद्धि की मांग रखी, जो अन्य देशों के मुकाबले सबसे ज्यादा है। हालांकि इनमें से 56 फीसद महिलाओं को उनकी मांग से कम वेतन दिया गया है। इससे ये भी समझ आता है कि आम तौर पर हर क्षेत्र में चाहे वो बॉलीवुड हो, पत्रकारिता हो या कॉर्पोरेट क्षेत्र; हर क्षेत्र में महिलाओं के साथ वैतनिक भेदभाव होता है।  

पुरुषों का वर्चस्व और काम करने का माहौल

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए श्रेया टिंगल

अक्सर भेदभाव ऑफिस में हो ऑफिस के बाहर, इसे संबोधित करने की व्यवस्था नहीं होती। बिहार के इंडिया सिटी लाइव चैनल में काम कर रही अनन्या को काम के दौरान उत्पीड़न और फील्ड में लड़की होने के नाते मेल डोमिनेंस महसूस हुआ है। वह बताती हैं, “कई बार होता है जब किसी नेता या मंत्री की बाइट लेनी है, तो पुरुष रिपोर्टर्स दौड़कर उस नेता को घेर लेते हैं जिसके कारण महिला रिपोर्टर्स उस भीड़ में घुस पाना असुरक्षित और मुश्किल हो जाता है। महिलाएं या लड़कियां फील्ड रिपोर्टिंग में इसलिए भी काम नहीं करने आती क्योंकि शादी के बाद या पहले भी उन्हें बाहर जाकर काम करने की इजाज़त नहीं दी जाती है। कई बार परिवार की तरफ से एक समय अवधि के बाद घर से बाहर निकलने के लिए मना किया जाता है। इसके अलावा शहर के बाहर जाने की भी फीमेल रिपोर्टर्स पर पाबंदी होती है। हाल में हुए लोकसभा चुनाव के दौरान मुझे भी इन समस्याओं से गुजरना पड़ा। महिला रिपोर्टर्स को न्यूज़ प्रेजेंट करने के लिए बैठा दिया जाता है। इस क्षेत्र में अधिकतर महिलाओं को  कंटेंट राइटिंग, वॉइस ओवर आर्टिस्ट या कैमरे के पीछे के काम दे दिए जाते हैं। वहीं न्यूज़ प्रेजेंट करने के लिए उन महिलाओं का चुनाव किया जाता है जिनका चेहरा कैमरा पर अच्छा दिखे।”

मैंने 2022 में कुछ दिन तक ऑफिस में वीडियो एडिटर के तौर पर काम किया। मगर ऑफिस में लड़की होने के नाते मेरे साथ वैतनिक भेदभाव हुआ। इस कारण मैंने नौकरी छोड़ दी। मेरे ऑफिस में मेल वीडियो एडिटर को हर महीने 15 हजार रुपए दिए जाते थे। वहीं मुझे 10 हजार ही दिया गया।

बाहर काम के लिए समर्थन की कमी

शादी के बाद अक्सर महिलाओं को पत्रकारिता में परेशानी होती है यह क्षेत्र छोड़ना पड़ता है। पटना की रहने वाली अंजली यादव पटना के एक चैनल में काम करती हैं। वह कहती हैं, “कुछ लोग पत्रकारिता को महत्व नहीं देते हैं। इसलिए वह अपनी बेटी-बहू को इस काम में जाने की इजाज़त नहीं देते। कई लोगों चाहते हैं कि लड़की 9 से 5 का डेस्क जॉब करें, जिससे वे घर-परिवार की जिम्मेदारियों के साथ बाहर काम भी कर सकें। हमारे परिवार में कहीं ना कहीं अब भी यह सोच है कि रिपोर्टिंग लड़कों की फील्ड है। शादी के बाद मुझे खुद ही लगता है कि काम के लिए एक बार ससुराल वालों से पूछ लूं। हालांकि मेरे ससुराल में इस तरह की कोई रोक-टोक नहीं है, लेकिन बाकी महिला रिपोर्टर्स के साथ ऐसी छूट रहे यह जरूरी नहीं।”

लेकिन इसके बावजूद भी महिला रिपोर्टर्स की संख्या में अभी वृद्धि होना और उनके लिए ऑफिस के बाहर भी काम के लिए एक सुरक्षित माहौल बनाना बाकी है। एक ऐसे समाज में जो पितृसत्ता के नियमों के आधार पर चलता है, देश की महिला पत्रकारों को न सिर्फ ऑफिस में बल्कि बाहर और ऑनलाइन भी धमीकियाँ और ट्रोलिंग का सामना करना पड़ता है। महिलाओं के लिए सुरक्षित और सुविधाजनक कामकाजी माहौल तैयार करने के लिए जरूरी है कि परिवार और नागरिक समाज एक साथ इस दिशा में काम करे।  

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